राजीव डोगरा, पूर्व राजदूत
मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के नेतृत्व में तालिबानी प्रतिनिधिमंडल से चीन के विदेश मंत्री वांग यी की मुलाकात चिंतित करने वाली है। तालिबानी नेताओं को दिए गए इस सम्मान के कई निहितार्थ हैं। इससे यह तो साफ हो गया है कि अमेरिका की वापसी के बाद चीन अफगानिस्तान में अपनी दखल बढ़ाने को लेकर गंभीर है। इससे उसके कई स्वार्थ पूरे होंगे। जैसे, अफगानिस्तान में मौजूद तांबा, कोयला, गैस, तेल आदि के अप्रयुक्त भंडारों तक वह अपनी पहुंच बना सकेगा। कुछ तेल क्षेत्रों के अलावा तांबे की एक बड़ी खदान वह पहले ही हासिल कर चुका है। फिर, जिन उइगर अलगाववादियों को वह अपना दुश्मन मानता है, उनके संगठन ‘पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ (ईटीआईएम) पर भी वह नकेल कस सकेगा। ईटीआईएम का चीन के शिनजियांग प्रांत में खासा असर है। दिक्कत यह है कि चीन का यह स्वार्थ बाकी दुनिया पर भारी पड़ सकता है। इस गठजोड़ का असर कई रूपों में विश्व व्यवस्था पर दिख सकता है।
चीन-तालिबान दोस्ती क्यों खतरनाक है, इसे जानने से पहले हमें चीन की फितरत समझनी होगी। चीन एको अहं, द्वितीयो नास्ति यानी सिर्फ मैं ही मैं सर्वत्र, दूसरा कोई नहीं की नीति पर चलता है। अपने मकसद को पूरा करना उसकी प्राथमिकता है। अगर कहीं भी उसे अपना हित सधता हुआ दिखे, तो वह न कोई कायदा-कानून मानता है, और ही न कोई व्यवस्था। 1980 के दशक से ऐसा ही होता आया है। मिसाल के तौर पर, पाकिस्तान आज बेशक अपने परमाणु एवं मिसाइल कार्यक्रम या सैटेलाइट तकनीक पर इतराए, लेकिन यह जगजाहिर है कि ये सारी सुविधाएं उसे चीन ने ही मुहैया कराई हैं, जबकि ऐसा करना अंतरराष्ट्रीय कानूनों के खिलाफ है और विश्व बिरादरी इसे गंभीर अपराध मानती है। फिर भी, चीन की सेहत पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा। उसने खुद तकनीक एवं प्रौद्योगिकी पश्चिमी देशों से चुराईं और आज उन्हीं को आंखें दिखा रहा है।
दक्षिण चीन सागर पर तो वह पूरी दुनिया से लड़ने-भिड़ने को तैयार है, जबकि श्रीलंका, बांग्लादेश जैसे कई देशों को अपने कर्ज के जाल में फंसाकर उन पर परोक्ष रूप से दबाव बना चुका है। इन्हीं उदाहरणों की अगली कड़ी है, प्रतिबंधित गुट तालिबान के साथ उसकी नजदीकी। चीन इसको अपने लिए फायदे का सौदा मान रहा होगा, मगर इसकी कीमत पूरी दुनिया को चुकानी पड़ सकती है।
तालिबान का चरित्र किसी से छिपा नहीं है। संयुक्त राष्ट्र इसे एक प्रतिबंधित समूह मानता है। तालिबानी प्रवक्ता ने भले ही अफगानिस्तान के विकास-कार्यों के लिए वैश्विक समर्थन जुटाने की बात कही है, लेकिन अभी जिन इलाकों पर इसका कब्जा है, वहां विकास का पहिया फिर से रोक दिया गया है। स्कूलों को बंद कर दिया गया है और मानवाधिकारों का जमकर हनन हो रहा है। वहां विरोध करने वाली आवाजें खामोश की जा रही हैं। हकीकत बयान करने वाले पत्रकारों तक तो नहीं बख्शा जा रहा। खबर यह भी है कि पिछले दिनों जिस भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की हिंसक संघर्ष में फंसने की वजह से मौत की बात कही जा रही थी, तालिबान ने उनकी पहचान करने के बाद बड़ी ‘क्रूरता से हत्या’ कर दी थी। ऐसे बर्बर गुट को चीन यूं ही शह नहीं दे रहा।
