उनहत्तर साल बाद (जनसत्ता)

सरकारी तंत्र में गहरे पैठी लापरवाहियों से संबंधित ऐसी खबरें आती रहती हैं, जो इस बात पर बेहद निराश करती हैं कि इस जटिल व्यवस्था में साधारण लोगों को अपने अधिकार कैसे मिलें! लेकिन कई बार अनदेखी ऐसी हद से भी गुजर जाती है कि उस पर मुश्किल से विश्वास होता है। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में एक महिला पारूली देवी के फौजी पति की मौत उनहत्तर साल पहले एक हादसे में हो गई थी। तब से अभाव और तकलीफ के बीच जिंदगी काटती हुई वे बाद में अपने भाइयों के साथ रहने लगीं। सेना की नियमित नौकरी करते हुए हादसे का शिकार होने के बाद कायदे से होना यह चाहिए था कि संबंधित महकमा और कार्यालय उनके परिवार से संबंधित ब्योरा मंगा कर अपनी ओर से उनकी पत्नी को निर्धारित प्रक्रिया के तहत पेंशन या अन्य वाजिब सुविधाएं मुहैया कराता। लेकिन फौजी की मौत के बाद तकनीकी औपचारिकता पूरी करके शायद सभी ने अपनी जिम्मेदारी पूरी मान ली और निश्चिंत हो गए। यानी एक महिला करीब सात दशक तक अपने अधिकार से वंचित जिंदगी गुजारती रही, लेकिन उसका हक देने के लिए संबंधित महकमे के लोग खुद आगे नहीं आए, जिनका यह दायित्व था।

गनीमत यह रही कि पति की मौत के बाद इतना लंबा वक्त गुजर जाने के बावजूद महिला जीवित हैं और संयोग से आम बातचीत के क्रम में एक सामाजिक कार्यकर्ता को पता चला कि सेवा में रहते हुए फौजी पति की दुर्घटना में मृत्यु के बाद पारूली देवी भारत सरकार की पूर्व सैनिक पारिवारिक पेंशन योजना का लाभ पाने की हकदार हैं। फिर उन्होंने मदद की और अब जाकर पारूली देवी को पेंशन और बकाया राशि के करीब बीस लाख रुपए मिल सकेंगे। इतना तय है कि महिला के परिवार में इतनी जानकारी या जागरूकता नहीं रही होगी कि पति की मौत के बाद उनके क्या अधिकार हैं।

फिर कई बार हादसे या किसी अन्य कारण से अकाल मौत की स्थिति में परिवार के लोग सदमे में कुछ जरूरी बातों का ध्यान नहीं रख पाते हैं। लेकिन मानवीय पहलू या संवेदनाओं का लिहाज छोड़ भी दें तो यह किसकी ड्यूटी थी कि सेवाकाल में फौजी की मृत्यु के बाद उसके परिवार के आर्थिक अधिकार उन तक पहुंचाएं जाएं! आज पारूली देवी इक्यासी साल की हैं। अगर किन्हीं वजहों से उनकी मौत हो गई होती या उनके संपर्क में वे सामाजिक कार्यकर्ता नहीं आए होते तो क्या उन्हें उनका हक मिल पाया होता!

अमूमन सभी सरकारी महकमों में हर कामकाज से लेकर सेवानिवृत्ति के बाद तक की सारी औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए संगठित विभाग काम करते हैं। विडंबना यह है कि ऐसे मामले अक्सर सामने आते हैं जिसमें कोई व्यक्ति सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन या स्वअर्जित दूसरी आर्थिक सुविधाएं हासिल करने लिए दफ्तरों के चक्कर काटता रहता है।

कहने को अवकाशप्राप्ति के बाद कर्मचारियों के कामकाज को सुविधाजनक तरीके से निपटाने के लिए कई तरह के बदलाव लाने की भी बातें होती रहती हैं, लेकिन आज भी अक्सर आने वाली ऐसी खबरें बताती हैं कि सरकारी तंत्र की जटिलता या अनदेखी की वजह से लोगों को कैसे अपने ही अधिकारों को हासिल करने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है। पारूली देवी ने अपना हक मिलने की खबर मिलने के बाद कहा कि मुझे पैसे की जरूरत नहीं है, लेकिन सरकार ने मेरे पति को और मुझे पहचान दी, यह मेरे लिए बहुत संतोष की बात है। उनकी यह टिप्पणी समूचे तंत्र के सामने ऐसा सवाल है जिसे स्वीकार करते हुए यह सोचने की जरूरत है कि एक फौजी की पत्नी को यह कहने के लिए करीब सात दशक का इंतजार क्यों करना पड़ा!

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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