वनिता कोहली-खांडेकर
रिची मेहता की 'डेल्ही क्राइम' दिलचस्प मगर तकलीफदेह सीरीज है जो चर्चित निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड की जांच पर आधारित है। पिछले हफ्ते यह इंटरनैशनल एमी का सर्वश्रेष्ठ ड्रामा सीरीज अवॉर्ड जीतने वाली भारतीय सीरीज बनी। मगर इसका जश्न फीका ही रहा। ऑनलाइन सामग्री पर नियामकीय बंदिश न होने से निर्माताओं के पास अत्यधिक रचनात्मक स्वतंत्रता होती है और डेल्ही क्राइम जैसे बेहतरीन शो इसी की देन हैं। ऑनलाइन सामग्री का नियमन होने पर सवाल उठेगा कि ऐसे कार्यक्रम बनाने की आजादी हमें कब तक मिलेगी? अक्टूबर में सर्वोच्च न्यायालय ने ओवर-द-टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म का नियमन किसी स्वायत्त संस्था को सौंपने की मांग करने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार और भारतीय इंटरनेट एवं मोबाइल एसोसिएशन (आईएएमएआई) को नोटिस जारी कर पक्ष रखने को कहा था।
कैबिनेट सचिवालय ने 9 नवंबर को जारी अधिसूचना में कहा था कि डिजिटल एवं ऑनलाइन मीडिया को अब सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के दायरे में लाया जा रहा है। मंत्रालय ने 16 नवंबर को कुछ स्पष्टीकरण जारी करते हुए डिजिटल मीडिया के माध्यम से समाचार एवं सामयिक मुद्दों पर वीडियो अपलोड एवं स्ट्रीम करने वाले प्लेटफॉर्म के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की सीमा घटाकर 26 फीसदी करने की बात कही है। यह स्पष्टीकरण सितंबर 2019 में ऑनलाइन समाचार को प्रिंट मीडिया में एफडीआई मानकों के समकक्ष करने से संबंधित है। इस कदम का फौरी असर हमें हफपोस्ट इंडिया की बंदी के रूप में देखने को मिला है और जल्द ही कई दूसरे डिजिटल प्लेटफॉर्म के साथ भी ऐसा हो सकता है। समाचार प्रसारण में अब भी 49 फीसदी एफडीआई की अनुमति है। फिर प्रस्तावित प्रेस एवं पत्र-पत्रिका पंजीयन विधेयक भी है जिसे प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण अधिनियम 1867 का उत्तराधिकारी बताया जा रहा है। प्रेस अधिनियम को ब्रिटिश सरकार ने भारतीय भाषाओं वाले प्रकाशनों के उत्पीडऩ के लिए पंजीकरण, अनुमति एवं अनियमित प्रक्रियाओं के झमेले में उलझाकर रखने के इरादे से बनाया था। इनका पालन नहीं करने वाली पत्र-पत्रिकाओं पर रातोरात ताला लगाया जा सकता था। अब जिस कानून का मसौदा पेश किया गया है, उसमें डिजिटल समाचार पर भी वही कानून लागू करने की बात की जा रही है। वीडियो स्ट्रीमिंग (नेटफ्लिक्स, हॉटस्टार, एमेजॉन प्राइम वीडियो), समाचार वेबसाइट (द वायर, स्क्रॉल, द क्विंट) और ब्लॉग एवं पॉडकास्ट जैसी ऑनलाइन सामग्री का नियमन करने वाले निकाय का खाका बनाया जा रहा है। इन कदमों से जुड़ी आशंकाएं एवं चिंताएं अचरज में नहीं डालती हैं। भारत में ऐसे हजारों लोग हैं जो कोई सामग्री देखने, सुनने या पढऩे के बाद खुद को पीडि़त महसूस करने लगते हैं। इसीलिए कुछ फिल्मों, वेबसीरीज, टीवी शो या किसी हस्ती पर प्रतिबंध लगाने, बहिष्कार करने, जान से मारने या अपंग कर देने की धमकियां लगभग हर दिन देखने-सुनने को मिलती हैं। लिहाजा स्टूडियो अपने स्तर पर ही सेंसरशिप करने लगे हैं ताकि कोई विवादास्पद सामग्री नहीं डाली जाए। हालांकि कुछ बातों को ध्यान में रखना जरूरी है। हममें से तमाम लोग यह कह सकते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीम होनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है।
