By डॉ अश्विनी महाजन
हर कोई सोशल मीडिया समेत किसी भी स्रोत से रेमडेसिविर और अन्य दवाएं खोज रहा था. स्थिति तभी नियंत्रण में आ सकी, जब कोरोना वायरस का प्रकोप कम हुआ. इन आवश्यक वस्तुओं के प्रबंधन में न केवल आम आदमी को परेशानी का सामना करना पड़ रहा था, बल्कि प्रभावशाली लोग भी असहाय महसूस कर रहे थे.
पहली कोरोना लहर के दौरान तैयारी में हमने देखा कि पीपीई किट, टेस्टिंग किट, वेंटिलेटर और अन्य उपकरणों की घरेलू आपूर्ति हमारी मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं थी. हमारे उद्यमियों, सरकार और समाज ने इसे चुनौती के रूप में लिया और हम इन वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाने में कामयाब रहे. यह गर्व की बात है कि कुछ ही महीनों में हम अस्पतालों में वेंटिलेटर की उपलब्धता को तिगुना कर सके.
हमने बड़ी संख्या में आवश्यक उपकरणों का निर्यात भी शुरू कर दिया. जब महामारी की पहली लहर घट रही थी, देश ने वैक्सीन का उत्पादन भी शुरू कर दिया और स्थानीय स्तर पर उत्पादित दो टीकों के साथ चरणबद्ध तरीके से टीकाकरण अभियान भी प्रारंभ हो गया. यह कार्यक्रम सही दिशा में जा रहा था और संक्रमण का खतरा कम होने के कारण टीकों की मांग भी कमजोर थी.
लेकिन दूसरी लहर आने के साथ बड़े पैमाने पर संक्रमण होने से मांग अचानक बढ़ गयी, जिससे टीके की अप्रत्याशित कमी हो गयी. अन्य दवाओं के साथ भी ऐसा ही हुआ. रेमडेसिविर इंजेक्शन की भारी मांग को भारतीय निर्माताओं द्वारा पूरा नहीं किया जा सका. कई अन्य दवाएं भारत में उत्पादित नहीं की जाती हैं और वे काफी कम मात्रा में उपलब्ध होने के साथ महंगी भी हैं.
पहली लहर में आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति को समय पर बढ़ाया जा सका था, पर दूसरी लहर में महामारी की गंभीरता के कारण आपूर्ति की कमी को ठीक से प्रबंधित नहीं किया जा सका. फिर भी, अधिकतर घरेलू प्रयासों की मदद से और थोड़े से विदेशी समर्थन के साथ हम ऑक्सीजन की आपूर्ति में सुधार कर सके और वेंटिलेटर, अस्पताल के बिस्तर, कोविड देखभाल केंद्र, उपकरण आदि को प्रबंधित किया जा सका, जिसे हम आत्मनिर्भरता कह सकते हैं.
आक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाने को लेकर भी घरेलू स्तर पर प्रयास चल रहे हैं, लेकिन अभी भी बड़ी समस्या वैक्सीन और दवाओं की आपूर्ति है. जहां तक वैक्सीन का सवाल है, सरकारी स्रोतों से आ रही खबरों के अनुसार, हम निकट भविष्य में आपूर्ति में उल्लेखनीय वृद्धि की उम्मीद कर सकते हैं. सरकारी सूत्रों के अनुसार, अगस्त से दिसंबर तक, हम कोविशील्ड का उत्पादन 75 करोड़ खुराक, कोवैक्सिन का 55 करोड़ खुराक, स्पुतनिक का 15.6 खुराक और अन्य 70 करोड़ खुराक यानी कुल मिलाकर यह लगभग 216 करोड़ खुराक का उत्पादन करने में सक्षम होंगे.
कोरोना वैक्सीन में ‘एमआरएनए’ तकनीक के रूप में एक नया विकास हुआ है. अन्य टीकों के विपरीत, जो जैव टीके हैं, यह रसायन आधारित टीका है. दो भारतीय कंपनियों ने सरकार की मदद से देश में इन टीकों के निर्माण के प्रयास शुरू कर दिये हैं. इसके लिए कच्चा माल एक मुद्दा हो सकता है. उम्मीद है कि निकट भविष्य में हम इस वैक्सीन को तैयार कर लेंगे. अभी इसकी लागत अधिक है, जो भविष्य में उत्पादन बढ़ाने के साथ कम हो सकती है.
