सही है कि समूचे देश में महामारी की जो चिंताजनक स्थिति है, उसमें इस पर काबू पाने के लिए जरूरी इंतजाम करना सरकार की प्राथमिकता है। इसके लिए अलग-अलग राज्यों में लागू पूर्णबंदी का मतलब सार्वजनिक गतिविधियों को कम करना है, ताकि संक्रमण पर काबू पाया जा सके। लेकिन क्या इस क्रम में पुलिस और प्रशासन को यह भी अधिकार दे दिया गया है कि वे आम नागरिकों के खिलाफ जैसे चाहें हिंसक तरीके से पेश आएं?
देश के अलग-अलग राज्यों से जिस तरह की खबरें वीडियो सहित आ रही हैं, उनसे तो यही लगता है कि पुलिस और प्रशासन से जुड़े कर्मियों और अधिकारियों ने पूर्णबंदी लागू करने के निर्देशों को अपने अधिकारों के बेलगाम प्रयोग का मौका मान लिया है। वरना क्या वजह है कि एक युवक दवा लाने घर से बाहर निकलता है और उसे जिलाधिकारी जैसे जिम्मेदार पद पर काम करने वाला व्यक्ति बिना किसी उचित आधार के न केवल खुद थप्पड़ मारता है, बल्कि पुलिसकर्मियों से उसे पिटवाता है? इस तरह के व्यवहार को सरकारी सेवकों के आचरण की किस परिभाषा के तहत देखा जाएगा?
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ के सूरजपुर इलाके में जिलाधिकारी के ऐसे बर्ताव का वीडियो जब वायरल हुआ तब राज्य के मुख्यमंत्री ने उसके खिलाफ कार्रवाई की। लेकिन विडंबना है कि इस तरह की औपचारिक कार्रवाइयां भी निचले से लेकर उच्च पदों पर बैठे सरकारी सेवकों के व्यवहार को मानवीय और मर्यादित नहीं बना पा रही है। छत्तीसगढ़ की घटना के समांतर राजस्थान के बारां जिले में जिलाधिकारी ने एक कोरोना योद्धा को थप्पड़ मारा। मध्य प्रदेश के शाजापुर में एक महिला प्रशासनिक अधिकारी ने भी एक युवक के साथ ऐसा ही बर्ताव किया। जब उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों का यह तौर-तरीका है तो ड्यूटी पर तैनात निचले स्तर के कर्मचारियों या फिर पुलिसकर्मियों के व्यवहार का अंदाजा भर लगाया जा सकता है।
उत्तर प्रदेश के उन्नाव में सत्रह साल के एक युवक को कुछ पुलिसकर्मियों ने इसलिए पीट-पीट कर मार डाला कि वह पूर्णबंदी के दौरान अपने घर के सामने ठेले पर सब्जी बेच रहा था। देश के अन्य हिस्सों से भी ऐसे वीडियो सामने आए हैं, जिनमें पुलिसकर्मी सब्जी बेचने वालों का ठेला उलटते या उन्हें मारते-पीटते दिख रहे हैं। बंगलुरु में कोई लक्षण नहीं होने के बावजूद जबरन कोरोना जांच कराने के लिए एक युवक को ड्यूटी पर तैनात स्वास्थ्यकर्मियों ने बुरी तरह मारा-पीटा।
सवाल है कि पूर्णबंदी के दौरान ड्यटी पर तैनात कुछ उच्चाधिकारियों, पुलिसकर्मियों या स्वास्थ्यकर्मियों का जैसा व्यवहार सामने आ रहा है, क्या ऐसा करने का दबाव सरकार की ओर से है? सरकार सुर्खियों में आए ऐसे मामलों में आधे-अधूरे तरीके से कार्रवाई करती है, लेकिन जो घटनाएं प्रकाश में नहीं आ पातीं, वे दमन का हथियार बनती हैं। सही है कि पूर्णबंदी के दौरान लोगों को गैरजरूरी काम से बाहर निकलने पर मनाही है। आमतौर पर लोग ऐसा कर भी रहे हैं, क्योंकि संक्रमण का डर सबके भीतर है।
ऐसे में क्या पुलिस-प्रशासन को खुद ही यह नहीं समझना चाहिए कि जब सब कुछ बंद है तो बाहर निकला व्यक्ति किसी बेहद जरूरी काम से ही निकला होगा? दवा, किराने का सामान और सब्जियां अनिवार्य वस्तुओं की श्रेणी में आती हैं। लेकिन ऐसी चीजें खरीदने-बेचने वालों के खिलाफ इस तरह की बेरहमी कैसे उचित है? पूर्णबंदी की वजह से पहले ही करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी चली गई है। ऐसे में क्या सरकार और पुलिस-प्रशासन को अपना व्यवहार और नजरिया मानावीय बनाने की जरूरत नहीं है? महामारी के खिलाफ जो भी लड़ाई चल रही है, क्या उसका मकसद आम लोगों की जिंदगी बचाना नहीं है?
सौजन्य - जनसत्ता।
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