जीएम फसलों पर लगी रोक जरूरी, जानिए क्यों (अमर उजाला)

के. सी. त्यागी  

संसद सत्र की लगभग समाप्ति पर पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के एक लिखित जवाब में जीएम (जेनेटिक मॉडिफाइड) फसलों के जमीनी परीक्षण को लेकर दिए गए जवाब से इसके समर्थक एवं विरोधियों में पुनः वाक् युद्ध प्रारंभ हो गया है। मंत्रालय ने जमीनी परीक्षण की अनुमति से पहले राज्यों की सहमति को जरूरी माना है। इससे पूर्व परीक्षण का फैसला करने का अधिकार जीईएसी (जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी) को प्राप्त था। उसके बाद राज्यों की सहमति से वहां परीक्षण किया जा सकता है, पर अब राज्यों की सहमति से पहले जीईएसी कोई सिफारिश नहीं करेगी।


दरअसल, काफी समय से नीति आयोग जीएम फसलों के इस्तेमाल को लेकर अड़ा हुआ है। उसके कार्यबल की रपट में दलहन और तिलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए जीएम फसलों के इस्तेमाल, बिजली पर सब्सिडी को तर्कसंगत बनाने और किसानों को उपज के भुगतान के लिए प्राइस डिफिशिएंसी पेमेंट प्रणाली अपनाने की सिफारिश भी की जा चुकी है। जीएम फसलों के समर्थकों का एकमात्र तर्क यह है कि इसके इस्तेमाल से फसलों का उत्पादन बढ़ेगा। जबकि दिल्ली के बॉर्डर पर लंबे अरसे से धरने पर बैठे किसान संगठनों के बड़े वर्ग द्वारा समय-समय पर जमीनी परीक्षण का विरोध किया जाता रहा है। अखिल भारतीय किसान सभा और भारतीय किसान यूनियन इसके मुख्य विरोधी रहे हैं। स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय किसान संघ भी समय-समय पर अपनी नाराजगी एवं विरोध का प्रदर्शन करता रहा है। यह सच है कि इससे कम अवधि के लिए फसलों के उत्पादन में वृद्धि होती है, पर इसके दूरगामी परिणाम नुकसानदेह होते हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार जीएम प्रक्रिया के अंतर्गत पौधों में कीटनाशक के गुण सम्मिलित हो जाते हैं, जिससे फसलों की गुणवत्ता का प्रभावित होना लाजमी है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि यह प्राकृतिक फसलों को भी बड़े पैमाने पर संक्रमित करता है। 



प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन जीएम फसलों के प्रयोग से पहले भूमि परीक्षण अनिवार्य करने की सिफारिश कर चुके हैं। अमेरिका में मात्र एक फीसदी भाग में मक्के की खेती की गई थी। इसने 50 फीसदी गैर जीएम खेती को संक्रमित कर दिया। उत्पादन बढ़ाने की होड़ में चीन ने भी अपनी जमीन पर जीएम चावल एवं मक्के की खेती की। महज पांच वर्ष के अंदर ही वहां के किसानों को नुकसान उठाना पड़ा। वर्ष 2014 के बाद से वहां जीएम खेती को बंद कर दिया गया है। भारत में बीटी कॉटन की खेती का अनुभव आंख खोलने वाला है। पंजाब के कपास किसानों को बीटी कॉटन बीज के कारण काफी नुकसान उठाना पड़ा है। निश्चित रूप से शुरू में कपास उत्पादन में वृद्धि हुई, पर बाद में अहितकारी परिणाम सामने आए और सर्वाधिक आत्महत्याएं कपास किसानों द्वारा ही की गईं। संसद की स्थायी समिति ने अपनी 301वीं रिपोर्ट में काफी टिप्पणियां इसके बारे में की हैं। 'कल्टीवेशन ऑफ जेनेरिक मॉडिफाइड फूड क्रॉप : संभावना और प्रभाव' नामक रिपोर्ट में लिखा है कि बीटी कपास की खेती करने से कपास उत्पादक किसानों की माली हालत सुधारने के बजाय बिगड़ने लगी। 


पिछले कई वर्षों में अकेले महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में दो दर्जन से अधिक किसानों की मौत हो चुकी है। आश्चर्यजनक है कि किसानों को लामबंद करने वाला महाराष्ट्र शेतकरी संगठन जीएम फसलों का गुणगान कर रहा है। इसके अध्यक्ष अनिल धनवत आजकल किसानों को जीएम फसलों का महत्व समझा रहे हैं। वह किसान आंदोलन पर बनी सुप्रीम कोर्ट की समिति के सदस्य हैं। यह दिलचस्प है कि सर्वाधिक किसान आत्महत्याओं की खबरें विदर्भ और मराठवाड़ा से ही आती हैं। मुख्यमंत्री रहते हुए देवेंद्र फडणवीस भी इन प्रयोगों पर बैन लगा चुके थे। कंपनियों ने उत्पादन और गुणवत्ता के नाम पर अनुवांशिक संशोधित फसलों के उत्पादन का खेल शुरू किया है। इसके उत्पादन के लिए जिन कीटनाशक दवाओं का प्रयोग हो रहा है, वे मानव जाति के विनाश की आहट है। केंद्र सरकार द्वारा किसानों के व्यापक हित में टाले गए इस फैसले की सर्वत्र प्रशंसा हो रही है।  

-लेखक ज.द.(यू) के प्रधान महासचिव हैं।

सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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