By संपादकीय
निरंतर परिवर्तित होती वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में भारत की भूमिका उत्तरोत्तर महत्वपूर्ण होती जा रही है. इस परिवर्तन के साथ भारतीय क्षमता और आंकाक्षा को समुचित ढंग से संबद्ध करने की आवश्यकता भी बढ़ रही है. इसे रेखांकित करते हुए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा है कि भारत का पड़ोस पूर्व में मलक्का जलसंधि और पश्चिम में अदन की खाड़ी तक सीमित नहीं है.
इस संदर्भ में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सहयोग व सहकार बढ़ाने की अवधारणा का महत्व बढ़ जाता है. उल्लेखनीय है कि दो दशक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत के विस्तारित पड़ोस को परिभाषित करते हुए उसका दायरा मलक्का जलसंधि और अदन की खाड़ी के बीच इंगित किया था. विदेश मंत्री द्वारा इसे व्यापक करने का अर्थ यह है कि अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में भारत बड़ी भूमिका निभाने के लिए तैयार है.
निश्चित रूप से यह दृढ़ता चीन को रास नहीं आ रही है और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति एवं स्थिरता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से गठित क्वाड को वह एक सैन्य समूह की तरह देखता है. किंतु क्वाड देशों ने स्पष्ट किया है कि वे इस प्रयास में अन्य देशों का साथ लेने की इच्छा रखते हैं. इसी क्रम में जयशंकर ने इसमें आसियान देशों को जोड़ने की बात की है.
चीन की परेशानी यह है कि इससे दक्षिणी व पूर्वी चीन समुद्र तथा हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसके आक्रामक वर्चस्व को चुनौती मिल सकती है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की विश्व व्यवस्था में बहुपक्षीय संगठनों और समझौतों की उपयोगिता कई दशक तक बनी रही थी, पर अब वे अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे हैं. इसी तरह सुरक्षा के उद्देश्य से बने समूह तथा द्विपक्षीय संबंध भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रहे हैं.
जैसा विदेश मंत्री ने रेखांकित किया है, यही कारण है कि अब देशों के छोटे-छोटे समूह बन रहे हैं. ऐसे समूहों का आधार साझा हित व लक्ष्य तथा संरचनात्मक समानता है. बहुध्रुवीय विश्व की वर्तमान रचना प्रक्रिया में भू-राजनीति, वाणिज्य-व्यापार और सामरिक व रणनीतिक आयामों का नये ढंग से संतुलन बन रहा है. इस संतुलन का उत्प्रेरक आज और भविष्य की परिस्थितियां तो हैं ही, इसे इतिहास से भी आधार मिल रहा है.
जयशंकर की यह बात अर्थपूर्ण है कि बहुत पहले के व्यापारिक मार्गों का विस्तार पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र से लेकर भू-मध्यसागर तक था. आज जब विश्व बाजार पहले के किसी भी युग की तुलना में अधिक प्रभावी ढंग से परस्पर जुड़ा हुआ है.
इस स्थिति में पुराने व्यापारिक मार्ग और ऐतिहासिक सहयोग के पहलू उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं, जो साम्राज्यों के युग में और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बिखर गये थे. पश्चिम के घटते प्रभाव तथा चीन की आक्रामकता को देखते हुए भारत अंतरराष्ट्रीय राजनीति और आर्थिकी में सकारात्मक हस्तक्षेप करने की क्षमता रखता है. यह क्षमता किसी वर्चस्व के आग्रह से प्रेरित नहीं है.
सौजन्य - प्रभात खबर।
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