नक्सलियों का कहर (जनसत्ता)

छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के जंगलों में शनिवार को नक्सलियों ने सुरक्षा बलों पर एक बार फिर बड़ा हमला कर अपनी ताकत का संदेश देने की कोशिश की है। यह हमला बता रहा है कि नक्सलियों के हौसले कहीं से कमजोर नहीं पड़े हैं, बल्कि सुरक्षा बलों के अभियानों के बाद उनकी ताकत और उग्रता बढ़ी है। साथ ही, छापामार युद्ध के लिए जरूरी संसाधन उनके पास हैं और अत्याधुनिक हथियारों व गोलाबारूद आदि की निर्बाध आपूर्ति भी उन्हें मजबूत बना रही है। सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि नक्सलियों का खुफिया सूचना तंत्र इतना चाकचौबंद है कि उसके आगे सरकारी तंत्र बौना साबित हो रहा है। वरना क्या कारण है कि नक्सलियों के खिलाफ जब भी किसी बड़े हमले के लिए सुरक्षा बल मोर्चे पर जाते हैं तो नक्सली उन्हें घेर लेते हैं और भारी नुकसान पहुंचा देते हैं!

इस तरह का हमला कोई पहली बार नहीं हुआ। ठीक ग्यारह साल पहले (छह अप्रैल 2010) दंतेवाड़ा जिले में हुए उस हमले को भुलाया नहीं जा सकता जब नक्सलियों ने सुरक्षा बलों के छिहत्तर जवानों को घेर कर मार डाला था। साल 2013 में जीरम घाटी में नक्सली हमले में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के कई नेताओं सहित तीस लोग मारे गए थे। साल में एक दो ऐसे बड़े हमले करने के पीछे नक्सलियों की मंशा अपनी मौजूदगी और शक्ति का एहसास कराने की रहती है। पिछले साल इक्कीस मार्च को सुकमा जिले में एक बड़े हमले में सत्रह जवान शहीद हो गए थे। दरअसल ऐसे बड़े हमलों को अंजाम देने वाला शीर्ष नक्सली नेता मादवी हिडमा सुरक्षा बलों के लिए बड़ा सरदर्द बना हुआ है।

एक खुफिया सूचना पर ही अलग-अलग बलों के दो हजार से ज्यादा जवानों का दल हिडमा को पकड़ने के लिए शुक्रवार को बीजापुर और सुकमा के जंगलों में गया था। शनिवार को जंगलों में तलाशी के दौरान नक्सलियों ने इन जवानों के घेर लिया और कई घंटे मुठभेड़ चली। नक्सल प्रभावित जिले घने जंगलों वाले हैं और इन जंगलों में ही नक्लसियों के ठिकाने हैं जहां पहुंच पाना किसी के लिए आसान नहीं होता। न ही किसी के बारे में कोई सटीक सूचना होती है। ऐसे में सुरक्षा बलों के लिए जोखिम और बढ़ जाता है और अक्सर वे हमलों का शिकार हो जाते हैं।

सवाल है कि नक्सलियों से निपटने की रणनीति आखिर कारगर साबित क्यों नहीं हो रही? दशकों बाद भी क्यों नहीं केंद्रऔर राज्य सरकारें नक्सलियों की कमर तोड़ पाने में कामयाब हो पाईं? हमलों में जिस तरह से जवानों की जान चली जाती है, उससे तो लगता है कि नक्सलियों के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियानों में कहीं न कहीं गंभीर खामियां रह जाती हैं। खुफिया सूचनाओं और सही फैसलों के तालमेल के अभाव में ठोस रणनीति नहीं बन पाती और जवान मारे जाते हैं।

दुख और हैरानी की बात यह भी है कि सरकारों के स्तर पर नक्सलियों से किसी भी तरह के संवाद का रास्ता नहीं बन पाया है। हर बड़े हमले के बाद सिर्फ नक्सलियों के सफाए अभियान पर ही जोर रहता है। नक्सली समस्या का समाधान बहुआयामी प्रयास मांगता है, जिसमें सबसे संवाद भी उतना ही जरूरी है, जितनी कि कार्रवाई और साथ ही सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक प्रयास। पूरी तरह से नक्सलियों का सफाया आसान नहीं है, यह सरकार भी जानती है। इसलिए इस समस्या से निपटने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों को नए सिरे से रणनीति बनाने की जरूरत है।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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