By प्रभु चावला
राजनीति और नौकरशाही में सत्ता के शीर्ष पर बैठे अधिकतर वीआइपी लोगों को समझ में आ गया है कि कोरोना ने घर पर दस्तक दे दी है. कई मंत्रियों और उनके परिजनों की मौत हुई है. राष्ट्रीय भाग्य के शीर्ष निर्णायक दैवीय निर्णायक के सामने पस्त हो गये हैं. तमाम कोशिशों के बावजूद वीआइपी लोग आइसीयू बिस्तर न मिल पाने के असाधारण अनुभव से गुजर रहे हैं.
वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और महामारी विशेषज्ञों की चेतावनी के बावजूद, उनकी आत्मतुष्टि के चलते मौतें हो रही हैं. मौत ने राजनीतिक ओजोन परत में कंकालीय अंगुली से छेद करते हुए यह भयावह संदेश दिया है- मेरे स्पर्श से कोई भी सुरक्षित नहीं है. कोरोना वायरस के मौत के तांडव ने सत्ता के खोखलेपन को उजागर कर दिया है. यह महामारी राजा या रंक- किसी को भी नहीं बख्शती. कोविड-19 एक बड़ी समतामूलक शक्ति सिद्ध हुई है.
दूसरी लहर ने सत्ता प्रतिष्ठान को अवाक कर दिया है, जिसने स्वयं को दंभ और लापरवाही से घेर कर सुरक्षित कर लिया था. देश में करीब चार लाख लोग रोज संक्रमित हो रहे हैं. एक दर्जन से अधिक मुख्यमंत्री, लगभग इतने ही केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल, उपराज्यपाल, और जनप्रतिनिधि वायरस की घातक चपेट में आये हैं. कई न्यायाधीश क्वारंटीन हुए या अस्पताल में भर्ती हुए. दो सौ से अधिक आइएएस, आइपीएस और अन्य आभिजात्य सेवाओं के अधिकारी गंभीर रूप से बीमार हुए.
बिहार के मुख्य सचिव की मृत्यु हुई. दूसरों की जान बचाने के लिए जूझते करीब एक हजार डॉक्टर और नर्स शहीद हो गये. साधु व ज्योतिषियों ने अपने सगे-संबंधियों को खोया. शायद ही कोई प्रसिद्ध और प्रभावशाली परिवार ऐसा होगा, जिस पर वायरस ने हमला न किया हो. सही है कि भारत अकेला देश नहीं हैं, जहां बड़ी संख्या में मौतें हुई हों या लोग संक्रमित हुए हों, लेकिन यह अकेला राष्ट्र है, जिसने अपनी शुरुआती सफलता को महामारी पर अंतिम विजय माना था. जब दूसरे देश भविष्य की तैयारी कर रहे थे और स्वास्थ्य व्यवस्था को बढ़ा रहे थे, भारत कोरोना निर्देशों का उल्लंघन करते हुए चुनाव और धार्मिक आयोजन करा कर उत्सव मनाने लगा.
राजनेता बिना मास्क लगाये और दूरी बरतते बड़ी संख्या में लोगों से मिल रहे थे. सरकारों ने आंकड़ों में हेराफेरी की, असंतोष का दमन किया और पीड़ितों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज किये. कानून लागू करनेवाली एजेंसियां लापरवाह रहीं. संक्षेप में, यह एक महामारी की ‘पावड़ी’ हो रही थी, जिसमें बिना जाने-बूझे टीवी पंडित बतकही कर रहे थे और ऊपरी आदेशों का पालन कर रहे थे. फिर, वही हुआ, जो होना था. कर्म का फल सामने है.
जीवन बचाने में हुई इतनी बड़ी चूक की जिम्मेदारी लेने के लिए कोई तैयार नहीं है. जीवन बचाने की जगह छवि बचाने के लिए आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है. पहले चरण में स्थापित कोविड इंतजामों को हटाने की सलाह केंद्र और राज्यों को किसने दी? प्रधानमंत्री ने बिना किसी उचित सूचना के कठोर लॉकडाउन की घोषणा कर दी. इस दौर में अस्पतालों में हजारों बिस्तर जोड़े गये थे.
स्कूलों, होटलों और सरकारी इमारतों को उपचार केंद्रों में बदला गया था. पीपीई किट, वेंटिलेटर आदि सामानों के उत्पादन के लिए विशेष छूट दी गयी थीं. भले ही देश ऐसी बड़ी आपदा के लिए तैयार नहीं था, पर भारतीयों ने, थोड़े समय के लिए सही, एकजुट होकर इसका सामना किया था. उस समय स्थापित सुविधाओं को कायम क्यों नहीं रखा गया और उनका विस्तार क्यों नहीं हुआ? चुनींदा और भरोसेमंद विशेषज्ञों और नौकरशाहों के समूह ने संसाधन, दवाइयों, बिस्तरों आदि की कमी को चिन्हित क्यों नहीं किया, जबकि इस संबंध में लगातार चेतावनियां आ रही थीं?
