हरबंश दीक्षित, सदस्य, उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, प्रयागराज
महामारी से निपटने के मामले में सरकारी तंत्र पर अदालत के आक्रोश को समझा जा सकता है। दरअसल, यह आम लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देने की अपेक्षा की अभिव्यक्ति है। अदालतें पहले भी इस तरह की पहल करती रही हैं और बहुत सकारात्मक परिणाम भी आए हैं। तकरीबन 32 वर्ष पहले 1989 में परमानन्द कटारा देश की स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में एक युगान्तकारी परिवर्तन के माध्यम बने थे। उनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वास्थ्य सुविधाओं को पाने के अधिकार को जीवन के मूल अधिकार का अभिन्न भाग मानते हुए सरकार तथा निजी चिकित्सकों को निर्देशित किया था कि आपात परिस्थिति में आने वाले हर मरीज को चिकित्सा देना उनकी जिम्मेदारी है। शुरुआत एक खबर से हुई थी, जो दुर्घटनाग्रस्त स्कूटर चालक की मौत के बारे में थी। सड़क पर स्कूटर सवार को किसी कार ने टक्कर मार दी थी। उसे लेकर एक व्यक्ति नजदीक के अस्पताल में गया। अस्पताल ने घायल का इलाज करने से इन्कार कर दिया, क्योंकि डॉक्टर के मुताबिक वह मेडिको लीगल मामला था। उसे दूसरे अस्पताल ले जाने को कहा गया, जो 20 किलोमीटर दूर था। वहां पहुंचते घायल व्यक्ति दम तोड़ चुका था।
परमानन्द कटारा का मामला कई प्रकार से अभूतपूर्व था। लोकहित के मामलों में आमतौर पर इस तरह के आदेश केवल केंद्र सरकार और राज्य सरकार या सरकारी कर्मचारियों के लिए दिए जाते हैं। लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों के माध्यम से सभी मेडिकल कॉलेजों और निजी नर्सिंग होम और चिकित्सकों तक को इस आदेश की प्रति देने और उसका पालन सुनिश्चित करने को कहा। न्यायालय ने कहा कि यदि घायल व्यक्ति को जरूरी चिकित्सकीय सुविधाएं उपलब्ध न हो सकें, तो अनुच्छेद 21 का जीवन का अधिकार बेमानी है। इसलिए सरकार और सभी चिकित्सकों की यह जिम्मेदारी है कि आपात परिस्थितियों में पहुंचने वाले हर मरीज को चिकित्सा उपलब्ध कराएं।
संविधान के अनुच्छेद 21 के अलावा संविधान में दूसरे भी कई ऐसे उपबंध हैं, जिनमें सरकार को आम लोगों के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी दी गई है। अनुच्छेद 39(ई) में राज्यों को कामगारों के समूचित स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया है। यह राज्य की जिम्मेदारी तय करता है कि वह काम करने और मातृत्व की सुविधाएं सुनिश्चित करे और अनुच्छेद 47 भी आम लोगों के स्वास्थ्य का स्तर बेहतर करने के लिए आवश्यक प्रयास करता है। इतना ही नहीं, हमारे संविधान की अनुसूची 11 की प्रविष्टि 23 तथा अनुच्छेद 343जी के अंतर्गत पंचायतों और स्थानीय निकायों की भी जिम्मेदारी तय है कि वे अपने क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाओं को सुनिश्चित करें। पारंपरिक सोच यह है कि राज्य के नीति निर्देशक तत्व मूल अधिकार से इस मामले में अलग होते हैं कि वे निर्देश मात्र होते हैं और उन्हें अदालतों के माध्यम से लागू नहीं किया जा सकता, किंतु अदालतों ने आगे बढ़कर उन्हें मूल अधिकारों की तरह लागू किया है।
