नतीजों से शक्तिशाली हुए क्षत्रप (हिन्दुस्तान)

आरती आर जेरथ, वरिष्ठ पत्रकार 

विधानसभा चुनावों के नतीजों को अगर देखें, तो खासतौर पर ममता बनर्जी की जीत स्तब्धकारी है। उन्हें क्या खूब जनादेश मिला है, जब विपक्ष के कद्दावर नेता लगभग रोज ही ममता बनर्जी को निशाना बनाने में लगे थे। तमाम कोशिशों के बावजूद ममता बनर्जी की सीटों की संख्या घटने के बजाय पिछली बार की तुलना में बढ़ गई है। तमाम विपक्षी नेताओं में अगर आप देखते हैं कि ममता बनर्जी सबसे बड़ी भाजपा विरोधी और प्रधानमंत्री की सबसे मुखर आलोचक रही हैं। ममता बनर्जी ने पूरा चुनाव अभियान नरेंद्र मोदी के खिलाफ चलाया है। अभियान के दौरान ही उन्होंने सभी विपक्षी नेताओं को चिट्ठी लिखी थी कि हमें लोकतंत्र को बचाने के लिए एक नेशनल फ्रंट बनाना चाहिए। आने वाले समय में ममता बनर्जी का यह एक बड़ा एजेंडा होगा कि केंद्र सरकार के विरोध के लिए क्षेत्रीय दलों का एक फ्रंट बनाएं। यह फ्रंट चुनाव के लिए तो नहीं होगा, लेकिन जिस तरह से केंद्र सरकार सारी शक्तियों का केंद्रीकरण कर रही है, राज्यों को उपेक्षा महसूस हो रही है, इन विषयों पर ममता बनर्जी बाकी पार्टियों को लेकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ खूब लड़ेंगी और इसमें उन्हें तमिलनाडु के द्रमुक नेता एम के स्टालिन और केरल के नेता पी विजयन का साथ मिलेगा। ये दोनों नेता भी अपने-अपने राज्य में बहुत तगड़े जनादेश से जीतकर आए हैं। ये भी संघवाद पर बहुत मजबूती से विश्वास करने वाले नेता हैं। 


कुल मिलाकर, कोरोना ने जिस तरह से नरेंद्र मोदी की छवि को धक्का पहुंचाया है और जिस तरह से उनकी देश और विदेश की प्रेस में आलोचना हो रही है। ज्यादातर लोग कह रहे हैं कि यह सब पूरा केंद्र सरकार का कुप्रबंधन था, जिसके कारण लोग जान गंवा रहे हैं। अगर सरकार थोड़ा सतर्क रहती और विशेषज्ञों की बात सुन लेती, तो इतना बुरा हाल न होता। अब लड़ाई यहीं से शुरू होगी। आगे आने वाले महीनों में यह बढ़ेगी। विपक्ष का आरोप है कि कोरोना के समय केंद्र सरकार ने वैक्सीन, ऑक्सीजन, लॉकडाउन जैसे फैसलों को पूरी तरह से केंद्रीकृत कर दिया था। पूरा कोरोना प्रबंधन दिल्ली से चल रहा था। आज ज्यादातर विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्य यही तो बोल रहे हैं कि हमें वैक्सीन नहीं मिल रही, दवाओं का अभाव है, ऑक्सीजन की कमी है। महाराष्ट्र तो एक ऐसा राज्य है, जो पहले से ही केंद्र सरकार से लड़ रहा है। अगर आप देखें, तो मुझे लगता है, क्षेत्रीय नेताओं का एक समूह बनेगा, जो चुनौती देगा। मुद्दों के आधार पर चुनौती दी जाएगी और आज सबसे बड़ा मुद्दा कोरोना महामारी है। 


