सरकार ने यह तय किया है कि ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) के अनुपूरक के रूप में सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रमों (एमएसएमई) के लिए 'पहले से तैयार' निस्तारण प्रक्रिया की आवश्यकता है और उसने इसके लिए एक अध्यादेश भी पेश कर दिया है। कहा जा रहा है कि एमएसएमई क्षेत्र पर महामारी के भारी असर ने ऐसी उन्नत ऋणशोधन-पूर्व प्रक्रिया को अनिवार्य बना दिया है। इस पैकेज में उस समय-सीमा पर जोर दिया जाएगा जो आईबीसी के ढांचे का हिस्सा थी। इसके तहत प्रक्रिया को 120 दिन में पूरा करने की जरूरत पर बल दिया जाएगा। एक अनौपचारिक तत्त्व यह रहा है कि निस्तारण पेशेवर की औपचारिक नियुक्ति के पहले कारोबार के संभावित खरीदार से निस्तारण को लेकर चर्चा की जाए। दूसरे शब्दों में कहें तो कंपनी पर पूर्ववर्ती बोर्ड और प्रबंधन का नियंत्रण बना रहेगा जबकि निस्तारण की चर्चा चलती रहेगी। बस इसे निस्तारण पेशेवर अंजाम नहीं देगा। करीब एक वर्ष पहले सरकार ने आईबीसी के अधीन ऋणशोधन प्रक्रिया शुरू करने के लिए डिफॉल्ट की राशि एक लाख रुपये से बढ़ाकर एक करोड़ रुपये कर दी थी। यह कदम शायद एमएसएमई को बचाने के लिए उठाया गया था। उसके एक साल बाद यह निर्णय हुआ है। हालांकि उस वक्त भी सीमा बढ़ाने से उन एमएसएमई को नुकसान हुआ था जो परिचालन ऋणदाता थीं।
यह समझना आसान है कि इस बदलाव से सरकार की अपेक्षा क्या है और आखिर क्यों इसे जरूरी समझा गया। पहली बात, अभी भी आईबीसी के पास आने वाले मामलों में बड़ी तादाद छोटी कंपनियों की है। शायद यह सोचा गया होगा कि ऐसी कंपनियों के लिए पूर्व निर्धारित निस्तारण प्रक्रिया आईबीसी प्रक्रिया को सुसंगत बनाने में मदद करेगी और यह सुनिश्चित करेगी कि बड़े मामले समय पर निपटाए जा सकें। दूसरा, यह कहा जा रहा है कि एमएसएमई की कुछ विशिष्ट जरूरतें होती हैं। कई मामलों में उनका कोई एक ग्राहक हो सकता है। ऐसे में संकटग्रस्त संपत्ति के खरीदारों की कमी हो सकती है। यदि मौजूदा प्रवर्तक नाकाम होते हैं तो भारी पैमाने पर पूंजी का नुकसान हो सकता है। तीसरा, यदि बकाया राशि कम हो तो कर्जदाताओं को बदलाव के लिए मनाना आसान होगा। उस स्थिति में बैंकों समेत कर्जदाता शायद निस्तारण पेशेवर के अधीन या न्यायालय से अतिरिक्त सुरक्षा की मांग न करें। चौथा, अन्य क्षेत्रों में ऐसी व्यवस्था कारगर रही है। अंत में, न्यायालय के बाहर निस्तारण और छोटी कंपनियों दोनों के लिए व्यवस्था में अंतर है जिसे यह अध्यादेश दूर कर सकता है।
ये चिंताएं जायज हैं और सरकार के प्रयास समझे जा सकते हैं। इसके बावजूद आईबीसी के एक बुनियादी सिद्धांत का ध्यान नहीं रखा गया। आईबीसी में हमेशा यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है कि पूंजी नष्ट न होने पाए बल्कि कारोबार को जवाबदेह बनाने की बात भी इसमें शामिल है। इसमें संकटग्रस्त परिसंपत्तियों की नीलामी की जानी है और प्रयास यह है कि कारोबार को डुबाने वाले पुराने मालिक उसे दोबारा न खरीद पाएं। दीर्घावधि में देश के पूंजीवाद को बचाए रखने के लिए यह निष्पक्षता आवश्यक है। अध्यादेश के पक्ष में सरकार की दलील मजबूत है लेकिन आईबीसी के मूल सिद्धांतों को दरकिनार करने के लिए अपर्याप्त है। प्रवर्तकों को उनकी कंपनियों का नियंत्रण नहीं मिलना चाहिए। यदि यह सिद्धांत कमजोर पड़ा तो समय के साथ बड़ी कंपनियां भी इसकी चपेट में आएंगी। यदि आईबीसी की सक्षमता ने ही एमएसएमई का निस्तारण रोक रखा है तो हल क्षमता तथा निस्तारण पेशेवरों की तादाद बढ़ाने में निहित है, न कि आईबीसी की क्षमता कम करने में।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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