अवधेश कुमार
वर्तमान विधानसभा चुनावों के मध्य चुनाव आयोग की भूमिका फिर बहस के केंद्र में है। राजनीतिक-वैचारिक विभाजन आज इतना तीखा हो गया है कि किसी भी विषय पर निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण तरीके से एक राय कायम करना संभव नहीं। मूल प्रश्न तो यही है कि चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ जो कदम उठाया, वह संविधान द्वारा प्रदत उसके दायित्वों तथा चुनाव संबंधी नियमों के अनुकूल है या नहीं? इसके विरोध में ममता के धरने को किस तरह देखा जाए? चुनाव आयोग ने चुनावी आचार संहिता के उल्लंघन का दोषी मानते हुए ममता बनर्जी को 24 घंटे के लिए प्रतिबंधित किया। अल्पसंख्यकों से वोट बंटने न देने की अपील और महिलाओं से सुरक्षाबलों का घेराव करने के आह्वान को लेकर आयोग ने दो नोटिस जारी किए थे।
ममता के जवाब से असंतुष्ट आयोग ने उनके चुनाव प्रचार को प्रतिबंधित किया और उन्हें आगे से इस तरह का बयान न देने की सख्त हिदायत भी दी। आयोग ने पाया कि उन्होंने चुनाव आचार संहिता के साथ ही जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 123 (3) और भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 186, 189 और 505 का भी उल्लंघन किया है। अल्पसंख्यक शब्द का जो भी अर्थ बताइए, लेकिन यहां का निहितार्थ ममता सहित सभी के सामने बिल्कुल स्पष्ट था। इसी तरह केंद्रीय सशस्त्र बलों के घेराव का अर्थ उनके काम में बाधा डालना था। चुनाव आयोग ने भड़काऊ भाषण देने पर भाजपा नेता राहुल सिन्हा के प्रचार करने पर 48 घंटे का प्रतिबंध लगाया है। इसके अलावा उसने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष को नोटिस थमाया है और नंदीग्राम में ममता बनर्जी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे शुभेंदु अधिकारी को भी चेतावनी दी है।
चुनावी कानून एवं भारतीय दंड संहिता के अनुसार, आपराधिक मामलों में मुकदमा भी दर्ज किया जा सकता था। चुनाव आयोग अपनी कानूनी सीमाओं को समझता है और इसीलिए सबसे हल्का दंड दिया है। पिछले अनेक वर्षों से चुनाव आयोग यही करता है। नेताओं को चेतावनी देता है, आवश्यक होने पर नोटिस जारी करता है और कई बार जवाब से असंतुष्ट होने पर या बिना नोटिस के भी चुनाव प्रचार पर कुछ दिन या घंटों के लिए रोक लगा देता है। कई बार आयोग ने नेताओं के खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज कराई, किंतु उनमें से ज्यादातर मामले आगे नहीं बढ़े। वास्तव में चुनाव आयोग राजनीतिक प्रतिष्ठान या नेताओं से मुकदमेबाजी में उलझने से बचता है और सामान्यतः यही यथेष्ट है। हमारी व्यवस्था में शासन के सभी अंगों, विशेषकर सांविधानिक संस्थाओं के बीच संतुलन बनाने के साथ संबंधों की मर्यादा रेखाएं बनाई गई हैं। सबको इसका पालन करना चाहिए।
राजनीतिक दलों की भूमिका इसमें सर्वोपरि है। अंततः नेतृत्व उन्हीं को करना है। दुर्भाग्य से अनेक दल और नेता अपने इस दायित्व का पालन नहीं कर पाते। वर्तमान चुनाव प्रक्रिया के बीच ममता बनर्जी प्रतिबंधित होने वाली अकेली नेता नहीं हैं। तमिलनाडु में द्रमुक के स्टार प्रचारक पूर्व केंद्रीय मंत्री ए राजा को 48 घंटे के लिए प्रतिबंधित किया गया। उन्होंने या द्रमुक ने ममता या तृणमूल की तरह विरोधी व्यवहार नहीं किया। भाजपा की आप चाहे जितनी आलोचना कीजिए, लेकिन चुनाव आयोग के ऐसे फैसलों पर उसकी विरोधी प्रतिक्रिया सामने नहीं आती। असम में हेमंत विस्व सरमा भी प्रतिबंधित हुए हैं। उससे पहले भी उसके नेताओं पर प्रतिबंध लगे।
इसके विपरीत तृणमूल के सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने इसे लोकतंत्र का काला दिन घोषित कर दिया। ममता बनर्जी लगातार चुनाव आयोग को मोदी और शाह के इशारे पर काम करने वाली संस्था बता रही हैं, तो उनकी पार्टी के दूसरे नेता कैसे पीछे रहेंगे। अगर सांविधानिक संस्थाओं की छवि हमने कलंकित कर दी, तो फिर देश में बचेगा क्या? हर राजनीतिक दल एवं नेता को अपने लिए लोकतंत्र के प्रहरी की निर्धारित भूमिका का ध्यान रखते हुए चुनाव आयोग जैसी संस्था के सम्मान, गरिमा और छवि को बचाए रखने की पूरी कोशिश करनी चाहिए।
सौजन्य - अमर उजाला।
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