भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे एनसीपी नेता अनिल देशमुख ने आखिरकार सोमवार को महाराष्ट्र के गृहमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। जैसा कि ऐसे मामलों में अक्सर होता है, पद पर बने रहने का नैतिक अधिकार खो देने का अहसास उन्हें तब हुआ, जब वसूली के आरोपों की सीबीआई जांच कराने का हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद उनके सामने कोई और रास्ता नहीं रह गया। यों तो पूर्व मुंबई पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह के सार्वजनिक तौर पर आरोप लगाने के तुरंत बाद एनसीपी के सर्वोच्च नेता शरद पवार ने भी इसे गंभीर माना था, लेकिन उन्होंने इस्तीफा मांगने या न मांगने का सवाल मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के विवेक पर छोड़ दिया था। तब एनसीपी के अन्य नेता अड़ गए कि देशमुख किसी भी सूरत में इस्तीफा नहीं देंगे। बाद में पवार ने भी देशमुख के कोरोना संक्रमण, हॉस्पिटल में इलाज और आइसोलेशन जैसे तथ्यों के सहारे इ्स्तीफे की मांग खारिज कर दी। जाहिर है, ऐसे में शिवसेना और कांग्रेस के इस्तीफे पर जोर देने का मतलब था एमवीए सरकार का गिरना। सो किसी ने जोर नहीं दिया, देशमुख पद पर बने रहे।
सोमवार को हाईकोर्ट के फैसले ने आखिर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया। उनकी जगह दिलीप वलसे पाटिल गृहमंत्री बना दिए गए। इससे कम से कम ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि मौजूदा सरकार पर मंडरा रहा संकट फिलहाल टल गया है। लेकिन आरोप आज भी बरकरार हैं। देखना होगा कि सीबीआई जांच से किस तरह के तथ्य बाहर आते हैं और उनका सरकार की स्थिरता पर क्या असर पड़ता है। वैसे उद्धव सरकार से यह पहला इस्तीफा नहीं है। इससे पहले एक टिकटॉक स्टार पूजा चव्हाण की आत्महत्या के बाद विवादों में आए शिवसेना के संजय राठौड़ को वनमंत्री पद छोड़ना पड़ा था। इन विवादों ने मुख्य विपक्षी दल बीजेपी के हमलावर तेवर को धार जरूर दी है, लेकिन राजनीतिक तौर पर अपना संतुलन बनाए रखने की वजह से सरकार की स्थिरता पर तत्काल कोई खतरा नहीं दिख रहा है। लेकिन जब से यह सरकार बनी है, तभी से इसे असहज राजनीतिक गठजोड़ बताया जा रहा है।
सच भी यही है कि पारंपरिक तौर पर कांग्रेस और एनसीपी भले मिलकर सरकार बनाती रही हों, शिवसेना हमेशा इनके विरोधी खेमे में रही है। उसका गठबंधन बीजेपी से रहता आया था। हिंदुत्व दोनों की राजनीति का समान आधार रहा है। जब इस समान आधार के बावजूद दोनों का साथ रहना संभव नहीं हुआ तो महाराष्ट्र में नया राजनीतिक प्रयोग हुआ और उद्धव सरकार बनी। इस प्रयोग की सफलता-असफलता अन्य राज्यों में भी संभावित राजनीतिक गोलबंदी को प्रभावित करेगी, लेकिन अभी तो सबसे बड़ा सवाल गवर्नेंस का है। राजनीतिक प्रयोग की नाकामी या कामयाबी तो तब देखी जाएगी, जब सरकार नियम-कानून और शासन-प्रशासन की न्यूनतम मर्यादा बनाए रख पाएगी। अभी तो इसी पर सवालिया निशान लगा हुआ है।
सौजन्य - नवभारत टाइम्स।
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