लक्ष्मी विलास बैंक सौदे के संदेश (बिजनेस स्टैंडर्ड)

तमाल बंद्योपाध्याय 

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने हाल ही में लक्ष्मी विलास बैंक (एलवीबी) पर पाबंदी लगाने (मॉरेटोरियम) की घोषणा की। बैंक का कोई भी जमाकर्ता एटीएम से पैसे निकालने के बारे में सोचे, उसके पहले ही आरबीआई ने डीबीएस बैंक सिंगापुर की भारतीय इकाई डीबीएस बैंक इंडिया लिमिटेड (डीबीआईएल) के साथ इस दिवालिया निजी बैंक के विलय की योजना का मसौदा भी जारी कर दिया। केंद्रीय बैंक ने एलवीबी के बोर्ड की जगह एक प्रशासक भी नियुक्त कर दिया। पाबंदी अवधि 30 दिन की है लेकिन इस विलय योजना पर आपत्तियां जताने और सुझाव देने का समय पहले ही खत्म हो चुका है।


करीब 94 साल पहले तमिलनाडु में अमरावती नदी के किनारे गठित लक्ष्मी विलास बैंक के लिए शायद ही कोई व्यक्ति आंसू बहाएगा। लेकिन सौदे की पेशकश करने वाले बैंक के प्रोफाइल एवं इस विलय योजना की रूपरेखा थोड़ी चौंकाती है जिसमें एलवीबी के प्रवर्तकों एवं निवेशकों को एक भी कौड़ी नहीं मिलने वाली है।


यह विलय सौदा साल भर से अधिक समय से विचाराधीन था। सितंबर 2019 में आरबीआई ने एलवीबी को अपने त्वरित सुधारात्मक कदम (पीसीए) के दायरे में रखा था और उसे नए कर्ज बांटने से रोक दिया था।


एलवीबी ने वृद्धि को लेकर अपने जुनून, कॉर्पोरेट ग्राहकों के पीछे भागने और स्थानीय कारोबार एवं व्यापार की वित्तीय जरूरतें पूरा करने की अपनी मौलिक सोच को तिलांजलि देकर खुद ही अपनी कब्र खोदी है। इसका एक चौथाई कर्ज फंस चुका है। असल में यह कारोबारी रणनीति की खामी रही है। सही ढंग से कामकाज नहीं चलाना बड़ा मसला रहा है। इसके एक प्रवर्तक चेयरमैन बनने के लिए बेहद लालायित थे लेकिन आरबीआई ने इस वजह से इसकी अनुमति नहीं दी थी कि बैंक के निदेशकों के उलट चेयरमैन पद पर 70 साल की उम्र तक रहा जा सकता है। इसके बावजूद वह प्रवर्तक अधिकांश वाणिज्यिक फैसलों को प्रभावित करने से बाज नहीं आए और बैंक के वरिष्ठ अधिकारियों को बोर्ड की तमाम समितियों का चेयरमैन बनवा दिया।


ऐसी स्थिति में आरबीआई ने इस सौदे को मंजूरी देने में इतना लंबा वक्त क्यों लगाया? दरअसल उसे पहले येस बैंक लिमिटेड में छाई अव्यवस्था को दूर करना था। परिसंपत्तियों के लिहाज से एलवीबी से करीब दस गुना बड़ा येस बैंक पूरी वित्तीय प्रणाली में समस्या पैदा कर सकता था। उसके पहले वर्ष 2018 में भारतीय मूल के कनाडाई अरबपति प्रेम वत्स की फेयरफैक्स इंडिया होल्डिंग्स कॉर्पोरेशन ने सीएसबी बैंक लिमिटेड में 51 फीसदी हिस्सेदारी ली थी। सीएसबी आकार में एलवीबी से छोटा बैंक है।


यह किसी विदेशी कंपनी द्वारा एक भारतीय बैंक में बहुलांश हिस्सेदारी खरीदे जाने का पहला मामला था। मौजूदा मानकों के तहत विदेशी निवेशक एक निजी बैंक में 74 फीसदी तक की हिस्सेदारी ले सकते हैं लेकिन किसी एकल इकाई को 5 फीसदी तक ही शेयर दिए जा सकते हैं। इस सीमा को आरबीआई की मंजूरी से 10 फीसदी तक बढ़ाया जा सकता है।


एलवीबी का विलय जिस डीबीआईएल में हुआ है वह कोई विदेशी बैंक न होकर डीबीएस की भारतीय अनुषंगी है। वर्ष 2006 में तनावग्रस्त यूनाइटेड वेस्टर्न बैंक के लिए स्टैंडर्ड चार्टर्ड और सिटीबैंक एनए दोनों ने ही दावा पेश किया था लेकिन किसी को भी कामयाबी नहीं मिली थी।


जहां एलवीबी के प्रवर्तक हिस्सा बिक्री के लिए संभावित निवेशकों के साथ चर्चा में व्यस्त थे वहीं आरबीआई दूसरी योजना पर काम कर रहा था। बैंकिंग नियामक ने निजी क्षेत्र के कुछ बैंकों से संपर्क साधा था और डीबीआईएल समेत दो बैंकों ने सीलबंद लिफाफों में अपने प्रस्ताव रखे। डीबीआईएल की पेशकश बेहतर होने के कारण सफलता उसके हाथ लगी।


अगर प्रवर्तकों को बाजार-निर्देशित समाधान मिला होता तो आरबीआई को इस रास्ते पर चलने की जरूरत ही नहीं पड़ती। लेकिन एलवीबी के प्रवर्तक एवं मौजूदा समय के कुछ असरदार निवेशक उद्धारक की अपनी तलाश में अधिक गंभीर नहीं नजर आए। आखिर जमाकर्ताओं के उस पैसे पर से अपना नियंत्रण कौन खोना चाहता है, जिसका इस्तेमाल निजी फायदे के लिए किया जा सकता है?


