स्पेनिश फ्लू की राह पर कोरोना (हिन्दुस्तान)

राजीव दासगुप्ता, प्रोफेसर (कम्यूनिटी हेल्थ), जेएनयू 

देश भर में कोविड-19 के बढ़ते मामले चिंताजनक हैं। कम से कम छह राज्यों में संक्रमण की रफ्तार तेज है और कई अन्य सूबों में भी ऐसी ही आशंका जताई जाने लगी है। गुरुवार को जारी आंकड़ों के मुताबिक, पिछले 24 घंटों में देश में 72,330 नए मामले सामने आए, जो रोजाना के नए संक्रमण के हिसाब से 11 अक्तूबर, 2020 (उस दिन 74,383 नए मरीज मिले थे) के बाद से सर्वाधिक है। साफ है, हम अब कोरोना की दूसरी लहर से मुकाबिल हैं। संक्रमण में यह तेजी स्पेनिश फ्लू की याद दिला रही है, जिसकी गिनती आज भी सबसे घातक वैश्विक महामारियों में होती है। सन 1918 में जब पहले विश्व युद्ध का अंत हो रहा था, तब स्पेनिश फ्लू पश्चिम से पूरी दुनिया में फैला था। तकरीबन एक तिहाई वैश्विक आबादी की अकाल मौत इससे हुई थी। अप्रैल-मई के महीनों में यह महामारी तेजी से ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन और इटली में फैली थी। इसमें मृत्यु दर सामान्य मौसमी फ्लू की तरह ही थी, लेकिन अगस्त के महीनों से जब इसकी दूसरी लहर आई, तो वह कहीं ज्यादा घातक साबित हुई। दूसरे चरण में नौजवान भी इससे खूब प्रभावित हुए, और अगले दो महीने में मृत्यु दर आसमान पर पहुंच गई। भारत भी इन सबसे अछूता नहीं था। यहां की करीब छह फीसदी आबादी इसकी वजह से बेमौत मारी गई थी। यहां भी वैश्विक ट्रेंड के मुताबिक, 1918 की गरमियों में यह महामारी कम घातक थी, जबकि सर्दियों में यह ज्यादा मारक हो गई थी। करीब दो साल तक स्पेनिश फ्लू ने दुनिया को परेशान किया था, इसीलिए कोविड-19 के भी लंबा खिंचने की आशंका जताई जा रही है। कई दूसरे देशों में ऐसा दिख भी रहा है। 

दिक्कत यह है कि अपने यहां अब मानव संसाधन की कमी खलने लगी है। मसलन, पिछले साल सरकार ने जब कोरोना के खिलाफ जंग की शुरुआत की थी, तब स्वास्थ्य विभाग के साथ-साथ गैर-स्वास्थ्य कर्मचारी भी मोर्चे पर लगाए गए थे। अब इन कर्मियों की अपने-अपने विभाग में वापसी हो चुकी है, क्योंकि सभी सरकारी व सामाजिक क्षेत्र की सेवाएं फिर से बहाल हो गई हैं। स्वास्थ्य कर्मचारी भी सर्जरी जैसी गैर-कोविड सेवाओं पर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं, क्योंकि उनका ‘बैकलॉग’ काफी बढ़ चुका है। इसके कारण ‘टेस्ट, ट्रैक ऐंड ट्रीट’ (जांच, संक्रमितों की खोज और इलाज) जैसी कोरोना की बुनियादी सेवाओं के लिए स्वास्थ्यकर्मियों की कमी होने लगी है। समुदाय के स्तर पर भी बचाव संबंधी उपायों के प्रति उदासीनता साफ-साफ दिखने लगी है। ऐसा मालूम पड़ता है कि लोग अब इस महामारी से लड़ते-लड़ते थक से गए हैं। उनकी निश्चिंतता बताती है कि सरकार को कुछ नए प्रयास करने होंगे, ताकि जनता इस महामारी के खतरे की गंभीरता को समझ सके। अब शादी और अन्य सामाजिक उत्सव ‘सुपर स्प्रेडर इवेंट’ (कहीं तेजी से संक्रमण फैलाने वाले आयोजन) बनने लगे हैं। इस नई लहर में युवा व किशोर भी तेजी से बीमार हो रहे हैं। शिक्षण संस्थानों के खुलने और नौजवानों में सामाजिक संपर्क बढ़ने के कारण संभवत: ऐसा हो रहा है। चिंता की बात यह भी है कि ग्रामीण इलाकों में यह वायरस पसरने लगा है, जबकि वहां पिछले चरण में कमोबेश नहीं के बराबर संक्रमण थे। इससे स्वाभाविक तौर पर छोटे जिलों या कस्बों की स्वास्थ्य सेवाओं पर अप्रत्याशित बोझ बढ़ गया है, जो पहले से ही बेहाल हैं। इन सबका अर्थ यह है कि पिछले एक साल में सरकार ने जितना ध्यान इलाज और अनुसंधान संबंधी कार्यों पर दिया, उतना सामाजिक व्यवहार संबंधी एहतियातों पर नहीं दिया। अब इस असंतुलन को पहचानने और दुरुस्त करने का वक्त है। तभी जोखिम से जुड़ी संचार-योजना व समाज को जोड़कर महामारी से निपटने की रणनीतियां बनाई व लागू की जा सकती हैं। इनसे टीकाकरण के प्रति लोगों की हिचकिचाहट कम हो सकती है और टीके की मांग भी बढ़ सकती है। वैक्सीन को लेकर लोगों की कायम दुविधा कोरोना के खिलाफ हमारी जंग को कमजोर कर देगी।

