कृष्ण प्रताप सिंह
राजा राममोहन राय को हम भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत और समाज सुधारक के रूप में जानते हैं. सती प्रथा व बाल विवाह समेत पारंपरिक हिंदू धर्म और संस्कृति की अनेक रूढ़ियों के उन्मूलन, महिलाओं के उत्थान और पारिवारिक संपत्ति व विरासत में अधिकार के लिए उन्होंने संभव प्रयत्न किये. उनकी बाबत रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा है- ‘राममोहन राय के युग में भारत में कालरात्रि-सी उतरी हुई थी. लोग भय व आतंक के साये में जी रहे थे. मनुष्यों के बीच भेदभाव बनाये रखने के लिए उन्हें अलग-अलग खानों में बांट दिया गया था. उस कालरात्रि में राममोहन ने अभय-मंत्र का उच्चारण किया और प्रतिबंधों को तोड़ फेंकने की कोशिश की.’
हुगली के राधानगर गांव के एक बंगाली हिंदू परिवार में 22 मई, 1772 को जन्मे राममोहन के पिता रमाकांत राय वैष्णव थे और उनकी माता तारिणी देवी शैव. वेदांत दर्शन की शिक्षाओं व सिद्धांतों से प्रभावित राममोहन के मन में एक समय साधु बनने की इच्छा प्रबल हुई तो वह मां के प्रेम के कारण ही उस दिशा में प्रवृत्त नहीं हो पाये. उनके पिता रमाकांत बंगाल के तत्कालीन नवाब सिराजउद्दौला के राजकाज चलानेवाले अधिकारियों में से एक थे.
वे चाहते थे कि राममोहन की सुचारु व सर्वोत्कृष्ट शिक्षा-दीक्षा के रास्ते में कोई बाधा न आये. उन्होंने उनको फारसी व अरबी की पढ़ाई के लिए पटना भेज दिया और संस्कृत की शिक्षा वाराणसी में दिलायी. शिक्षा पूरी होने के 1803 में अपने डिगबी नाम के एक अंग्रेज मित्र की अनुकंपा से राममोहन ईस्ट इंडिया कंपनी में मुंशी बन गये. इस दौरान उन्होंने कभी भी अपने स्वाभिमान, अस्मिता और निडरता से समझौता नहीं किया.
साल 1808-09 में भागलपुर में तैनाती के समय उन्होंने गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो से भागलपुर के अंग्रेज कलेक्टर सर फ्रेडरिक हैमिल्टन द्वारा अपने साथ की गयी बदतमीजी की शिकायत की. वे तभी माने थे जब गवर्नर जनरल ने कलेक्टर को कड़ी फटकार लगाकर उनके किये की माकूल सजा दी थी.
वाकया यों है कि एक दिन जब राममोहन पालकी में सवार होकर गंगाघाट से भागलपुर शहर की ओर जा रहे थे, तो घोड़े पर सैर के लिए निकले कलेक्टर सामने आ गये. पालकी में लगे परदे के कारण राममोहन उनको देख नहीं सके और यथोचित शिष्टाचार से चूक गये. उन दिनों किसी भी भारतीय को किसी अंग्रेज अधिकारी के आगे घोड़े या वाहन पर सवार होकर गुजरने की इजाजत नहीं थी. इस ‘गुस्ताखी’ पर कलेक्टर आग बबूला हो उठे.
राममोहन ने उन्हें यथासंभव सफाई दी. लेकिन वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हुए. राममोहन ने देखा कि विनम्रता काम नहीं आ रही तो हुज्जत पर आमादा कलक्टर के सामने ही फिर से पालकी पर चढ़े और आगे चले गये. कोई और होता तो वह इस मामले को भुला देने में ही भलाई समझता. कलेक्टर से पंगा लेने की हिम्मत तो आज के आजाद भारत में भी बिरले ही कर पाते हैं.
लेकिन राममोहन ने 12 अप्रैल, 1809 को गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो को कलेक्टर की करतूत का विस्तृत विवरण देकर लिखा कि किसी अंग्रेज अधिकारी द्वारा, उसकी नाराजगी का कारण जो भी हो, किसी देसी प्रतिष्ठित सज्जन को इस प्रकार बेइज्जत करना असहनीय यातना है. इस प्रकार का दुर्व्यवहार बेलगाम स्वेच्छाचार ही कहा जायेगा.
गवर्नर जनरल ने उनकी शिकायत को गंभीरता से लिया और कलेक्टर से रिपोर्ट तलब की. कलेक्टर ने अपनी रिपोर्ट में राममोहन की शिकायत को झूठी बताया. उस पर एतबार न करके अलग से जांच करायी, जिसके बाद न्यायिक सचिव की मार्फत कलेक्टर को फटकार लगाकर आगाह करवाया कि वे भविष्य में देसी लोगों से बेवजह के वाद-विवाद में न फंसें.
राममोहन को जल्दी ही पता चल गया कि उनकी शिक्षा-दीक्षा की सार्थकता ईस्ट इंडिया कंपनी की मुंशीगिरी करते हुए ऐसी व्यक्तिगत लड़ाइयों में उलझने में नहीं, बल्कि समाज में चारों ओर फैले पक्षपात, भेदभाव व दमन की मानसिकता और उससे पैदा हुई जड़ताओं से लड़ने और उनके पीड़ितों को निजात दिलाने में है.
उन्होंने 1815 में कोलकाता में आत्मीय सभा और 1828 में द्वारिकानाथ टैगोर के साथ मिलकर ब्रह्म समाज की स्थापना की. वर्ष 1829 में उन्होंने अंग्रेजी, बांग्ला और पर्शियन के साथ हिंदी में भी ‘बंगदूत’ नामक पत्र का प्रकाशन किया.
इसी बीच उन्होंने अपनी भाभी के सती होने का जो भयावह वाकया देखा, उससे विचलित होकर 1818 में इस क्रूर प्रथा के विरुद्ध न सिर्फ जागरूकता व संघर्ष की मशाल जलायी, बल्कि उसे तब तक बुझने नहीं दिया जब तक गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक ने सती होने या सती करने को अवैध नहीं घोषित कर दिया. बैटिंक के इस फैसले के लिए राममोहन को 11 वर्षों तक जबरदस्त मुहिम चलानी पड़ी. देश में शैक्षणिक सुधारों के लिए भी उन्होंने संघर्ष किये.
राममोहन नाम के साथ ‘राजा’ शब्द तब जुड़ा जब दिल्ली के तत्कालीन मुगलशासक बादशाह अकबर द्वितीय (1806-1837) ने उन्हें राजा की उपाधि दी. अकबर द्वितीय ने ही 1830 में उन्हें अपना दूत बनाकर इंग्लैंड भेजा. इसके पीछे उनका उद्देश्य इंग्लैंड को भारत में जनकल्याण के कार्यों के लिए राजी करना और जताना था कि बैंटिक के सती होने पर रोक संबंधी फैसले को सकारात्मक रूप में ग्रहण किया गया है. वर्ष 1833 में 27 सितंबर को इंग्लैंड के ब्रिस्टल में ही मेनेंजाइटिस से पीड़ित होने के बाद राममोहन की मुत्यु हो गयी. उनका वहीं अंतिम संस्कार कर दिया गया.
सौजन्य - प्रभात खबर।
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