किसी भी अधिसूचित वाणिज्यिक बैंक को 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद नाकाम नहीं होने दिया गया, भले ही कुछ सहकारी बैंक बैठ गए। बैंक की बैलेंस शीट में जब भी दरारें नजर आईं तो आरबीआई ने उसके इर्दगिर्द सुरक्षा घेरा खड़ा कर दिया और जमाकर्ताओं के हितों को सुरक्षित रखने एवं किसी प्रणालीगत संकट से बचने के एकमात्र उद्देश्य से अमूमन किसी सार्वजनिक बैंक को आवेदक के रूप में तलाश लिया। वर्ष 2004 में किसी भी तरह के एनपीए बोझ से मुक्त ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स ने ग्लोबल ट्रस्ट बैंक का अधिग्रहण किया था। उसके एक दशक पहले 1994 में बैंक ऑफ कराड लिमिटेड को बचाने के लिए बैंक ऑफ इंडिया को चुना गया था। ऐसे कई उदाहरण रहे हैं।


सवाल है कि एलवीबी सौदे से क्या संदेश निकलते हैं? पहला, आरबीआई ने बीमार बैंकों को बचाने से संबंधित अपना नजरिया बदल दिया है। बीमार एवं अक्सर कुप्रबंधन के शिकार निजी बैंकों के जमाकर्ताओं को बचाने के एक साधन के तौर पर अब सार्वजनिक बैंकों का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है।


करदाताओं के पैसे का उतना उत्पादक इस्तेमाल नहीं कर पाने पर रोक लगाने के साथ ही यह सार्वजनिक बैंक के सुरक्षा घेरे में निजी बैंक के कर्मचारियों के स्वचालित प्रवेश के द्वार को भी बंद कर देता है।


दूसरा, एलवीबी सौदा दूसरे विदेशी बैंकों को भी स्थानीय निगमीकरण के लिए प्रोत्साहित करेगा। आरबीआई इन अनुषंगी इकाइयों को घरेलू बैंकों के समकक्ष दर्जा देने को ही तैयार है और डीबीआईएल एवं एलवीबी का सौदा इसकी बानगी है। अभी तक केवल दो बैंकों डीबीएस एवं एसबीएम बैंक मॉरीशस लिमिटेड ने भारत में अपनी अनुषंगी इकाई बनाई है।


तीसरा, यह विलय सौदा ठीक से संचालित नहीं हो रहे बैंकों के प्रवर्तकों एवं असरदार निवेशकों को कायदे से काम करने या फिर बेआबरू होने का कड़ा संदेश भी देता है। एलवीबी के सारे स्वतंत्र निदेशक सही मायनों में स्वतंत्र नहीं थे, उनमें से कुछ निदेशक विगत में निवेशकों के यहां काम कर चुके थे। ऋण आवंटन के अधिकांश फैसले अन्य कारकों से प्रभावित होते थे। कम-से-कम कुछ निवेशकों के पास आधिकारिक तौर पर ज्ञात जानकारी से अधिक हिस्सेदारी रही है। अगर विदेशी कंपनियों के जरिये एलवीबी से कर्ज लेकर बेनामी हिस्सेदारी लेने की बात सामने आती है तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। आरबीआई के वरीय ऋण मानक को पूरा करने के लिए एक निवेशक से खराब परिसंपत्ति खरीदने के एक प्रस्ताव से मैं भी परिचित हूं। बैंक बेंगलूरु में एक गैर-जरूरी आलीशान परिसर का मोटा किराया भी दे रहा था। उस परिसर का स्वामित्व बैंक के एक प्रवर्तक के ही पास था।


क्या डीबीआईएल के लिए यह बेहतरीन सौदा है? इसका जवाब तो वक्त ही देगा। डीबीआईएल को फंसे कर्ज के बड़े ढेर से निपटने की जरूरत है। इसके अलावा रेलिगेयर समूह के साथ 750 करोड़ रुपये के विवादित लेनदेन से जुड़ी अनिश्चितता का भी उसे सामना करना होगा। सकारात्मक स्तर पर देखें तो एलवीबी की करीब 560 शाखाएं (85 फीसदी दक्षिण भारत में) और 17.5 लाख खुदरा ग्राहक हैं। फंसे कर्ज के बड़े हिस्से के लिए वित्तीय इंतजाम किए जा चुके हैं। डीबीआईएल को एलवीबी के 2,901 करोड़ रुपये के पिछले नुकसान को समाहित करने के लिए आयकर लाभ भी मिलेगा। अंत में, उसे केवल कंपनी सचिव एवं मुख्य वित्तीय अधिकारी के रूप में दो अहम प्रबंधकीय कर्मचारी ही पिछले निजाम के रखने होंगे।


भारत में खुदरा कारोबार का सपना देखने वाले विदेशी मूल के किसी भी बैंक को मजबूत शाखा नेटवर्क एवं निष्ठावान ग्राहकों की जरूरत होती है और डीबीआईएल को एलवीबी से यह सब मिल रहा है। डीबीएस इंडिया के सुरजीत शोम को मेरी शुभकामनाएं।


(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक एवं जन स्मॉल फाइनैंस बैंक के वरिष्ठ परामर्शदाता हैं)


सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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