ईंधन कीमतों में हो सुधार (बिजनेस स्टैंडर्ड)

केंद्र सरकार द्वारा एयर इंडिया के संपूर्ण निजीकरण को मंजूरी दिए जाने से इस बात की आशा काफी बढ़ गई कि भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल) का विनिवेश भी प्रभावी ढंग से और योजना के मुताबिक इस वित्त वर्ष के समाप्त होने के पहले हो जाएगा। इसके बावजूद ईंधन अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के व्यापक प्रश्न हैं जिन्हें फिलहाल पूछा जाना चाहिए। सबसे बड़ा सवाल पेट्रोल, डीजल और तरल पेट्रोलियम गैस अथवा एलपीजी की कीमतों के प्रबंधन से जुड़ा है। तथ्य यह है कि हाल केे वर्षों में जहां इन कीमतों को तकनीकी तौर पर नियंत्रण मुक्त किया गया है, वहीं इसी अवधि में राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मौकों मसलन अहम विधानसभा चुनाव आदि के समय कीमतों में बदलाव को स्थगित भी रखा गया। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि तीन सरकारी तेल विपणन कंपनियों को पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को लेकर केंद्र सरकार से निर्देश मिलते हैं। यद्यपि कीमतों पर नियंत्रण की व्यवस्था पहले ही समाप्त हो चुकी है और कंपनियां पंप पर अपने स्तर पर कीमत तय करती हैं।

एक तथ्य यह भी है कि बीपीसीएल के लिए सफल बोली लगाने वाला बोलीकर्ता अधिकतम मुनाफे के हिसाब से कीमत तय करना चाहेगा और उसका यह सोचना सही होगा कि सरकारी नीतियां ईंधन के व्यापक बाजार को दो सरकारी तेल विपणन कंपनियों की ओर सीमित नहीं करेंगी। फिलहाल कच्चे तेल की कीमतों में वैश्विक तेजी और उच्च घरेलू करों के कारण 'अंडर रिकवरी' (पेट्रोलियम पदार्थों की बिक्री पर होने वाला नुकसान) दोबारा पैदा हो गई है। तेल विपणन कंपनियों को न केवल प्रति लीटर बिकने वाले पेट्रोल और डीजल पर अंडर रिकवरी का प्रबंधन करना पड़ रहा है बल्कि उन्हें खुदरा बाजार में बिकने वाले हर गैस सिलिंडर पर भी 100 रुपये का नुकसान सहन करना पड़ रहा है। यह व्यवस्था बीपीसीएल के विनिवेश के बाद जारी नहीं रहने दी जा सकती। यदि मुनाफे की चाह में बीपीसीएल प्रति लीटर कीमत को वाणिज्यिक हकीकतों के अनुरूप रखती है तो उसे सरकारी कंपनियों के समक्ष मुश्किल का सामना करना होगा क्योंकि वे कीमत के मामले में सरकार से निर्देश लेंगी जिससे जाहिर तौर पर बाजार में अस्थिरता आएगी। एलपीजी का बाजार और भी दिक्कतदेह है क्योंकि सरकार का जोर कीमतों को तयशुदा स्तर पर रखने पर है। सरकार को अभी सरकारी तेल विपणन कंपनियों को वह राशि भी लौटानी है जो उन्होंने प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत गंवाई। यह राशि करीब 3,000-4,000 करोड़ रुपये है।


सच यह है कि एक ओर तो सरकार ने कीमत पर नियंत्रण के कुछ तत्त्व बरकरार रखने का प्रयास किया है तो वहीं दूसरी ओर उसने ईंधन कर के माध्यम से राजस्व की कमी की भरपाई करने का भी प्रयास किया है। इसमें दो राय नहीं कि कार्बन पर उच्च कर लगाना अच्छी बात है लेकिन इसे तार्किक होना चाहिए तथा समूची अर्थव्यवस्था पर प्रभावी होना चाहिए। इसे केवल राजकोषीय वजहों से लगाना उचित नहीं। प्रभावी ढंग से देखें तो सरकार ने केवल उपभोक्ताओं को नहीं बल्कि राजनीतिक वजहों से मध्यवर्ती कंपनियों का भी दोहन किया है। ईंधन कीमतों को तार्किक बनाना काफी समय से लंबित है। यह कैसे होगा इसके बारे में पहले से पर्याप्त जानकारी है: वैश्विक ईंधन कीमतों का उपभोक्ताओं तक सीधा पारेषण होने दिया जाए, तेल विपणन कंपनियां बहुत कम मार्जिन पर प्रतिस्पर्धा करें, एक निरंतरता भरा ईंधन कर हो जिसमें कार्बन की कीमत शामिल हो और जिसे केंद्र और राज्य साझा करें, तथा पेट्रोल, डीजल और एलपीजी की ऊंची कीमतों से सर्वाधिक प्रभावित वर्ग के लिए केंद्रीय बजट से परे प्रत्यक्ष सब्सिडी की व्यवस्था हो। बीपीसीएल का विनिवेश इन दीर्घकाल से लंबित कर और कीमत सुधार को प्रस्तुत करने का सही अवसर है।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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