दिग्गजों से आदर्श की उम्मीद (हिन्दुस्तान)

संघमित्रा शील आचार्य, प्रोफेसर, जेएनयू 

मानव जाति के अब तक के इतिहास में शायद ही इंसानों पर इस कदर चौतरफा वार हुआ होगा, जैसा अभी कोरोना महामारी के समय हो रहा है। मसला स्वास्थ्य (शारीरिक और मानसिक, दोनों) का हो या फिर रोजगार, शिक्षा, आवागमन अथवा पारस्परिक संबंधों का, लोग परेशान हैं। वायरस, उसके प्रसार, संक्रमण-दर और मृत्यु की आशंका आदि को लेकर प्रचारित-प्रसारित होने वाली तमाम सूचनाएं तेजी से बदल रही हैं, और उतनी ही तीव्रता से नामचीन हस्तियों (राजनेता, उद्योगपति, फिल्मी कलाकार, डॉक्टर आदि) का अपनी ही ‘सलाहों’ पर खरे न उतरना भी हमें हैरत में डाल रहा है। पल-पल बदलती जानकारियों के कारण हमारे छोटे-बडे़ लक्ष्य प्रभावित हो रहे हैं। मसलन, छात्र-छात्राओं को मार्च, 2020 में जब कॉलेज कैंपस खाली करने के लिए कहा गया था, तब उन्होंने यह नहीं सोचा होगा कि अपने शिक्षण संस्थान से वे इतने समय तक (करीब एक साल) दूर रहेंगे। और अब तो, फिर से अलग-अलग रूप में लॉकडाउन लागू किए जा रहे हैं, जिनसे एक बार फिर अनिश्चितता का माहौल बनता जा रहा है, जबकि शिक्षण संस्थान पर्याप्त तैयारी के बिना विद्यार्थियों को ऑनलाइन शिक्षा देने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं।

