यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अस्पताल ऑक्सीजन जैसी जरूरी चीज से भली तरह लैस हों क्योंकि इसका भरोसा नहीं कि संक्रमण की तीसरी लहर कब दस्तक दे दे। अस्पतालों के नाकारापन के लिए जांच-परख की जिम्मेदारी वाला तंत्र भी दोषी है।
ऑक्सीजन की किल्लत से कोरोना मरीजों के दम तोड़ने का सिलसिला कायम रहना अव्यवस्था के अराजकता की हद तक पहुंचने की कहानी कह रहा है। यह शर्मनाक है कि 10-12 दिन बीत जाने के बाद भी ऑक्सीजन की किल्लत खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। गत दिवस कर्नाटक के एक अस्पताल में ऑक्सीजन के अभाव में 25 मरीजों ने दम तोड़ दिया। इसके पहले इसी तरह की घटनाएं देश के विभिन्न अस्पतालों में घट चुकी हैं, जिनमें तमाम कोरोना मरीजों की जानें गई हैं। इनमें देश की राजधानी दिल्ली के भी अस्पताल हैं। जिन कोरोना मरीजों को घर पर ऑक्सीजन नहीं मिली और उनकी मौत हो गई, उनकी तो गिनती करना ही मुश्किल है। ऑक्सीजन संकट के मामले में यह देखना हैरान-परेशान करता है कि तमाम बड़े अस्पतालों ने भी न तो ऑक्सीजन प्लांट लगा रखे हैं और न ही उसके भंडारण की कोई ठोस व्यवस्था कर रखी है। वे चंद ऑक्सीजन सिलेंडर रखते हैं, जो संकट के इस दौर में जल्द ही खत्म होने लगते हैं। यही कारण है कि वे रह-रह कर ऑक्सीजन की कमी की गुहार लगाते दिखते हैं। यह और कुछ नहीं, अस्पतालों की आपराधिक लापरवाही ही है। सवाल है कि ऐसा कोई तंत्र क्यों नहीं, जो इसकी निगरानी करता हो कि अस्पताल जरूरी संसाधनों से लैस हैं या नहीं?
अस्पतालों के नाकारापन के लिए कहीं न कहीं वह तंत्र भी दोषी है, जिस पर उनके संसाधनों की गुणवत्ता की जांच-परख की जिम्मेदारी है। कम से कम अब तो उसे चेतना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अस्पताल ऑक्सीजन जैसी जरूरी चीज से भली तरह लैस हों, क्योंकि इसका भरोसा नहीं कि संक्रमण की तीसरी लहर कब दस्तक दे दे। ऑक्सीजन की किल्लत के पीछे केंद्र और राज्य सरकारों तथा उनके प्रशासन के बीच तालमेल का अभाव भी दिख रहा है। भले ही पिछले कई दिनों से ऑक्सीजन की तंगी दूर करने के लिए तमाम उपाय किए जा रहे हों, लेकिन यह समझना कठिन है कि रेलवे की ओर से आक्सीजन एक्सप्रेस चलाने, उद्योगों में इस्तेमाल होने वाली ऑक्सीजन का उपयोग रोकने, नए ऑक्सीजन प्लांट लगाने, ऑक्सीजन कंटेनरों से लेकर सिलेंडरों तक की उपलब्धता बढ़ाने की खबरों के बीच जमीन पर हालात जस के तस क्यों नजर आ रहे हैं? इसकी तो यही वजह नजर आती है कि ऑक्सीजन की आपूर्ति और वितरण का कोई सुव्यवस्थित तंत्र नहीं विकसित किया जा सका है। नि:संदेह यह भी एक नाकामी ही है। जब हजारों लोगों का जीवन संकट में हो, तब तो किसी को खास तौर पर यह देखना चाहिए कि राहत-बचाव का काम अपेक्षा के अनुरूप हो रहा है या नहीं?
सौजन्य - दैनिक जागरण।
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