निगरानी का दायरा (जनसत्ता)

महामारी से निपटने के तौर-तरीकों को लेकर केंद्र सरकार के रवैए पर सुप्रीम कोर्ट ने गहरी नाराजगी जताई। अदालत ने कहा कि ऑक्सीजन के बिना लोग दम तोड़ रहे हैं। एक-एक सिलेंडर के लिए लंबी कतारें लग रही हैं। लोग रो रहे हैं। जबकि केंद्र सरकार लगातार ऑक्सीजन की कमी नहीं होने का दावा कर रही है। लेकिन हालात हकीकत को बयां करने के लिए काफी हैं। अदालत ने यहां तक कहा कि यह वक्त सियासत का नहीं है। यह समय लोगों की जान बचाने का है। अदालतों की चिंता वाजिब है। लोग गुहार लगाएं भी तो किसके सामने?

गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ने तेईस अप्रैल को मामले का स्वत: संज्ञान लिया था। ऑक्सीजन की कमी पर दिल्ली हाई कोर्ट भी केंद्र और दिल्ली सरकार को जरूरी निर्देश दे चुका है। लेकिन हैरत की बात है कि बड़ी अदालतों की इतनी सक्रियता और सतत निगरानी के बावजूद हालात जस के तस हैं। रत्ती भर फर्क नहीं पड़ा। ऑक्सीजन का संकट बना हुआ है। और इसलिए दिल्ली हाई कोर्ट ने गुरुवार को केंद्र सरकार से पूछा कि आखिर क्यों नहीं अस्पतालों को ऑक्सीजन की आपूर्ति हो पा रही है। पर सरकारों के पास ऐसे सवालों का कोई ठोस जवाब नहीं है, बल्कि केंद्र और राज्य ऑक्सीजन की कमी और आपूर्ति के मुद्दे पर एक दूसरे पर ठीकरा फोड़ने में लगे हैं।

ऑक्सीजन संकट के मुद्दे पर केंद्र और राज्यों खासतौर से दिल्ली सरकार के बीच टकराव विचलित करने वाला है। हजारों लोगों की मौतों के बाद भी सरकारें संवेदनहीनता दिखा रही हैं। सरकारों का ऐसा निष्ठुर रवैया सरकारी कार्य-संस्कृति की झलक देता है। वरना क्या कारण है कि हफ्ते भर के भीतर ऑक्सीजन आपूर्ति का सिलसिला नहीं बन पाया। दिल्ली सरकार कह रही है कि केंद्र जरूरत से काफी कम ऑक्सीजन दे रहा है, जबकि केंद्र कह रहा है कि दिल्ली सरकार टैंकरों का बंदोबस्त नहीं कर पा रही। बहुत संभव है कि इसीलिए सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि इस मुद्दे पर सियासत न हो।


टैंकरों के इंतजाम में दिल्ली सरकार को अगर समस्या आ भी रही है तो मदद के लिए केंद्र को आगे आना चाहिए। ऑक्सीजन आंवटन के मुद्दे पर पर भी हाई कोर्ट ने केंद्र से पूछा कि आखिर दिल्ली को उसकी मांग के मुताबिक ऑक्सीजन क्यों नहीं मिल रही। जबकि महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश को मांग से ज्यादा ऑक्सीजन आवंटित कर दी गई। अगर अदालत केंद्र से ऐसे सवाल पूछ रही है तो निश्चित रूप से उसे कहीं उसके फैसले में कुछ तो गलत लग रहा है!


टीकों के अलग-अलग दाम को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने सवाल पूछे हैं। कंपनियों ने जिस तरह से मोलभाव की नौबत खड़ी कर दी, उसे कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता। राज्यों को अलग दाम पर और केंद्र को उससे भी सस्ता टीका देने की बात है। सर्वोच्च अदालत को यह खटका है। टीके के दाम से लेकर टीकाकरण अभियान को लेकर फैसले हड़बड़ी में हुए लगते हैं।

वरना राज्य क्यों एक मई से अठारह साल से उपर के लोगों को टीका लगाने के मामले में हाथ खड़े कर देते? क्यों अदालत को यह कहना पड़ा कि राज्यों को टीके मुहैया कराने का फैसला कंपनियों पर नहीं छोड़ा जा सकता, यह केंद्र के नियंत्रण में होना चाहिए? अदालत का यह सवाल भी तार्किक ही है कि केंद्र्र सरकार सारे टीके क्यों नहीं खरीद रही। टीका निर्माताओं को खुली छूट देना उनकी मनमानी को बढ़ावा देना होगा। अदालत ने सभी लोगों को मुफ्त में टीका लगाने के बारे में भी विचार करने को कहा है। बेशक इस वक्त सरकारें लाचारी की हालत में हैं। ऐसे में अदालतें सरकारों को जिम्मेदारी का भान करवा रही हैं।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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