कुमार प्रशांत
जयप्रकाश नारायण पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने पूर्वी पाकिस्तान के दमन को लोकतंत्र के दमन का नाम दिया और शांतिमय जनांदोलन का रास्ता अपनाने के लिए शेख मुजीबुर रहमान का समर्थन किया। 1971 में पाकिस्तानी दमन देखते-देखते नरसंहार में बदल गया। सड़कों पर, विश्वविद्यालयों में, संस्थानों में निहत्थे लोग थोक के भाव से मारे जाने लगे। घटनाएं इतनी तेजी से घट रही थीं कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी विमूढ़-सी हो रही थीं। विपक्ष के पास कोई दृष्टि नहीं थी। लेकिन यहां देश में भी और वहां दुनिया में भी एक अनोखा विभाजन आकार लेने लगा था : जनता इस दमन के खिलाफ मुखर होती जा रही थी, ‘जनता की सरकारें’ मौन साधे हुई थीं।
संकट आगे बढ़ा, तो मुजीब साहब ने पूर्व पाकिस्तान को बांग्ला भाषा व संस्कृति से जोड़कर एक नया ही संदर्भ खड़ा कर दिया और पूर्व पाकिस्तान की जगह ‘बांग्लादेश’ नाम हवा में तैरने लगा। जयप्रकाश ने इसे नई राजनीतिक दिशा दी और पहली बार यह मांग उठाई कि भारत सरकार बांग्लादेश को राजनीतिक मान्यता दे। जयप्रकाश सरकार से अलग व समानांतर भूमिका में काम कर रहे थे। इंदिरा जी को सलाह दी गई कि भारत सरकार जयप्रकाश को भारत का पक्ष समझाने के लिए अपना दूत बनाकर भेजे, तो वह एक रचनात्मक भूमिका अदा कर सकते हैं।
जयप्रकाश ने अपनी स्थिति स्पष्ट की : मैं भारत सरकार की हर संभव मदद करने को तैयार हूं, लेकिन उसका दूत या प्रतिनिधि बनकर नहीं। इंदिराजी ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया और यह सुविधा भी बना दी कि जयप्रकाश जहां भी जाएंगे, वहां का भारतीय दूतावास हर तरह की अनुकूलता बनाने में उनकी मदद करेगा।
जयप्रकाश अपने प्रभाव से हर तरह से मदद जुटाने में लगे थे और सरकार को भी सुझाव दे रहे थे कि वह खुली सैनिक मदद दे। इंदिराजी ने चार दिसंबर, 1971 को जयप्रकाश का दबाव झटकते हुए कहा कि हमें आदेश देना बंद करें लोग; और दो दिन बाद, छह दिसंबर को बांग्लादेश को मान्यता दे दी। सोवियत संघ को साथ लेकर इंदिरा जी ने कूटनीतिक बारीकियों के मोर्चे पर भी और युद्ध में भी पाकिस्तान को पराजित किया। इंदिरा जी का यश आसमान पर था। जयप्रकाश ने भी उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।
बांग्लादेश बन जाने और शेख साहब के प्रधानमंत्री बन जाने से जयप्रकाश का काम पूरा नहीं हुआ। इतिहास के पन्नों में जयप्रकाश का वह पत्र दबा मिलता है, जो पटना से लिखा गया है और जिस पर 31 जनवरी, 1972 की तारीख पड़ी है। वह लिखते हैं : 'ईश्वर आपको लंबी उम्र व बढ़िया तंदुरुस्ती दे, ताकि आप न केवल अपने व अपने साढ़े सात करोड़ बंधुओं के सपनों का सोनार बांग्ला साकार कर सकें, बल्कि इस अभागे उपमहाद्वीप को स्वतंत्र, स्वायत्त राष्ट्रों का समृद्ध समुदाय बनाने के ऐतिहासिक कार्य में मददगार हो सकें। विनोबा जी, जवाहरलाल जी, राम मनोहर लोहिया और मेरे सहित इस देश के कई लोगों का सपना रहा है कि केवल भारतीय उपमहाद्वीप का नहीं, बल्कि समूचे दक्षिण एशिया का भविष्य इसमें ही निहित है कि इस क्षेत्र के सभी देश किसी-न-किसी प्रकार के संघ अथवा भाईचारे से बंधे-जुड़े रहें। इसके अलावा 51 साल की आपकी उम्र आपको इस ऐतिहासिक, चुनौती भरे काम को अंजाम तक पहुंचाने का भरपूर समय भी देती है।'
इतिहास ने शेख साहब के कंधों पर संभावनाओं की जो गठरी डाल दी थी, वह उससे कहीं छोटे साबित हुए। वह न दूरदर्शी राजनेता साबित हुए न कुशल प्रशासक। सत्ता की ताकत से देश को मुट्ठी में रखने की कोशिश में वह सारे अधिकार अपने हाथों में समेटते गए और अंतत: 1975 में खुद को प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति बना लिया और एक तानाशाह की भूमिका में आ गए। 15 जनवरी, 1975 को फौजी व राजनीतिक बगावत में उनके सहित उनका पूरे परिवार को मार डाला गया। बांग्लादेश से बाहर होने के कारण उनकी बेटी शेख हसीना बच गईं। तब जयप्रकाश अपने देश की दिशा मोड़ने के अपने अंतिम अभियान के संचालन के ‘अपराध’ में चंडीगढ़ के अस्पताल में नजरबंद थे।
चंडीगढ़ की नजरबंदी के दरम्यान वह डायरी लिखते थे। अपनी उस जेल डायरी में, 16 अगस्त 1975 को वह लिखते हैं : 'बांग्लादेश से अत्यंत पीड़ादायक खबर है- अविश्वसनीय की हद तक। लेकिन जिस तरह मुजीब ने अपनी निजी व दलीय तानाशाही वहां स्थापित कर रखी थी, यह उसका ही नतीजा है। अपने एकाधिकार का औचित्य बताने के लिए मुजीब ने भी वैसे ही कारण दिए थे, जैसे अब श्रीमती गांधी दे रही हैं।' अगले दिन की डायरी में वह लिखते हैं: 'लेकिन जब उन्होंने रंग बदला एकदलीय शासन की स्थापना कर ली, उनके प्रति मेरे कोमल भाव हवा हो गए। उन्होंने मूर्खता की और विफल हुए। कल जब मैंने उनकी हत्या की खबर पढ़ी, तो मैं उदास जरूर हुआ लेकिन मुझे कोई धक्का नहीं लगा, न मेरे दिल में उनके लिए कोई गहरा संताप ही जागा।'
अब न जयप्रकाश हैं, न शेख मुजीब, न इंदिरा जी। वह बांग्लादेश भी नहीं है, जिसे जयप्रकाश ने एक संभावना के रूप में देखा था। जो अपना इतिहास भूल जाते हैं वह वर्तमान को न समझ पाते हैं, न बना पाते हैं। हम सब इसी त्रासदी से गुजर रहे हैं।
सौजन्य - अमर उजाला।
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