ये सभी सोये हुए थे. क्या इन्हें भविष्य की मुश्किलों का अनुमान नहीं था? उन्होंने क्यों नहीं बताया कि दिल्ली के लिए ऑक्सीजन हरियाणा से नहीं, ओडिशा से लाना पड़ेगा? लगभग 1.4 अरब आबादी के देश में केवल 550 मेडिकल कॉलेज हैं, जहां एक लाख से कम सीटें हैं. एक अध्ययन के अनुसार, देश के करीब 70 हजार सरकारी व निजी अस्पतालों में 19 लाख बिस्तर हैं, पर केवल 95 हजार आइसीयू बेड और 50 हजार वेंटिलेटर उपलब्ध हुए.
दिल्ली में केवल एक हजार वेंटिलेटर हैं, तो 20 करोड़ आबादी के उत्तर प्रदेश में सात हजार. ऑक्सीजन की कमी पूरा करने के प्रयास पहले क्यों नहीं हुए? इस कृत्रिम अभाव के लिए कौन जिम्मेदार है? सरकारों को उनके विशेषज्ञों ने वैक्सीन क्षमता बढ़ाने की सलाह क्यों नहीं दी? अगर उन्होंने ऐसी सलाह दी थी, तो उसे क्यों नहीं माना गया? भारत दुनिया की ऑक्सीजन फैक्टरी है. वैक्सीन के अरबपति उत्पादक धन और छवि के पीछे पड़े हुए थे और सिद्धांतों को दरकिनार कर मुनाफे के लिए ‘मैत्री’ को भुना रहे थे.
भारत अपने लोगों के लिए उचित मात्रा में वैक्सीन नहीं जुटा सका, जबकि सभी देशों ने पहले से ही अपनी मांग रख दी थी. लेकिन गलतियां करने के विशेषज्ञ देश की जरूरत को नहीं समझ सके. आत्मनिर्भरता तब विडंबना बन गयी, जब अन्य देशों को दस करोड़ खुराक देनेवाला भारत खुद ही दूसरों का मोहताज हो गया. लाखों जिंदगियां तबाह करनेवाली दूसरी लहर के बाद ही शासकों ने वैक्सीन की अतिरिक्त खुराक की मांग रखी.
क्यों नहीं भारत के प्रतिष्ठित और धनी उद्यमों ने पहले ही सरकारी प्रयासों में सहयोग दिया? नेताओं और अन्यों के लिए बुलेटप्रूफ वाहन बनानेवाली कंपनियों ने सरकारी अस्पतालों के लिए एंबुलेंस मुहैया क्यों नहीं कराया? अदार पूनावाला कोविशील्ड वैक्सीन के दाम घटाकर दयावान होने का तमगा क्यों चाहते हैं?
यदि विभिन्न क्षेत्रों के अगुवा अपनी जिम्मेदारी निभाते, तो आज का संकट टाला जा सकता था. शायद ही किसी बड़ी कंपनी ने अपने कर्मचारियों के लिए उदारता से चिकित्सा सहयोग दिया है. नौकरशाही कमजोर और अक्षम इंफ्रास्ट्रक्चर के ढहने का अनुमान नहीं लगा सकी. अब सभी को भुगतना पड़ रहा है. गरीब को बिस्तर नहीं मिल रहा है, तो पैसा व रसूख के बावजूद अमीर को भी भटकना पड़ रहा है.
दुर्भाग्य से, जवाबदेही अपनी प्रासंगिकता और भरोसा खो चुकी है. वर्तमान शासन संरचना में नेतृत्व संवेदनशील पदों पर अफसरों की नियुक्ति तीन आधारों पर करता है- वफादारी, वांछनीयता और योग्यता. ऐसा लगता है कि पहले आधार पर पास होने के बाद अधिकतर अहम सलाहकार ठीक से काम नहीं कर सके हैं और उन्होंने उन लोगों को धोखा दिया है, जिन्होंने उन्हें रक्षक के रूप में चुना था. कुछ लोग भले ही चुनाव जीत लें या दो लाख से अधिक मौतों के ‘सकारात्मक पक्ष’ का दिखावा करें, सच यह है कि मृत्यु घमंड का दंड है.
सौजन्य - प्रभात खबर।
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