के.एस. तोमर
पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव नतीजों से एक प्रबल और स्पष्ट तथ्य उभरा है कि ममता बनर्जी, पी. विजयन, एमके स्टालिन जैसे ताकतवर क्षत्रपों का प्रभुत्व और वर्चस्व विधानसभा चुनावों में जीत का दमखम रखता है। ऐसे में, दो बड़े राष्ट्रीय दलों, भाजपा और कांग्रेस के आलाकमान को जनाधार के लिए राज्यस्तरीय नेताओं को आगे लाना चाहिए, साथ ही सफलता सुनिश्चित करने के लिए बिना आधार वाले एवं अनुभवहीन नेताओं को दिल्ली से थोपने की मौजूदा परम्परा से बचना चाहिए। राजनीतिक विश्लेषकों का विचार है कि पांचों विधानसभा के चुनाव परिणाम अगले वर्ष होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों के लिए पूर्ववर्ती आकलन के रूप में हो सकते हैं। इसके अलावा यह भी कि पीएम नरेन्द्र मोदी जैसे लोकप्रिय नेता भी विधानसभा चुनावों में जीत की गारंटी नहीं हो सकते, और यह भी कि आम चुनाव में परिदृश्य अलग हो सकता है और वह फिर निर्विवाद नेता बनकर उभर सकते हैं यदि विपक्ष विकल्प देने में विफल साबित होता है।
यहां यह भी स्मरणीय है कि पूर्व में आरएसएस ने चुनावी सफलता के लिए मोदी, शाह आदि पर निर्भरता के बारे में भाजपा को आगाह भी किया था, जब तीन राज्यों-राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी की हार हुई थी और कांग्रेस विजयी रही थी। आरएसएस दूसरी पार्टी से आए नेताओं और उनके समर्थकों पर भरोसा करने का भी दृढ़ता से विरोध करता रहा है। संघ मानता रहा है कि ऐसे नेताओं की कोई विचारधारा नहीं होती और जब भी उन्हें बेहतर स्थिति अथवा प्रतिद्वंद्वियों से प्रलोभन मिलेगा, वे पाला बदल सकते हैं। आरएसएस ने पश्चिम बंगाल में अपना आधार तैयार करने में चालीस वर्ष लगाए, पर तृणमूल कांग्रेस के ३४ विधायकों के पार्टी छोड़कर आने से वास्तविक और मूल काडर के नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट गया और उन्होंने शायद आधे-अधूरे मन से काम किया। विश्लेषक यह महसूस करते हैं कि क्षेत्रीय नेता जैसे - नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल, उद्धव ठाकरे, नीतीश कुमार, लालूप्रसाद यादव, प्रकाश सिंह बादल, मुलायम सिंह यादव, मायावती आदि (इनमें से कुछ की जगह युवाओं ने ले ली है) अपने-अपने क्षेत्रों में अब भी लोकप्रिय हैं और भाजपा हो चाहे कांग्रेस, अपने राष्ट्रीय नेताओं की लोकप्रियता के ग्राफ से उन्हें उनकी जगह से बेदखल नहीं कर सकतीं। जरूरत है उन जमीनी नेताओं को ग्रूम कर नेतृत्व सौंपने की, जिन्हें स्वाभाविक तौर पर कार्यकर्ताओं द्वारा स्वीकारा जाता है।
भाजपा ने दलबदल कर आए 34 विधायकों में से १३ को टिकट दिए। इनमें से केवल पांच ही चुनाव जीत सके। यह 'आयाराम गयाराम' के परिदृश्य पर मतदाताओं की प्रतिक्रिया नहीं तो और क्या है। भाजपा, प.बंगाल में पार्टी के स्थानीय चेहरे पर फैसला करने में विफल रही और इसकी कीमत पार्टी को उसी तरह चुकानी पड़ी, जैसे असम में लोकप्रिय नेता तरुण गोगोई के निधन के बाद मुख्यमंत्री पद के चेहरे के अभाव में कांग्रेस को चुकानी पड़ी थी।
विशेषज्ञों का कहना है कि क्षेत्रीय दलों का उदय देश के संघीय ढांचे को मजबूत कर सकता है और ऐसे नेताओं के बीच भरोसा उत्पन्न कर सकता है जो अपने-अपने राज्यों के लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरेंगे। कांग्रेस का अवलोकन करने से स्पष्ट है कि वहां लोकप्रिय और बड़े जनाधार वाले नेताओं को या अपमानित किया गया या उनकी जगह उन 'दोस्तोंÓ ने ले ली जिन्होंने 'यस मैन' तथा जी23 के नेताओं की तरह काम किया। हालांकि इनमें से अधिकांशत: अपने गृहराज्य में ही विधानसभा सीट जीतने का भी सामथ्र्य नहीं रखते।
भाजपा की आक्रामक कोशिश और दक्षिण में पैर जमाने की उम्मीद प्रतिरोधी रणनीति के कारण धराशायी तो हुई ही, साथ ही पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में बड़े आधार वाले क्षेत्रीय नेता 'हिन्दुत्व की खुराक' को बेअसर करने में कामयाब भी रहे। भाजपा को असम में वापसी और पुड्डुचेरी में कांग्रेस को सत्ताच्युत करने से कुछ सांत्वना मिल सकती है। तमिलनाडु में कांग्रेस को गठबंधन के रूप में सफलता मिली है। उसे अगले वर्ष उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि के विधानसभा चुनाव की तैयारी के लिए गंभीर आत्मनिरीक्षण की जरूरत है। टीएमसी के रणनीतिकार प्रशांत किशोर को लगता है कि हर किसी को प्रतिद्वंद्वी की ताकत और कमजोरियों का विश्लेषण करने की जरूरत होती है। उन्होंने यही किया। काउंटर रणनीति बनाई गई और वांछित परिणाम सामने हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)
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