By ज्ञानेंद्र रावत
बीते दिनों उत्तराखंड के 13 में से 11 जिलों के जंगलों में लगी भीषण आग चिंतित करने वाली है. इसने सैकड़ों एकड़ जंगल को अपनी चपेट में ले लिया है. संरक्षित वन क्षेत्र भी अछूते नहीं हैं. वन्यजीव ही नहीं, पालतू मवेशी भी जल कर मर रहे हैं. आग राजमार्ग और बस्तियों तक पहुंच गयी है. हजारों वनस्पतियों की प्रजातियां स्वाहा हो चुकी हैं. पर्यावरण विषाक्त हो रहा है. राज्य में पिछले छह महीनों में जंगल की आग की 1000 से अधिक घटनाएं हुई हैं.
आग से कम से कम पांच व्यक्ति और सात जानवरों के मारे जाने की सूचना है. 93 हजार, 538 रुपये की वन संपदा अभी तक स्वाहा हो चुकी है. वन विभाग की मानें, तो फरवरी से अब तक प्रदेश में आग लगने की कुल 609 घटनाएं हुई हैं, जिनमें राज्य के 1263.53 हेक्टेयर जंगल आग की समिधा बन चुके हैं. राज्य के वन विभाग, स्थानीय प्रशासन आदि के बारह हजार कर्मचारी आग बुझाने में लगे हैं, लेकिन आग बुझने का नाम नहीं ले रही है.
मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने केंद्रीय गृहमंत्री से मदद की गुहार लगायी है और एनडीआरएफ, हेलीकाॅप्टर व बचावकर्मियों की मांग की है. यह निश्चित तौर पर बड़ी लापरवाही का विषय है. आग का सबसे अधिक प्रभाव वन्य जीवन पर पड़ा है. हर साल जंगलों में आग की घटनाओं में हो रही बढ़ोतरी कई सवाल खड़े करती है.
कई बरस पहले टिहरी निवासी एडवोकेट ऋतुपर्ण उनियाल ने सर्वोच्च अदालत में एक याचिका दायर की थी, जिसमें कहा था कि राज्य के जंगलों में आग की बढ़ती घटनाओं के दुष्परिणामस्वरूप कीट-पतंगों, पक्षियों और जानवरों की हजारों प्रजातियां नष्ट हो रही हैं. आग से उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड से पहाड़ तप रहे हैं व ग्लेशियर पिघल रहे हैं.
प्रदूषण बढ़ और पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा रहा है. उन्होंने अदालत से तत्काल कार्यवाई की मांग की थी. यह भी कहा था कि केंद्र, राज्य सरकार, राज्य के मुख्य वन संरक्षक को राज्य में आग की रोकथाम के लिए तत्काल नीति तैयार करने और आग लगने से पहले ही इससे निबटने की व्यवस्था करने का निर्देश दिया जाए. उनियाल ने शीर्ष अदालत को बताया था कि 2016 में उत्तराखंड हाइकोर्ट ने वनाग्नि को लेकर सरकार को कुछ निर्देश दिये थे, लेकिन राज्य सरकार ने विशेष याचिका के माध्यम से इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी और सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराखंड हाइकोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी.
हर साल लगने वाली भीषण आग का खामियाजा देश भुगतता है. हिमालय से ही गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र आदि अनेकों नदियां का निकास हैं और ये करोड़ देशवासियों की जीवनदायिनी हैं. समूचा कृषि ढांचा इन पर आधारित है. यहां के जंगल हमारी जरूरतों की पूर्ति करते हैं. ऐसे में यहां लगनेवाली आग सीधे तौर पर हमारे पेट और पानी की आवश्यकता से जुड़ी है. विडंबना है कि आग की घटनाओं से हमने आज तक कोई सबक नहीं लिया. न कभी कुछ सीखने का प्रयास ही किया.
आजादी बाद के दशकों में जंगल की आग की बाबत किसी प्रकार की रणनीति बनाने में हमारी नाकामी संवेदनहीनता का परिचायक है. फिर हमारे जंगलात के महकमे का ढांचा ऐसा है कि वह केवल घटना की सूचना देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है. सरकारों ने भी कभी इस मुद्दे पर गंभीरता का परिचय नहीं दिया. सूचना और प्रौद्यौगिकी के इस मौजूदा दौर में संसाधन मुहैया करवाने और समय पर राहत पहुंचाना असंभव नहीं है. सरकारों द्वारा जंगलों की आग को हल्के में लिया जाना पर्यावरण विनाश का सबसे बड़ा कारण है.
दरअसल, हमारी वननीति के चलते पहले जो गांववासियों- वनवासियों का वनों से जीवन का रिश्ता था, वह अब खत्म हो गया है. सरकार द्वारा संचालित वन जागरूकता अभियान औपचारिकता मात्र बन कर रह गये हैं. वे गांव, गांववासी और जंगलों में रहने-बसने वालों को जंगलों से जोड़ने में नाकाम साबित हुए हैं. जंगल एक जटिल सामाजिक पारिस्थितिक संस्था हैं, जहां विविध आदिवासी और गैर आदिवासी समुदाय सैकड़ों सालों से रहते आये हैं.
वही वनों के सबसे कुशल प्रबंधनकर्ता व सकारात्मक पर्यावरण के निर्माणकर्ता भी हैं, लेकिन हमारी वननीति ने हमारे सामाजिक सरोकारों को भी छिन्न-भिन्न कर दिया है. वनरक्षकों की कमी भी इसका एक प्रमुख कारण है. लाखों हेक्टेयर में फैले जंगल की रखवाली महज कुछ वनरक्षकों द्वारा कैसे संभव है? वर्तमान वननीति का मसौदा भले वानिकी उत्पादन को बढ़ावा देने वाला हो, लेकिन वह स्थानीय आजीविका व पर्यावरण के लक्ष्यों पर कुठाराघात करता है. एक ताजा अध्ययन से खुलासा हुआ है कि दुनिया में यदि जंगलों के खात्मे की यही गति रही, तो 2100 तक समूची दुनिया से जंगलों का पूरी तरह सफाया हो जायेगा.
जहां-जहां चीड़ के जंगल हैं, उनका ज्वलनशील पिरूल जंगलों की बर्बादी का एक और प्रमुख कारण है. यह आग को प्रचंड रूप देने का काम करता है. यह जंगल के अन्य प्रजातियों के पेड़-पौधों और जैव विविधता के लिए भी भीषण खतरा है. चीड़ के एक हेक्टेयर जंगल से लगभग आठ टन पिरूल गिरता है. जमीन पर गिरने से इसकी परतें बनती जाती हैं, जिससे इस जगह कुछ पैदा ही नहीं होता. इस पर आज तक अंकुश लगाने में दुनिया नाकाम रही है. इस ओर किसी का ध्यान नहीं है. ऐसी हालत में जंगलों के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना बेमानी है.
सौजन्य - प्रभात खबर।
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