कोविड महामारी के मामलों में पहले भी अदालतों ने कई बार आवश्यक दिशा-निर्देश जारी किए हैं। पिछले वर्ष जब देशभर के अस्पतालों से बदइंतजामी की शिकायत मिल रही थी, तब अदालत ने उनका स्वत: संज्ञान लिया। समाचार पत्रों में छपी खबर के आधार पर इसकी जांच कराने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 12 तथा 19 जून 2020 को व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए, जिसमें कोविड जांच बढ़ाने तथा सभी अस्पतालों में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने का आदेश शामिल था। अदालत ने एक उच्चस्तरीय समिति भी गठित की, ताकि उसके दिशा-निर्देशों की पालना सुनिश्चित हो सके।
कोविड महामारी एक आपात स्थिति है। इससे निपटने में सरकारों की सफलता और असफलता पर विवाद हो सकता है, किंतु उनकी नीयत पर संदेह नहीं किया जा सकता। मानव की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वह हर आपदा से कुछ न कुछ सीखता है। मौजूदा महामारी से निपटने में अदालतों की भूमिका की जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी कम है, किंतु उनकी अपनी एक सीमा होती है। हर छोटे-छोटे मामलों को जानने का न तो अदालतों के पास कोई तंत्र होता है और न ही वे उसे जमीनी स्तर पर लागू कर सकती हैं। इसके लिए मौजूदा कानूनी ढांचे की कमियों को भी दूर करना जरूरी है। स्वास्थ्य सुविधाएं पाने के अधिकार को हमारे संविधान में अलग से मूल अधिकार का दर्जा नहीं दिया गया है। इसके कारण ऐसे अधिकार का उपयोग करने में कई तकनीकी दिक्कतें आती हैं। कोविड महामारी ने हमें पहली सीख यह दी है कि स्वास्थ्य सुविधाओं को पाने का अधिकार मूल अधिकार के अध्याय में शामिल हो। दूसरा यह कि मूल अधिकारों के लाभ को निचले स्तर तक पहुंचाने के लिए यह जरूरी है कि पूरे देश की स्वास्थ्य सुविधाओं के नियमन के लिए व्यापक कानूनी ढांचा हो। इसमें केंद्र और राज्य सरकारों के समन्वय तथा एकजुट होकर काम करने की जरूरत होगी। इसमें एक बाधा है। संविधान में स्वास्थ्य सुविधाओं तथा अस्पताल के संबंध में कानून बनाने का अधिकार राज्यों के पास है। शायद ही कोई ऐसा राज्य होगा, जिसके पास स्वास्थ्य सेवाओं से संबंधित कानूनी ढांचा उपलब्ध होगा। कानूनी ढांचे की इस कमी का नुकसान यह है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया और उसे लागू करने में बिखराव है।
तदर्थ जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारें निर्णय ले रही हैं, जिसके कारण जब अचानक कोई दूसरी समस्या आ जाती है, तो पहले की कार्यवाही ठंडे बस्ते में चली जाती है। राज्यों के बीच कई विषयों पर मतभेद भी हैं, इसलिए भी कहीं-कहीं एकजुटता का अभाव नजर आता है। इस कमी को दूर करने के लिए यह जरूरी है कि संविधान में संशोधन करके स्वास्थ्य सुविधाएं तथा अस्पताल जैसे विषय को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में लाया जाए। केंद्र द्वारा इस विषय पर व्यापक कानून बनाया जाए, जिसमें सरकारी तंत्र और निजी अस्पतालों का नियमन हो और उनकी जवाबदेही तय हो। ऐसे में, यदि स्थानीय स्तर पर कोई चूक होती है, तो नोडल अधिकारी उसे दूर कर लेगा। अस्पताल के कर्मचारियों की लापरवाही से होने वाले नुकसान के मामलों में न्याय आसान हो जाएगा। न्याय के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय जाना सबके वश की बात नहीं है। दूसरे यह कि पीड़ित के अधिकार और अस्पतालों या सरकार के कर्तव्यों का स्पष्ट निर्धारण न होने के कारण न्याय पाना तकरीबन असंभव जैसा होता है। स्पष्ट कानूनी ढांचे से लोगों को निचली अदालतों से ही न्याय मिल सकेगा और लापरवाह कर्मचारियों के लिए चेतावनी भी होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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