पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपना राजनीतिक करियर 1970 के दशक में कांग्रेस से शुरू किया और 1997 में कांग्रेस से त्यागपत्र देकर 1 जनवरी, 1998 को अपनी पार्टी ‘तृणमूल कांग्रेस’ बना ली। 1999 में श्री अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा नीत ‘राजग’ से जुड़कर वह उनकी सरकार में रेल मंत्री बनीं परंतु कुछ समय बाद राजग से नाता तोड़ कर कांग्रेस नीत ‘यू.पी.ए.’ से जुड़ गईं और उसमें भी रेल मंत्री बनीं। केंद्र में मंत्री रहते हुए भी उनकी नजर पश्चिम बंगाल पर शासन करने पर ही टिकी रही और अंतत: बंगाल में 34 वर्षों का वामपंथी शासन समाप्त कर वह 22 मई, 2011 को प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गईं।
10 वर्ष से बंगाल की सत्ता पर काबिज ममता बनर्जी अब तीसरी बार अपनी सफलता के लिए पूरा जोर लगाए हुए हैं तो दूसरी ओर केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा उन्हें सत्ताच्युत करने के लिए प्रयत्नशील है। कई महीनों से भाजपा के शीर्ष नेता-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, अमित शाह, राजनाथ सिंह, योगी आदित्यनाथ आदि राज्य के लगातार दौरे कर रहे हैं।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सत्ता विरोधी लहर के साथ पार्टी में बढ़ रहे असंतोष का भी सामना करना पड़ रहा है जिस कारण उनके विश्वस्त साथी और पूर्व मंत्री शुभेंदु अधिकारी सहित दर्जनों ‘तृणमूल कांग्रेस नेता’ पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए हैं। यही नहीं ममता बनर्जी के सांसद भतीजे अभिषेक बनर्जी और उनकी पत्नी रुजिरा नरूला की कोयला तस्करी में कथित संलिप्तता, विदेशी बैंक खातों में रकम आदि को लेकर भी रोष व्याप्त है।
इसी बीच जहां ममता के मुस्लिम वोट काटने के लिए ‘असदुद्दीन ओवैसी’ ने अपने उम्मीदवार (ए.आई.एम.आई.एम.) मैदान में उतारे हुए हैं, वहीं ‘फुरफुरा शरीफ’ दरगाह के मौलाना ‘पीरजादा अब्बास सिद्दीकी’ ने भी अपना राजनीतिक दल ‘इंडियन सैकुलर फ्रंट’ बनाकर ममता के लिए मुश्किल पैदा कर दी है। राज्य में चल रही ऐसी गतिविधियों के बीच भाजपा के लगातार हमलों के कारण अपने सिर पर खतरा मंडराता देखकर ममता ने सोनिया गांधी (कांग्रेस), शरद पवार (राकांपा), एम.के. स्टालिन (द्रमुक), अखिलेश यादव (सपा), तेजस्वी यादव (राजद), उद्धव ठाकरे (शिवसेना), केजरीवाल (आप) व नवीन पटनायक (बीजद) सहित 15 गैर-भाजपा नेताओं को पत्र लिखा है।
इस पत्र में ममता बनर्जी ने भाजपा पर देश में एक दलीय तानाशाही शासन स्थापित करने की कोशिश करने का आरोप लगाते हुए लोकतंत्र और संविधान पर भाजपा के हमलों के विरुद्ध एकजुट होने का आह्वान किया है। परंतु ममता बनर्जी को राकांपा, राजद, नैकां, आप और पी.डी.पी. जैसी 4-5 क्षेत्रीय पार्टियों का ही समर्थन मिला है जिनका बंगाल में कोई जनाधार ही नहीं है जबकि राज्य में कांग्रेस व कम्युनिस्टों जैसी जनाधार वाली पाॢटयों ने उनके पत्र पर कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी। भाजपा नेतृत्व का कहना है कि इस पत्र के पीछे ममता को हार की चिंता दिखाई दे रही है।
राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि केंद्रीय सरकार के विरुद्ध प्रमुख विरोधी दलों को एकजुट होने का जो आह्वान ममता बनर्जी अब कर रही हैं वह उन्हें बहुत पहले करना चाहिए था। कुछ इसी तरह का आह्वान पिछले वर्ष जनवरी में सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों की बैठक में किया था परंतु उस बैठक में ममता बनर्जी शामिल ही नहीं हुई थीं। यह सही है कि लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष बहुत जरूरी है जैसे कि इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में लगाई गई एमरजैंसी का जवाब 1977 के चुनावों में एकजुट होकर विरोधी दलों ने इंदिरा गांधी को बुरी तरह हरा कर दिया था।
विपक्षी एकता का एक अन्य उदाहरण श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लगभग 22 विपक्षी दलों का गठबंधन (राजग) बनाकर पहली बार 1998 में और फिर 1999 में चुनाव जीत कर सरकार बना कर पेश किया था। निष्कर्ष में यही कहा जा सकता है कि इस समय जबकि केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा हर हालत में पश्चिम बंगाल का चुनाव जीतने पर आमादा है और जब 8 चरणों में से 2 चरणों का मतदान हो चुका है, अब ममता बनर्जी जनाधार वाली कांग्रेस, कम्युनिस्ट तथा उनकी सहयोगी पाॢटयों के नेताओं को पत्र लिख कर एकजुट होने के लिए पुकार रही हैं। ‘जब दिया रंज बुतों ने तो ‘खुदा’ याद आया।’-विजय चोपड़ा
सौजन्य - पत्रिका।
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‘ममता का विपक्षी नेताओं को एकता पत्र’ ‘जब दिया रंज बुतों ने तो ‘खुदा’ याद आया’ (पत्रिका)
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