हरिवंश चतुर्वेदी, डायरेक्टर, बिमटेक
कोरोना की मार से कोई भी क्षेत्र बच नहीं पाएगा। भारत की उच्च शिक्षा इससे अभी तक उबर नहीं पाई है। अब सामने फिर संकट खड़ा हो गया है। सीबीएसई द्वारा 12वीं की परीक्षाओं को स्थगित करने और 10वीं की परीक्षाओं को निरस्त करने के फैसले के बाद भारत की उच्च शिक्षा और डिग्री कक्षाओं में दाखिले की व्यवस्था पर अनिश्चितता और संकट के बादल छाते दिखते हैं। यह फैसला इतना महत्वपूर्ण था कि प्रधानमंत्री मोदी को भी इस पर होने वाले विमर्श में शामिल होना पड़ा। सीबीएसई बोर्ड की परीक्षाओं में कुल मिलाकर, 35 लाख विद्यार्थी बैठते हैं। देश के राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों की बोर्ड परीक्षाओं में करोड़ों छात्र बैठते हैं। इन सभी माध्यमिक शिक्षा बोर्डों को अब फैसला लेना होगा कि वे परीक्षाएं लेंगे या नहीं और अगर लेंगे, तो कब लेंगे। यह फैसला लेना आसान नहीं होगा। इसे लेने में एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई जैसी स्थिति है। कोरोना की खतरनाक दूसरी लहर ठीक ऐसे वक्त पर आई है, जब 12वीं पास करके करोड़ों विद्यार्थियों को अपने भविष्य का रास्ता चुनना है। देश के तमाम राज्यों के माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भी सीबीएसई के फैसले को एक मॉडल मानकर या तो 12वीं की परीक्षाएं स्थगित करेंगे या फिर स्थिति अनुकूल होने की दशा में परीक्षाएं संचालित करने की तिथि घोषित करेंगे। क्या गारंटी है कि 1 जून तक कोरोना की खतरनाक दूसरी लहर थम जाएगी और जून-जुलाई में परीक्षाएं हो पाएंगी? अभी तक हम यह नहीं सोच पाए हैं कि 16 वर्ष और उससे अधिक आयु के युवाओं को वैक्सीन देनी चाहिए या नहीं, जबकि अमेरिका एवं यूरोपीय देशों में स्कूली व विश्वविद्यालय छात्रों को वैक्सीन लगाने पर गंभीर विचार किया जा रहा है। 12वीं की परीक्षाएं जून-जुलाई में आयोजित करने पर यह खतरा सामने आएगा कि कहीं लाखों युवा विद्यार्थी परीक्षा केंद्रों पर कोविड संक्रमण के शिकार न हो जाएं। क्या हम सभी विद्यार्थियों को वैक्सीन नहीं लगा सकते?
अगले दो-तीन महीने में इंजीनिर्यंरग, मेडिकल और लॉ की अखिल भारतीय प्रतियोगी परीक्षाएं भी होनी हैं। देखते हैं, कोरोना की दूसरी लहर इनके आयोजन पर क्या असर डालती है? अगर 12वीं की परीक्षाएं आयोजित नहीं हो पाएंगी, तो पिछले दो वर्षों के आंतरिक मूल्यांकन का सहारा लेकर रिजल्ट बनाए जा सकते हैं। पिछले एक साल से सारी पढ़ाई ऑनलाइन आधार पर हुई। इस पढ़ाई में डिजिटल असमानता का गहरा असर दिखाई दिया था। 12वीं के विद्यार्थियों का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा था, जिसके पास घर में कंप्यूटर, लैपटॉप और स्मार्टफोन नहीं थे। जो अन्य बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित थे। पिछले एक साल के आंतरिक मूल्यांकन को आधार बनाने से निम्न मध्यवर्ग और गरीब परिवारों के बच्चे निस्संदेह दाखिले की दौड़ में पीछे रह जाएंगे। बिल गेट्स का कहना है कि यह महामारी वर्ष 2022 के अंत तक हमारा पीछा नहीं छोडे़गी। कोविड इस सदी की आखिरी महामारी नहीं है। क्या हमें अपनी शिक्षा-व्यवस्था में ऐसे बदलाव नहीं करने चाहिए, जो उसे आपदाओं और महामारियों का मुकाबला करने के लिए सक्षम बना सकें? क्या हमारे स्कूलों, कॉलेजों व यूनिवर्सिटियों के शिक्षकों, कर्मचारियों एवं विद्यार्थियों को आपदा-प्रबंधन के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाना चाहिए? क्या शिक्षा परिसरों का ढांचा इस तरह नहीं बनाना चाहिए कि महामारी व प्राकृतिक आपदा की स्थिति में भी पढ़ाई-लिखाई में कोई बाधा न पैदा हो? क्या कॉलेज परिसरों में सामान्य बीमारियों से बचाव की स्वास्थ्य सेवाएं हर समय उपलब्ध नहीं होनी चाहिए? दर्जनों आईआईटी, एनआईटी व आईआईएम संस्थानों में कोविड के बढ़ते प्रकोप से तो यही जाहिर होता है कि हमारे परिसरों में आपदा प्रबंधन न के बराबर है। कोविड-19 की महामारी ने हमारी स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा की एक बड़ी कमजोरी की ओर इशारा किया है, वह है वार्षिक परीक्षाओं पर अत्यधिक निर्भरता। 