सुरक्षा मानकों पर ध्यान दें अस्पताल (प्रभात खबर)

By कृष्ण प्रताप सिंह 


महामारी के भयावह कहर के बीच देश के कुछ अस्पतालों में ऑक्सीजन टैंक में रिसाव, आग लगने या ऐसे अन्य कारणों से मरीजों की मौत की खबरें बेहद चिंताजनक हैं. कोई भी तर्क देकर ऐसे हादसों का बचाव नहीं किया जा सकता है. ऐसे हादसे यकीनन हृदय विदारक हैं, जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है. फिर भी विडंबना देखिए कि जहां एक ओर देश के विभिन्न राज्यों में अस्पतालों में मरीज आक्सीजन की कमी से जानें गंवा रहे हैं, वहीं अस्पतालों में हुए हादसों कोई लेकर कोई शर्मिंदगी किसी भी स्तर पर महसूस नहीं की जा रही है,

बल्कि इसके उलट नाना प्रकार के बहानों से उनकी गंभीरता को कम करने की कोशिशें की जा रही हैं. कारणों की पड़ताल करें, तो भले ही स्वास्थ्य व्यवस्था से किसी की सहानुभूति हो या नहीं, निजी क्षेत्र के प्रति दल और विचारधारा का भेद किये बिना समूचा सत्ता प्रतिष्ठान कितनी सदाशयता रखता है, उसे इस संदर्भ से समझा जा सकता है कि नासिक प्रशासन ने ऑक्सीजन टैंक के रखरखाव में आपराधिक लापरवाही के लिए संबंधित निजी कंपनी पर कोई कार्रवाई नहीं की, बल्कि समय रहते टैंक के वाल्व को बंद करने के लिए उक्त कंपनी के कर्मचारियों की प्रशंसा भी की.

ऐसे में कौन कह सकता है कि इस सरकारी संवेदनहीनता का अंत कहां होगा और तब तक हम उसकी कितनी कीमत दे चुके होंगे? इसे यूं समझ सकते हैं कि पालघर का विरार स्थित अस्पताल भी, जिसमें अग्निकांड में तेरह मरीजों की जान गयी है, निजी ही है. पिछले महीने मुंबई के भांडुप में जिस कोरोना अस्पताल में आग लगने से दस मरीजों की जान चली गयी थी, वह भी निजी ही है. कुछ दिनों बाद ही उसके संचालन की अनुमति की अवधि समाप्त होनेवाली थी.


इस नाते वहां अव्यवस्था का ऐसा आलम था कि अस्पताल की इमारत में ही चल रहे मॉल में लगी आग को लेकर तब तक गंभीरता नहीं बरती गयी, जब तक कि वह अस्पताल तक नहीं आ पहुंची. तब भी अफरातफरी के बीच जानें बचाने के लिए कुछ नहीं किया जा सका क्योंकि पहले से उचित तैयारी ही नहीं थी. तब अस्पताल प्रशासन ही नहीं, दमकल और स्थानीय प्रशासन भी लापरवाह साबित हुए थे. उस हादसे से सबक लेकर सतर्कता बढ़ा दी गयी होती और उपयुक्त प्रबंध किये गये होते, तो बहुत संभव है कि दोनों ताजा हादसे होते ही नहीं.


लेकिन अब भी नासिक के जिलाधिकारी और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री मुआवजे की घोषणा करते हुए जैसे आप्तवाक्य कह रहे हैं, उनसे लगता है कि वे अपनी इतनी ही जिम्मेदारी मानते हैं कि फौरन मुआवजे वगैरह का एलान कर दें. जहां तक मुआवजे और जांच का संबंध है, हर हादसे के बाद उनकी बाबत सरकारें ऐसे ऐलान करती ही हैं. जरूरी यह था कि मुख्यमंत्री समझते कि ऐसे मामलों में बड़े से बड़ा मुआवजा भी वास्तविक क्षतिपूर्ति नहीं होता.


तब तो और भी नहीं, जब अस्पतालों की लापरवाही ऐसे मरीजों को मौत की नींद सुला दे रही हो, जो अपने प्राण संकट में पाकर उसे बचाने के लिए उसकी शरण में आये हों. बेहतर होता कि मुख्यमंत्री माफी मांगते, लेकिन वे कह रहे हैं कि इन हादसों को लेकर राजनीति नहीं होनी चाहिए, मानो राजनीति इतना गर्हित कर्म हो कि उसे लोगों के जीवन-मरण के प्रश्नों से दूर ही रखा जाना श्रेयस्कर हो.


दरअसल, इन दिनों केंद्र से लेकर प्रदेशों तक में जो भी सरकारें हैं, वे खुद तो अपने सारे फैसलों में भरपूर राजनीति करती रहती हैं, लेकिन जब भी किसी मामले में उनसे तल्ख सवाल पूछे जाने लगते हैं, वे राजनीति न किये जाने का राग अलापने लगती हैं. अगर राजनीति न करने की उद्धव ठाकरे की बात मान ली जाए, तो भी क्या राजनीति न करने के नाम पर ऐसे सवाल पूछने से बचा जाना चाहिए कि क्यों उनके राज्य के अस्पतालों में भी जानलेवा हादसे कोई नयी बात नहीं रह गये हैं?


क्या उन्हें ऐसा कहकर इस सवाल के जवाब से कन्नी काटने की इजाजत दी जा सकती है कि इस तरह के हादसे अकेले उन्हीं के राज्य में नहीं, गुजरात और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी हो रहे हैं? जहां भी हो रहे हैं, वहां की सरकारों को इस सवाल के सामने क्यों नहीं खड़ा किया जाना चाहिए कि उनके अस्पतालों में मरीजों की सुरक्षा के मानकों को तवज्जो न देकर इतनी लापरवाही क्यों बरती जाती है?


आक्सीजन टैंक में रिसाव का तो खैर यह अपनी तरह का पहला ही मामला है, लेकिन क्यों अस्पतालों में अग्निकांडों में मरीजों की जानें जाना आम होता जा रहा है? अगर इसलिए कि इन अस्पतालों में इलाज के लिए जाने व भर्ती होनेवालों में ज्यादातर आम जन होते हैं क्योंकि निजी क्षेत्र की कृपा से अभिजनों को भारी खर्चे पर सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों में इलाज कराने की सहूलियत उपलब्ध है,


तब तो यह सवाल और गंभीर हो जाता है और ऐसे हादसों के पीछे की मानवीय चूकों को भी अमानवीय माने जाने की जरूरत जताता है. इस अर्थ में और कि बड़े अस्पतालों में ऐसे हादसों से बचाव की जिम्मेदारी में उसके प्रशासन के साथ स्थानीय प्रशासन का भी साझा होता है. वे मिलकर भी अस्पतालों को हादसों के घरों में तब्दील होने से नहीं रोक पा रहे हैं, तो उन्हें उनकी शर्म को साझा ही करना चाहिए.

सौजन्य - प्रभात खबर।

Share on Google Plus

About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments:

Post a Comment