पहली, भारतीय संविधान राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक मर्यादा एवं नैतिकता जैसे कुछ अपवादों के साथ इस स्वतंत्रता की गारंटी देता है और सरकारें इन्हीं का सहारा लेकर डिजिटल सामग्री पर नकेल कस सकती हैं। दूसरी बात, डिजिटल सामग्री को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के दायरे में लाना वाजिब भी है क्योंकि यह पहले से ही फिल्म, टीवी, रेडियो, प्रिंट एवं संगीत की निगरानी करता है। तीसरा, अगर यह आपके पढऩे, देखने या उपभोग वाले विषयों को सेंसर करना भी चाहता है तो ऑनलाइन सामग्री इतनी ज्यादा है कि उसका नियमन कर पाना किसी भी सरकार के लिए मुमकिन नहीं है। सिंगापुर, मलेशिया, अमेरिका और ब्रिटेन तक में कोड एवं रेटिंग आधारित तरीका अपनाया जा रहा है। भारत में भी विज्ञापन एवं टीवी प्रसारण जगत में स्व-नियमन संहिता और शिकायत निपटान की व्यवस्था बहुत अच्छी तरह चली है। मंत्रालय एवं मंत्री दोनों ही स्व-नियमन की बात लगातार करते रहे हैं। अब काफी कुछ इस पर निर्भर करता है कि ऑनलाइन सामग्री उद्योग इस दिशा में क्या कदम उठाता है? गत सितंबर में 15 बड़े स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म ने ऑनलाइन क्यूरेटेड सामग्री प्रदाताओं के लिए सार्वभौम स्व-नियमन संहिता पर हस्ताक्षर किए थे। आईएएमएआई की डिजिटल मनोरंजन समिति के प्रमुख तरुण कात्याल कहते हैं कि मंत्रालय को इस संहिता के क्रियान्वयन संबंधी बिंदुओं पर आपत्तियां हैं जिन्हें दूर करने की कोशिश जारी है। स्व-नियमन संहिता पर सरकारी अनुमति की जरूरत पर कात्याल कहते हैं, 'ऑनलाइन सामग्री के खिलाफ दायर तमाम जनहित याचिकाओं में अक्सर सरकार को भी पक्ष बनाया गया है। ऐसे में सरकार को स्व-नियमन संहिता से संतुष्ट होने की जरूरत है।' नियामकीय कदमों के बारे में दो खास बिंदु गौर करने लायक हैं। पहला, किसी भी बड़े टेक-मीडिया प्रकाशक (गूगल, फेसबुक, ट्विटर) का जिक्र नहीं हो रहा है जबकि 22,100 करोड़ रुपये के डिजिटल राजस्व में इनकी हिस्सेदारी 70 फीसदी है। वे समाचार, मनोरंजन और उपयोगकर्ता द्वारा तैयार सामग्री मुहैया कराते हैं लेकिन मसौदा विधेयक या किसी स्व-नियमन प्रयासों में उनका कोई जिक्र नहीं है। दूसरा, इसका समय वास्तव में खराब है। नोटबंदी की वजह से आई आर्थिक सुस्ती ने भारत के 1.82 लाख करोड़ रुपये वाले मीडिया उद्योग को पहले ही एक अंक की वृद्धि में ला दिया था। फिर महामारी ने प्रिंट, फिल्म, रेडियो एवं इवेंट उद्योग की कमर तोड़ दी। बढ़ते घाटे और घटती नौकरियों के बीच इस उद्योग में एक-तिहाई संकुचन होने के आसार हैं। इस स्थिति में नियमन का कोड़ा मारना, पूंजी प्रवाह रोकना या कारोबार करना मुश्किल बनाने से कोई मदद नहीं मिलती है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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