पूर्वी पड़ोस में नफरत की बयार ( हिन्दुस्तान)

सुशांत सरीन, सीनियर फेलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन 

 

एक धर्मग्रंथ के कथित अपमान के बाद बांग्लादेश के चटगांव डिविजन के कमिला से शुरू हुई सांप्रदायिक हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही। दुर्गा पूजा के पंडालों के बाद अब हिंदू धर्मावलंबियों के घरों को भी निशाना बनाया जाने लगा है। बांग्लादेश की हुकूमत मामले की जल्द जांच कराने और दोषियों को सख्त सजा देने का वायदा लगातार कर रही है। मगर ऐसी बातें बहुत ज्यादा भरोसा नहीं पैदा कर पा रहीं, क्योंकि बांग्लादेश का मूल चरित्र इसकी मुखालफत करता है।



दरअसल, बांग्लादेश की राजनीति का एक अहम तत्व है, अकलियतों को निशाने पर लेना। 1947 के बाद से वहां (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) अल्पसंख्यकों का एक तरह से धीमे-धीमे कत्लेआम किया गया है। 1951 की जनगणना में पाकिस्तान के इस हिस्से में हिंदुओं की आबादी लगभग 22 फीसदी थी, लेकिन अब बांग्लादेश की कुल आबादी में उनकी हिस्सेदारी घटकर करीब 8.5 प्रतिशत हो गई है। अगर वहां अल्पसंख्यक महफूज होते, तो उनकी आबादी का प्रतिशत या तो बाकी जनसंख्या के साथ बढ़ता या फिर उसमें कमी आती भी, तो वह बहुत मामूली होती। मगर पिछले सात दशकों का दमन ही है कि वहां के अल्पसंख्यक जलावतन को मजबूर हैं। आलम यह है कि अकलियतों को निशाना बनाया जा रहा है, उनकी संपत्ति हथियाई जा रही है और उन पर तमाम तरह के जुल्म ढाए जा रहे हैं। तरक्की और जनसंख्या को काबू में रखने के बांग्लादेश के दावे के पीछे भी यही गणित है। अगर अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग 15 फीसदी कम हो जाए, तो कुल जनसंख्या का प्रतिशत खुद-ब-खुद काफी अच्छा हो जाएगा। मगर मुश्किल यह है कि राजनीतिक, कूटनीतिक, या सियासी अवसरवादिता के कारण न तो स्थानीय स्तर पर और न वैश्विक मंचों पर इसके खिलाफ आवाज उठाई जाती है। 

बांग्लादेश जब पाकिस्तान का हिस्सा था, तब वहां के पंजाबी और पठान अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते थे। पिछली सदी के 70 के दशक के मुक्ति युद्ध के बाद जब एक आजाद मुल्क के तौर पर बांग्लादेश उभरा, तब भी यह सिलसिला थमा नहीं और मुस्लिम बहुल बंगाली ऐसी हिमाकत करने लगे। यह स्थिति तब थी, जब भारत ने उसकी आजादी में निर्णायक भूमिका निभाई थी। वहां अक्सर बड़े पैमाने पर दंगे होते हैं। अल्पसंख्यकों को न पुलिस से कोई सुरक्षा मिलती है, न सरकार से और न ही अदालत से। पंजाबी और पठानों की तरह मुस्लिम बहुल बंगाली भी जमात-ए-इस्लामी व अन्य इस्लामी तंजीमों की मदद से अल्पसंख्यकों को नुकसान पहुंचाते रहे हैं। लिहाजा, कमिला तो सिर्फ एक बहाना है। वहां असल मकसद अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाना था। इसीलिए, धर्मग्रंथ की बेअदबी की कथित घटना को प्रचारित किया गया। 