सवाल यह है कि इस नई लहर से पार पाने के लिए क्या हमें फिर से लॉकडाउन का सहारा लेना होगा? देश के कुछ हिस्सों में यह रणनीति अपनाई भी गई है। मगर ऐसी किसी योजना को लागू करने से पहले हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि आखिर किन परिस्थितियों में लॉकडाउन का सहारा लिया जा सकता है? कई शहरों से ऐसी खबरें आ रही हैं कि वहां के अस्पताल कोरोना मरीजों से भरने लगे हैं, मगर अभी तक ऐसी कोई सूचना नहीं है कि अस्पताल मरीजों के अत्यधिक बोझ से हांफने लगे हैं। इसीलिए अस्पतालों की दशा देखकर लॉकडाउन पर फैसला किया जाना चाहिए। सरकारों को यह समझना होगा कि अभी लोगों में बचाव से जुड़ी व्यवहार संबंधी जागरूकता फैलाने की जरूरत है, न कि ‘दंडात्मक उपाय’ के रूप में लॉकडाउन लगाने की। अभी इससे बचने की आवश्यकता है, लेकिन छोटे शहरों में इसकी जरूरत पड़ सकती है, क्योंकि वहां स्वास्थ्य सेवाएं बहुत जल्द दम तोड़ने लगती हैं। हां, प्रसार को थामने के लिए छोटे-छोटे ‘कंटेन्मेंट जोन’ जरूर बनाए जाने चाहिए, ताकि संक्रमण की शृंखला तोड़ी जा सके। उम्मीद टीकाकरण से भी की जा सकती है। हालांकि, सवाल यह है कि कितनी तेजी से यह संभव हो सकेगा? भारत में 16 जनवरी को ही टीकाकरण अभियान की शुरुआत हुई थी, और बीते 75 दिनों में टीके की 6.43 खुराक लोगों को दी जा चुकी है। अब तक खास-खास वर्गों को ही टीका दिया गया है, लेकिन जिन 30 करोड़ लोगों को टीके लगाने का लक्ष्य रखा गया था, उनमें से महज 20 फीसदी का ही अब तक टीकाकरण हो सका है। शेष 80 फीसदी लक्षित आबादी को 120 दिनों में टीके लगाने की जरूरत होगी, जिसके लिए हमें भगीरथ प्रयास करने होंगे। और हमारी यह कोशिश तभी सफल हो सकती है, जब समाज टीकाकरण के प्रति उत्साहित हो और इसकी मांग बढ़े। जाहिर है, यह सरकार और  जनता के आपसी विश्वास व उपयुक्त समन्वय-संवाद से ही संभव हो सकेगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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