दिलचस्प बात यह है कि खेल जगत, उद्योग, राजनीति, फिल्म जैसे तमाम क्षेत्रों की कमोबेश सभी हस्तियों ने कोविड-19 से बचने के लिए उचित व्यवहार अपनाने की जरूरत को बार-बार दोहराया, लेकिन उनकी ऐसी कई तस्वीरें और वीडियो भी लोगों की नजरों में आए, जिनमें ये ‘जिम्मेदार नागरिक’ खुद अपनी ही बातों पर अमल नहीं कर रहे। यही कारण है कि आम लोग, जो इन हस्तियों की प्रशंसा के गीत गाते नहीं थकते, कोरोना से बचाव की बुनियादी सावधानियों पर संदेह करने लगे हैं। सभी क्षेत्रों का हाल समान है। राजनेताओं से उम्मीद की जाती है कि वे हमें ऐसा रास्ता दिखाएंगे, जिनसे हम महामारी से बच सकेंगे। यही उम्मीद फिल्मी कलाकारों, खिलाड़ियों आदि से भी की जाती है। मगर हम सबने देखा कि किस तरह से अधिकांश हस्तियां सरकारी दिशा-निर्देशों को रटती तो रहीं, लेकिन उन्होंने वैसा आचरण नहीं किया। एकाध को छोड़कर तो किसी ने यह देखने की भी जहमत नहीं उठाई कि प्रवासी श्रमिकों की भूख शांत करने या उन्हें घर तक पहुंचाने में उनकी छोटी सी मदद ही काफी कारगर हो सकती है। यह तो कुछ मीडियाकर्मी और फिल्मी कलाकार थे, जिन्होंने उन मजदूरों के दर्द को समझा। ऐसा करके संभवत: उन्होंने प्रस्तावित सुरक्षा मानदंडों की कमियों को ही उजागर किया। जैसे, बार-बार हाथ धोते रहने की बात तो नामचीनों द्वारा की जाती रही, लेकिन उन्हें शायद ही यह पता होगा कि शहरी कॉलोनियों में कितने बजे स्थानीय निकाय पानी की सप्लाई करते हैं? उन्हें नहीं मालूम होगा कि मेट्रो शहरों की करीब 20 फीसदी आबादी तभी पानी ले पाती है, जब पानी टैंकरों और नलों के आसपास ‘गाली-गलौज भरे शोर’ पर वह विजय पाती है। इसलिए यह जानने के बावजूद कि इन हस्तियों की बातें माननी चाहिए, कई लोगों के लिए उनका पालन मुश्किल था। इसी तरह, शारीरिक दूरी बरतने का आह्वान भी तब अकल्पनीय जान पड़ता है, जब हम देखते हैं कि 31 फीसदी से अधिक परिवारों के तीन-चार सदस्य एक ही कमरे में सोते हैं। ऐसी हालत में, इन हस्तियों का अनुसरण करने के बजाय जमीनी हकीकत से इनकी दूरी पर सवाल उठने लगते हैं, जो स्वाभाविक भी हैं। दिलचस्प यह भी है कि तमाम हस्तियों ने यह तो खूब साझा किया कि लॉकडाउन के दौरान उन्होंने क्या-क्या किया। जिम-योगाभ्यास करने से लेकर बर्तन मांजने, खाना पकाने, पेंटिंग करने, पढ़ने-लिखने, कहानी-गाना सुनने तक, सब कुछ बताया गया। मगर शायद ही किसी ने छात्र-छात्राओं को कोई मशविरा देना उचित समझा या फिर उन महिलाओं की बातें की, जो एक ही कमरे में झगड़ालू पति के साथ रहने को मजबूर हैं। ‘इनडोर योग’ ने अचानक से खुली जगह और ताजी हवा को हमसे दूर कर दिया, जबकि योग या सामान्य श्वसन के लिहाज से ये अनिवार्य तत्व हैं। मीडिया में काफी चर्चा में रहने वाले डॉक्टर भी प्रासंगिक सवालों के माकूल जवाब देने से बचते दिखे। जैसे, कोविड से बचाव संबंधी व्यवहार अपनाना यदि अनिवार्य है, तो फिर टीकाकरण से क्या फायदा? टीका लेते वक्त यदि कोई संक्रमित हो और उसे इसकी जानकारी न हो, तो फिर टीका उसे किस हद तक मदद करेगा? अगर टीके की दोनों खुराक के बीच में कोई बीमार पड़ता है, तो क्या होगा? टीके के प्रतिकूल प्रभाव की भी खबरें हैं, उनसे भला कैसे पार पाया जाएगा? यदि टीकाकरण ही हमें संक्रमण से बचाएगा, तो क्या ‘हर्ड इम्युनिटी’ (जब 60 से 70 फीसदी आबादी रोग प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर लेती है और महामारी का अंत मान लिया जाता है) की अवधारणा गलत है? वह भी तब, जब हर पांच में से एक इंसान के शरीर में प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो चुकी है? और फिर, प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में डॉक्टरों, विशेषज्ञों की क्या राय है, जो हम भारतीय हमेशा से करते रहे हैं, और इसीलिए प्राकृतिक रूप से प्रतिरोधी क्षमता हमारे शरीर में होती है? जाहिर है, लोग ऐसे फैसलों की उम्मीद कर रहे हैं, जो उन्हें सुरक्षित व स्वस्थ रखें, और बीमारी को उनके घर आने से रोक सकें। उन्हें आसान शब्दों में यह समझाना जरूरी है, और इसके लिए यह सुनिश्चित करना होगा कि जो लोग इस काम में लगाए गए हैं, वे भी इन सलाहों को अपने जीवन में उतारें। वरना महाकुंभ, चुनावी रैलियों और इन रैलियों के वक्तागण, लोगों को भीड़-भाड़ वाली जगहों पर भी उन्हें ‘ठीक’ महसूस कराते रहेंगे। साफ है, तमाम क्षेत्रों के नेतृत्व को पहले खुद कोरोना बचाव संबंधी व्यवहार अपनाने को बाध्य किया जाना चाहिए और फिर वे अपने सहयोगियों, अधीनस्थों और समर्थकों को ऐसा करने को कहें। समाज के सामने एक आदर्श हमें प्रस्तुत करना ही होगा।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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