दूसरी ओर, कांग्रेस का तो सफाया हो गया है, कोई भी कांग्रेस की तरफ देख नहीं रहा है। कांग्रेस की अपनी राजनीति है, अपनी सोच है, जो क्षेत्रीय पार्टियों से अलग है। क्षेत्रीय दलों के लिए रास्ता अब आसान हो गया है, कांग्रेस उनकी राह में कोई अड़चन नहीं डाल सकती। अन्य मुख्यमंत्री जैसे ओडिशा में नवीन पटनायक, आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी और तेलंगाना में चंद्रशेखर राव अब तक लगभग चुप थे, लेकिन अब कोरोना की वजह से कुछ-कुछ उनकी आवाज भी निकल रही है। ये लोग भी ममता के साथ जुड़ने की कोशिश करेंगे। अब देखना है, उत्तर प्रदेश में क्या होता है। छह महीने में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू हो जाएगी। यहां विपक्षी दलों के पास कानून-व्यवस्था एक बड़ा मुद्दा है। दूसरा कोरोना जिस तरह फैल रहा है, लोग जिस तरह जान गंवा रहे हैं, यह बड़ा मुद्दा है। तीसरा मुद्दा है, कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहा आंदोलन। उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्ष अगर एकजुट हो गया, तो उसकी आवाज बहुत बढ़ जाएगी। मुख्य बात यही होगी कि क्षेत्रीय पार्टियां केंद्रीकरण का विरोध करेंगी। किसी भी तरह की मनमानी के खिलाफ आवाज उठाएंगी। मांग उठेगी कि केंद्र सरकार को संघवाद पर आना ही पड़ेगा। हमारा संविधान संघीय ढांचे की गारंटी देता है। चुनावी नतीजों से वन इंडिया, वन पीपुल, वन लंग्वेज के नारे को चोट लगी है। दक्षिण के राज्यों में भाजपा की कोशिशें लगभग नाकाम रही हैं। इन राज्यों में क्षेत्रीय पहचान, भाषा और संस्कृति का महत्व ज्यादा है। यह समझना पड़ेगा कि वन इंडिया का जो सपना है, एक भाषा, एक रहन-सहन रखना, यह नहीं चलेगा। यही आवाज केरल, तमिलनाडु और बंगाल से मुखरता से उठी है। खासकर बंगाल जहां भाजपा ने बहुत जोर लगा दिया, फिर भी लोगों ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। 


दूसरी बात, ममता बनर्जी के खिलाफ हर जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा तो काम नहीं कर सकता, वह तो प्रधानमंत्री हैं। तमिलनाडु में भाजपा के पास क्या चेहरा है? केरल में क्या चेहरा है, श्रीधरन, जो 85 साल के हो चुके हैं? चुनावों ने साफ कर दिया है कि विविधता में एकता का सबक भाजपा को सीखना ही पड़ेगा। हमारे यहां अलग-अलग संस्कृति है, सबको एक धारा में डालना बहुत ही मुश्किल है, ऐसा हो नहीं सकता। जहां केरल में वामपंथियों की जीत की बात है, तो यह चुनाव वाम ने नहीं जीता है। जीत का पूरा श्रेय विजयन के प्रशासन को जाता है। वहां जीत विचारधारा की नहीं, कामकाज की हुई है। बाढ़ आई थी, कोरोना फैला है, इसे जिस तरह से विजयन ने संभाला है, उसे लोगों ने सराहा है। केरल में एक और महत्वपूर्ण बात हुई है कि ईसाई वोट वामपंथियों को गया है। यह वोट हमेशा कांग्रेस की ओर जाता था। इस समुदाय ने भी बेहतर प्रशासन देखकर ही विजयन के पक्ष में वोट किया है। उधर, तमिलनाडु में कमल हासन जैसे अभिनेता चुनाव हार गए हैं। लगता है, तमिलनाडु में फिल्म स्टार की राजनीति का जमाना खत्म हो गया, अब नई राजनीति चलेगी। देखने वाली बात होगी कि स्टालिन के समय किस तरह की राजनीति शुरू होती है। स्टालिन पुरानी द्रविड़ मुद्रा में नहीं हैं। तमिलनाडु में जो हुआ है, वह अपेक्षित ही था, दस साल से अन्नाद्रमुक शासन में थी। जयललिता भी मैदान में नहीं थीं, स्टालिन को फायदा हुआ। बहरहाल, लोगों का ज्यादा ध्यान बंगाल पर लगा रहेगा। जहां ममता बनर्जी के सामने हिंसा का मामला होगा और ‘कट मनी’ का भी। दोनों कमियों को किसी तरह से संभालना पड़ेगा। भाजपा अब बड़ी विपक्षी है, तीन से 75 सीट पर आ गई है, लेफ्ट और कांग्रेस साफ है। ममता बनर्जी के सामने चुनौती अब पहले से बड़ी है। उन्हें केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा बनाने के साथ ही शासन अच्छे से चलाकर दिखाना होगा। 

    (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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