पार्थ मुखोपाध्याय, सीनियर फेलो, सीपीआर
एक भीड़-भाड़ वाले चिड़ियाघर में एक मजबूत कद-काठी का इंसान शेरों को देखने की कोशिश में था। तभी एक अन्य शख्स की कोहनी उसे जा लगी, जो खुद शेरों को अच्छी तरह से देखना चाहता था। नाराज होकर पहले व्यक्ति ने दूसरे शख्स को शेर के बाड़े में फेंक दिया, और कहने लगा- अब तुम बहुत करीब से शेर देख सकोगे। 45 साल से कम उम्र के लोगों के लिए टीकाकरण शुरू करके टीके की तरफ रुझान बढ़ाने की नीति भी कुछ इसी तरह की तनातनी बढ़ाती दिख रही है; वह भी उस समय, जब टीके की आपूर्ति कम हो रही है। इससे राज्यों में प्रतिस्पद्र्धा बढे़गी और कंपनियां दाम बढ़ाएंगी। सभी के लिए टीकाकरण को लेकर राज्य उत्सुक नहीं हैं, क्योंकि रोजाना 30 लाख खुराक की आपूर्ति भी नहीं हो रही है। केंद्र उनकी मांग मानने को लेकर लापरवाह है और पिछली नीति को बदलकर एक नई ‘उदारीकृत’ योजना बनाने को लेकर संवेदनहीन। किसी भी वैक्सीन-पॉलिसी में जल्द से जल्द और हरसंभव आपूर्ति बढ़ाने की दरकार होती है। कम कीमत पर टीके की खरीदारी, मध्यम अवधि की योजना और प्रभावी ढंग से टीके का बंटवारा अभी व भविष्य में भी जीवन बचाने में सक्षम है। मगर मौजूदा नीति ऐसा करने में कारगर नहीं है।
हम टीके को उसी तरह से खरीद रहे हैं, जैसे महीने के राशन का सामान। वित्त मंत्री ने कहा था कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और भारत बायोटेक को क्रमश: 3,000 करोड़ और 1,567 करोड़ रुपये एडवांस दिए जाएंगे। इसके बजाय, उन्हें लगभग आधा भुगतान किया जा रहा है, जिसके तहत 16 करोड़ खुराक की आपूर्ति 157 रुपये प्रति टीके की दर पर हुई। यदि लक्ष्य 50 लाख खुराक प्रतिदिन है, तो यह सिर्फ एक महीने की आपूर्ति है। इसका अर्थ है कि केंद्र सिर्फ 45 से अधिक उम्र की आबादी के टीकाकरण में मदद करेगा, बाकी की आपूर्ति संभवत: अन्य कंपनियों से पूरी की जाएगी और बाकी का टीकाकरण राज्यों का काम है। ऐसे में, भविष्य की किसी उम्मीद के बिना टीका बनाने वाली कंपनियां क्या आपूर्ति बढ़ाने को लेकर निवेश करेंगी? फिलहाल, स्पूतनिक-वी को मंजूरी मिल गई है और उससे कुछ लाख खुराक का आयात किया जाएगा। कहा जा रहा है कि छह कंपनियां टीके देने को तैयार हैं, लेकिन अभी इस बाबत आदेश का इंतजार है। जॉनसन और नोवावैक्स को अभी तक मंजूरी नहीं मिली है। दोनों ने भारतीय साझीदार खोज लिए हैं और उम्मीद है कि वे मौजूदा जरूरत के मुताबिक केंद्र सरकार के बजाय सूबे की सरकारों से बातचीत करें। कोवैक्सीन की आपूर्ति भी अन्य कंपनियों से आउटसोर्सिंग करके बढ़ाई जा सकती है, खासकर तब, जब बौद्धिक संपदा अधिकार को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के साथ साझा किया जाएगा। हमें नकली धींगामुश्ती को रोकना होगा। किसी भी अन्य देश में ऐसी प्रांतीय सरकारें नहीं हैं, जो टीका खरीदने के लिए प्रतिस्पद्र्धा कर रही हों। केंद्र सरकार को प्रत्येक टीके के दाम पर बातचीत करनी चाहिए, साथ-साथ उसके आयात की तारीख, अनुमोदन आदि पर भी उसे कदम बढ़ाना चाहिए। अगर राष्ट्रीय स्तर पर आदेश मिलता है, तो