21वीं सदी के शिक्षा शास्त्र के अनुसार, विद्यार्थियों के मूल्यांकन की यह प्रणाली अपनी अर्थवत्ता खो चुकी है। आधुनिक शिक्षा शास्त्रियों के अनुसार, वर्ष के अंत में खास अवधि के दौरान लाखों विद्यार्थियों की परीक्षा लेना इनके मूल्यांकन का सही तरीका नहीं है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में जिन परीक्षा सुधारों की सिफारिश की गई है, उनमें वर्ष भर चलने वाले मूल्यांकन पर जोर दिया गया है। इसमें कक्षा-कार्य, गृहकार्य, मासिक टेस्ट, प्रोजेक्ट वर्क आदि शामिल हैं। बोर्ड परीक्षाएं युवा विद्यार्थियों के मूल्यांकन का श्रेष्ठ तरीका नहीं हैं। साल भर की पढ़ाई-लिखाई का तीन घंटे की परीक्षा द्वारा किया गया मूल्यांकन कई जोखिमों से भरा है। बोर्ड की परीक्षाएं हमारे किशोर विद्यार्थियों पर मशीनी ंढंग से रट्टा लगाने, ट्यूशन पढ़ने और किसी भी तरह ज्यादा से ज्यादा माक्र्स लाने का मनोविज्ञानिक दबाव पैदा करती हैं। इसने स्कूलों की पढ़ाई की जगह एक अति-संगठित ट्यूशन उद्योग को जन्म दिया है, जो अभिभावकों पर लगातार बोझ बनता जा रहा है। विश्लेषण क्षमता, रचनात्मकता, नेतृत्वशीलता, नवाचार जैसे गुणों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। युवाओं के मानसिक व शारीरिक विकास केलिए यह घातक है। परीक्षाफल निकलने पर हर साल होने वाली आत्महत्याएं इसका प्रमाण हैं। बोर्ड परीक्षाओं के मौजूदा स्वरूप को बुनियादी ढंग से बदलने का वक्त आ गया है। हमें साल भर चलने वाले सतत मूल्यांकन को अपनाना होगा, जिसमें विद्यार्थियों की प्रतिभा और परिश्रम का बहुआयामी मूल्यांकन हो सके। भविष्य में भी आपदाओं व महामारियों के कारण शिक्षा परिसरों को बंद करना पड़ सकता है। कई कारणों से ऑनलाइन शिक्षण और परीक्षाएं करनी पड़ेंगी। हमें हर शिक्षक, विद्यार्थी को लैपटॉप, पीसी या टैबलेट से लैस करना पडे़गा। हर घर में इंटरनेट की व्यवस्था होनी चाहिए। कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में प्रवेश की मौजूदा प्रक्रिया गरीबों व धनवानों के बच्चों में भेद नहीं करती। क्या हमें साधनहीन, पिछडे़ वर्गों और क्षेत्रों से आने वाले विद्यार्थियों को प्रवेश में अलग से प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए? जेएनयू व कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालयों में इस प्रगतिशील प्रवेश व्यवस्था के अच्छे परिणाम निकले हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि अभी तक अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा सभी को देना हमारे देश की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है। कोरोना की मार से जूझते हुए भी दुनिया के कई देश अपने विद्यार्थियों को डिजिटल साधन देने के साथ-साथ एक सुरक्षित शिक्षा परिसर दे पाए हैं। इन देशों में पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्थाएं फिर से सामान्य हो चुकी हैं। हमें भी उन देशों से कुछ सीखना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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