इन्हीं सब वजहों से इस मुल्क ने बार-बार पलायन का सैलाब देखा है। वहां की जम्हूरी हुकूमत तो कभी-कभी अराजक तत्वों के खिलाफ काम करती हुई दिखती भी है, मगर जब वहां सैन्य शासक सत्ता सभालते हैं या इस्लाम-पसंद तंजीमों के हाथों में सत्ता-संचालन का काम आता है, तब हालात और ज्यादा खराब हो जाते हैं। अवामी लीग के साथ अच्छी बात यह रही है कि हिंदुओं के अपने पारंपरिक वोट बैंक को बनाए रखने के लिए यह कभी-कभी धार्मिक कट्टरता ओढ़े गुटों पर कार्रवाई करती दिखती है। हालांकि, खुद पार्टी के अंदर ऐसे तत्व सक्रिय रहे हैं, जो जमकर गुंडागर्दी करते थे, और सियासी मजबूरियों के चलते पार्टी आलाकमान को भी चुप्पी साधनी पड़ती है। आज भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। अपनी बहुसंख्यक आबादी को तुष्ट करने के लिए सरकार कई तरह के काम कर रही है। प्रधानमंत्री शेख हसीना के पास भारत पर उंगली उठाने की वजहें तो हैं, पर वह अपने गिरेबान में झांकना पसंद नहीं कर रहीं। संभवत: इसकी वजह बांग्लादेश का एक इस्लामी राष्ट्र होना है। शेख हसीना ने इस्लामी तंजीमों के खिलाफ कुछ कदम उठाए हैं, तो इसलिए नहीं कि वे अकलियतों को निशाना बनाती हैं, बल्कि इसलिए, क्योंकि इन तंजीमों का उभार उनकी अपनी राजनीति के मुफीद नहीं है। इसका लाभ भी उनको मिला है। न सिर्फ मुल्क के अंदर अमनपसंद लोगों ने, बल्कि भारत जैसे देशों ने भी उन पर भरोसा किया है।

हालांकि, 2019 में जब भारत में नागरिकता संशोधन कानून बना और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की बहस तेज हुई, तब बांग्लादेश का रवैया हौसला बढ़ाने वाला नहीं था। यह कानून पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के उन अल्पसंख्यक शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने की वकालत करता है, जो किसी न किसी कारण से अपनी मूल भूमि से भागकर यहां आए हैं। इसके अलावा, गैर-कानूनी रूप से यहां रहने वाले शरणार्थियों को वापस अपने मुल्क भेजने की जरूरत पर भी बल देता है। जाहिर है, इससे आर्थिक शरणार्थी बनकर आए उन लाखों-करोड़ों मुसलमानों को वापस लौटना होगा, जो रोजगार की तलाश में यहां हैं। बांग्लादेश इसी के खिलाफ है और इसके कारण दोनों देशों के रिश्तों में हाल के समय में खटास भी आई है।

ऐसे में, अच्छा तो यही होगा कि भारत सीएए और एनआरसी पर आगे बढ़े, ताकि बांग्लादेश में निशाना बनाए जा रहे हिंदू, बौद्ध जैसे अल्पसंख्यकों को राहत मिल सके। हालांकि, सीएए में 31 दिसंबर, 2014 तक की समय-सीमा मुकर्रर की गई है, यानी इसमें 2014 की 31 दिसंबर से पहले आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने की व्यवस्था है। तो क्या यह मान लिया जाए कि 2015 के बाद वहां अल्पसंख्यकों का दमन नहीं हुआ है? लिहाजा, सीएए में संशोधन की सख्त दरकार है।

चूंकि हमारी यह नीति है कि हम दूसरे देश के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देते, इसलिए हमारा दूसरा कदम यह हो सकता है कि हम गैर-कानूनी रूप से यहां मौजूद शरणार्थियों को जल्द से जल्द वापस भेज दें। बांग्लादेश से आने वाली आबादी को नियंत्रित करना इसलिए भी आसान है, क्योंकि वे बीच-बीच में सीमा पार जाकर अपने परिजनों से मिलते रहते हैं। हमारी हुकूमत चाहे, तो उनकी पहचान करके उन्हें फिर से भारत की सीमा में दाखिल होने से रोक सकती है। यह काम अविलंब करना होगा, क्योंकि गैर-कानूनी रूप से यहां मौजूद शरणार्थियों का बुरा असर हमारे पूर्वोत्तर के राज्यों पर भी पड़ता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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