हम लिखते रहते हैं कि व्यक्ति ने जिस पार्टी में रह कर अपना रुतबा बनाया है, उसे छोड़ कर जाने की बजाय उसी पार्टी में रह कर तथा अपने समविचारक साथियों को साथ लेकर संघर्ष करके अपनी बात पर पार्टी नेतृत्व को सहमत करने की कोशिश करनी चाहिए। इसी प्रकार पार्टी के नेताओं का भी कत्र्तव्य है कि वे इस बात को सुनिश्चित करें कि कर्मठ वर्करों की अनदेखी न हो, उनकी आवाज सुनी जाए और उन्हें उनका बनता अधिकार दिया जाए।
हाल ही में स पन्न पश्चिम बंगाल के चुनावों से ठीक पहले कुछ ऐसा ही घटनाक्रम देखने को मिला जब मु यमंत्री ममता बनर्जी के व्यवहार से कथित रूप से नाराज और पार्टी में स्वयं को उपेक्षित महसूस करने वाले 34 विधायकों, दर्जनों अन्य नेताओं तथा अनेक अभिनेता-अभिनेत्रियों ने पाला बदल कर भाजपा का दामन थाम लिया। इनमें शुभेंदु अधिकारी, जिन्होंने नंदीग्राम से ममता बनर्जी को हराया, के अतिरिक्त ‘साऊथ बंगाल स्टेट ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन’ के अध्यक्ष दीप्तांगशु चौधरी, विधायक शीलभद्र दत्त, विधायक बनाश्री मैती, वैशाली डालमिया, दीपक कुमार हलदर, प्रबीर घोषाल, विश्वजीत कुंडू, वन मंत्री राजीब बनर्जी आदि प्रमुख हैं।
यही नहीं भाजपा ने केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो तथा 2 अन्य लोकसभा सांसदों लॉकेट चटर्जी व निशीथ प्रामाणिक तथा राज्यसभा सांसद स्वप्न दासगुप्ता को भी केंद्र से लाकर चुनाव लड़वाया परन्तु चारों ही हार गए। हालांकि बाबुल सुप्रियो, लॉकेट चटर्जी और निशीथ प्रामाणिक की लोकसभा सदस्यता तो कायम रहेगी परन्तु स्वप्न दासगुप्ता ने राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था, इसलिए वह न ही विधायक बन पाए और न ही सांसद रहे।
एक ओर जहां भाजपा का केंद्रीय और प्रादेशिक नेतृत्व इन दलबदलुओं को आंखें मूंद कर पार्टी में शामिल करता चला गया तो दूसरी ओर पार्टी नेताओं के एक वर्ग में इसके विरुद्ध बगावत शुरू हो गई तथा भाजपा के पुराने सदस्यों और दलबदलुओं के बीच खून-खराबा भी हुआ।
तृणमूल कांग्रेस से आए दलबदलुओं को चुनाव लड़वाने का भाजपा का प्रयोग विफल रहा तथा 2 मई को घोषित परिणामों में 13 दलबदलू विधायकों में से सिर्फ 4 ही अपनी सीट बचा पाए, एक दलबदलू किसी अन्य सीट से जीता और अन्य 8 को भारी पराजय का सामना करना पड़ा।
‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के कुछ नेताओं को भी दलबदलुओं को आंख मूंद कर पार्टी में शामिल करना पसंद नहीं था क्योंकि ‘संघ’ दूसरी पार्टी से आए नेताओं और उनके समर्थकों पर भरोसा करने का दृढ़ता से विरोध करता रहा है। संघ नेताओं के अनुसार,‘‘दलबदलुओं की कोई विचारधारा नहीं होती और बेहतर स्थिति अथवा प्रलोभन मिलने पर वे पाला बदल सकते हैं।’’
चूंकि ज्यादातर दलबदलू सत्ता के स्वार्थ की खातिर ही दूसरी पार्टी में जाते हैं, अत: यदि तृणमूल कांग्रेस के ये दलबदलू जीत भी जाते तो सरकार में किसी न किसी पद के लिए भाजपा नेतृत्व पर दबाव डालना शुरू कर देते जिससे भाजपा में भी तनातनी वाली स्थिति पैदा हो जाती।
बहरहाल जहां भाजपा नेतृत्व ने अपने चुनाव अभियान में देश के दूसरे हिस्सों से आए लोगों को प्रभावित करने में सफलता प्राप्त की वहीं वे महिलाओं और मुसलमानों सहित स्थानीय मतदाताओं को प्रभावित करने में विफल रहे जिन्होंने तृणमूल कांग्रेस की विजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अभिनेत्री जया बच्चन ने भी अपने पति अमिताभ बच्चन की राजनीतिक प्रतिबद्धता (कांग्रेस) के दृष्टïविगत कोलकाता जाकर 4 दिन तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में प्रचार किया। इसका भी महिलाओं पर अनुकूल प्रभाव पड़ा।
बहरहाल अब पराजित दलबदलू नेताओं के लिए ‘न इधर के रहे न उधर के रहे’ वाली स्थिति पैदा हो गई है क्योंकि अगले 5 वर्षों तक उन्हें भाजपा में कोई नहीं पूछेगा और क्षेत्रीय लोग भी अब काम करवाने के लिए उनके पास न आकर तृणमूल कांग्रेस के विजेता विधायकों के पास ही जाएंगे।हालांकि दलबदली का यह पहला मौका नहीं परंतु निश्चय ही दलबदलुओं ने अपनी विश्वसनीयता और प्रतिष्ठïा फिर गंवाई है जिसकी उन्हें कीमत भी चुनावी पराजय के रूप में चुकानी पड़ेगी। —विजय कुमार
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‘पश्चिम बंगाल में मतदाताओं ने’ ‘दलबदलुओं को ठुकराया’ (पंजाब केसरी)
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