टीका निर्माताओं को न सिर्फ आवश्यक आश्वासन मिलेगा, बल्कि डेढ़ अरब टीके की खुराक की मांग की आपूर्ति को लेकर उनमें भरोसा भी पैदा होगा। ऐसा करने से कंपनियां हमारी अन्य अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने को लेकर प्रेरित होंगी, विशेष रूप से कोवैक्स को लेकर, जहां आपूर्ति में हमारी गड़बड़ी के कारण अधिकांश विकासशील राष्ट्र अधर में लटक गए हैं। ऐसे में, चीनी कंपनी को पैठ बनाने का मौका मिल रहा है।
दूसरा मसला कीमत का है। नई वैक्सीन नीति राज्यों को दंडित करने के लिए बनाई गई प्रतीत होती है। अपेक्षाकृत विवेकशील ‘पूर्व-उदारीकरण’ नीति में, वैक्सीन की लागत केंद्र उठा रहा था। इसके लिए उसने 35,000 करोड़ रुपये का बजट रखा। और टीकाकरण की लागत राज्यों द्वारा वहन की जानी थी। राज्यों को नि:शुल्क टीके मुहैया कराने की दैनिक प्रेस विज्ञप्ति मानो खैरात बांटने की जानकारी हो। यह संघीय लागत-साझाकरण की भावना के खिलाफ है। नई वैक्सीन नीति के तहत, केंद्र आपूर्ति का आधा हिस्सा खरीदेगा। एक चौथाई टीके राज्यों के लिए हैं, जो केंद्रीय कोटे के अनुसार साझे किए जाएंगे, और एक चौथाई वैक्सीन निजी क्षेत्र को मिलेगी, जो कोवैक्सीन के मामले में दोगुना से तीगुना कीमत चुका रहा है। अगर सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक सामान्य निजी कंपनियों की तरह व्यवहार करती हैं, तो वे पहले ऊंची कीमत देने वाले निजी क्षेत्र की मांग पूरी करेंगी, और फिर यदि बचेगा, तब राज्यों को आपूर्ति की जाएगी। यानी, नौजवानों को लगाने के लिए राज्यों को अब कम टीके उपलब्ध होंगे और उन्हें कीमत भी ज्यादा चुकानी होगी।
तीसरा, यदि केंद्र टीका बनाने वालों के साथ मूल्य और खुराक को लेकर बातचीत करता है, तो आपूर्ति की मौजूदा नीति के तहत पारदर्शी व्यवस्था बनाई जा सकती है। जो राज्य अधिक टीकाकरण करते हैं, उन्हें अतिरिक्त टीके दिए जा सकते हैं, जबकि जिन राज्यों की जरूरत कम है, उन्हें उसी अनुपात में आपूर्ति की जा सकती है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में भी इसी तरह का लचीला रुख अपनाया गया है। यदि राज्य कर-बंटवारे पर सहमत हो सकते हैं, तो फिर टीके साझा करने पर भी वे एक राय बना ही सकते हैं। बेहतर पूर्वानुमानित आपूर्ति राज्यों को इंतजार करने के बजाय बेहतर योजना बनाने और टीकों की तरफ लोगों की रुझान बढ़ाने और तेज टीकाकरण की तरफ आगे बढ़ने को प्रेरित करेगी। इस तरह की संशोधित नीति से ही साल के अंत तक टीका लेने योग्य पूरी आबादी का टीकाकरण संभव हो सकता है, और यदि कंपनियां जल्द ही उत्पादन के लिए निवेश करती हैं, तो हम निर्यात भी कर सकते हैं। तो क्या केंद्र और राज्य सरकारें अपना-अपना रुख बनाए रखेंगी या एक समझदारी भरी वैक्सीन नीति बनाने के लिए मिलकर फैसले करेंगी? अतीत में इस तरह के मनमुटाव ने अमूमन आजीविका को नुकसान पहुंचाया है। मगर इस बार भारतीयों और दुनिया भर के लोगों का जीवन प्रभावित हो रहा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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