हमें उत्पादन के पैमाने को बढ़ाने और कीमत को वहनीय स्तर तक लाने के लिए एक व्यावहारिक तंत्र अपनाने की जरूरत है. पिछले कुछ महीनों में सरकार के हस्तक्षेप से रेमडेसिविर की कीमत में कमी आयी है, लेकिन यह अब भी बहुत सस्ती नहीं है और इसकी आपूर्ति अभी भी कम है. कीमत इसलिए भी अधिक है क्योंकि जिन कंपनियों को पेटेंट धारक कंपनी गिलियड से स्वैच्छिक लाइसेंस मिला है, उन्हें भारी रॉयल्टी भी देनी पड़ती है.
यह उल्लेखनीय है कि बांग्लादेश, जो भारत की फार्मास्युटिकल क्षमता से बहुत पीछे है, सरकार द्वारा प्रदत्त अनिवार्य लाइसेंस की सहायता से उत्पादन कर रहा है. अनिवार्य लाइसेंस प्रदान कर इस इंजेक्शन के उत्पादन की अनुमति देने में कोई समस्या नहीं है. कई कोविड दवाओं का निर्माण भारत में नहीं किया जा रहा है और इसलिए उनकी आपूर्ति पूरी तरह से आयात पर निर्भर करती है. मांग में अचानक वृद्धि होने पर आपूर्ति में हमेशा एक समय अंतराल होता है.
इनकी कीमत भी बहुत अधिक है, जो कई लोगों के सामर्थ्य से परे है. सवाल यह है कि इन दवाओं की आपूर्ति कैसे बढ़े. इसका उत्तर अनिवार्य लाइसेंस है. विश्व व्यापार संगठन में ट्रिप्स समझौते में उपलब्ध लचीलेपन के परिणामस्वरूप भारतीय कानूनों में अनिवार्य लाइसेंस के प्रावधान शामिल किये गये थे.
हंगरी, रूस और इजराइल सहित कई देशों ने पहले ही अनिवार्य लाइसेंस जारी कर दिये हैं और वे बहुत कम कीमतों पर दवाओं के निर्माण में सफल रहे हैं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे फार्मा और एपीआइ उद्योग में अणुओं को विकसित करने की भरपूर तकनीकी क्षमता है और अधिकतर मामलों में हम अनिवार्य लाइसेंस के माध्यम से उत्पादन करने में सक्षम होंगे. हमारी एक कंपनी श्नैटकोश द्वारा अनिवार्य लाइसेंस प्राप्त कर कैंसर की दवा बनाने का उत्कृष्ट उदाहरण हमारे सामने है.
हम उस दवा का उत्पादन बहुत कम कीमत पर कर रहे हैं. कुछ लोग यह भी तर्क देते हैं कि जब वे स्वैच्छिक लाइसेंस देने के इच्छुक हैं, तो फार्मा कंपनियों को नाराज क्यों करें? हमें यह समझना चाहिए कि अनिवार्य लाइसेंस के साथ हम कीमतों को काफी कम कर सकते हैं और यदि आवश्यक हो, तो अन्य विकासशील और यहां तक कि विकसित देशों को दवाएं निर्यात भी कर सकते हैं.
इसके अलावा, अनिवार्य लाइसेंस उन दवाओं के लिए और अधिक आवश्यक हो जाता है, जिनके लिए हम आयात पर पूर्ण निर्भर हैं. भारतीय पेटेंट अधिनियम, 1970 के अनुसार, अनिवार्य लाइसेंस प्रदान करने के लिए एक महत्वपूर्ण शर्त यह है कि दवा का निर्माण भारत में नहीं किया जाता है. अंत में यह कहा जा सकता है कि अनिवार्य लाइसेंस सस्ती दवाओं के लिए एक व्यावहारिक समाधान और आगे का रास्ता हो सकता है.
सौजन्य - प्रभात खबर।
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