साल 2013 में शी जिनपिंग के राष्ट्रपति बनने के बाद से चीन का रवैया खासा आक्रामक हो गया है। घरेलू स्तर पर ‘एक देश, दो व्यवस्था’ नीति को खारिज करते हुए उसने ‘वन चाइना पॉलिसी’ अपनाई और हांगकांग की स्वायत्तता खत्म कर दी, तो ताइवान को वह लगातार आंखें दिखा रहा है। ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ से वह करीब 70 देशों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में निवेश की राह पर है। उसकी मंशा पूरे एशिया क्षेत्र पर प्रभुत्व जमाने और अमेरिका की बराबरी करते हुए वैश्विक नेता बनने की है। चूंकि सैन्य ताकत और औद्योगिक उत्पादन के मामले में वह खासा असरदार है, इसलिए वह पूरी विश्व व्यवस्था को आंखें दिखाता रहता है। लेकिन इसी गुमान में वह कई देशों से विवाद भी मोल ले चुका है। चीन जानता है कि अफगानिस्तान में यदि वह प्रभाव जमा सका, तो उसे आर्थिक फायदा हो सकता है, जिससे ‘सुपर पावर’ बनने की उसकी राह आसान होगी, इसीलिए वह तालिबान को शह दे रहा है।
चीन और तालिबान के बीच बढ़ती नजदीकी किस करवट बैठेगी, यह तो आने वाला वक्त बताएगा, लेकिन यह हमारे लिए खतरा पैदा कर सकती है। चूंकि पाकिस्तान पहले से तालिबानी लड़ाकों का मददगार है, ऐसे में यदि चीन का साथ भी उनको मिल गया, तो ये लड़ाके और बर्बर हो सकते हैं। अभी तक तो अफगानिस्तान के महत्वपूर्ण इलाकों पर अफगान सुरक्षा बलों का नियंत्रण है, लेकिन चीन की शह तालिबानी लड़ाकों को उन इलाकों पर भी कब्जा करने के लिए उत्साहित करेगी। इससे अफगानिस्तान में किए गए भारतीय निवेश प्रभावित हो सकते हैं। फिर, अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट के आतंकी तालिबान की मदद करने के लिए अफगानिस्तान आ रहे हैं। दहशतगर्द समूहों का यह गठजोड़ अफगानिस्तान के पड़ोस के लिए ही नहीं, दुनिया के सभी अमनपसंद देशों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। ऐसे लड़ाकों को पाकिस्तान और चीन की दुरभिसंधि भारत के खिलाफ हमले के लिए उकसाएगी। यह गठजोड़ हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए काफी खतरनाक साबित होगा। इसे किस तरह रोका जाए? इसका फिलहाल कोई रास्ता नहीं दिख रहा। एक अंधेरी सुरंग है, जिसका दूसरा छोर सामने नहीं है। यदि कोई शक्तिशाली देश अंतरराष्ट्रीय नियमों की अवहेलना करे, तो उस पर बंदिश शायद ही कारगर होती है। कोई डर या खौफ उस देश को सही रास्ते पर नहीं ला सकता। चीन अब इतना मजबूत बन गया है कि उसे डराकर या धमकाकर कोई काम नहीं करवाया जा सकता। ऐसे में, बातचीत ही एकमात्र रास्ता है। मगर कोरोना वायरस की उत्पत्ति की जांच में बीजिंग ने जो बेशर्मी दिखाई है, उससे नहीं लगता कि वह फिलहाल समझने को तैयार है। लिहाजा, जब तक उसे खुद चोट नहीं लगेगी, वह नहीं संभलेगा। वैश्विक ताकत बनने का नशा उस पर इतना हावी हो चुका है कि उसे सही और गलत का बोध नहीं। इसलिए हमें अपनी सुरक्षा के लिए लीक से हटकर सोचना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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