दिनेश मिश्र, जल विशेषज्ञ
चीन द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी पर अपने इलाके में प्रस्तावित कई बांधों के निर्माण की चर्चा जोरों पर है, जिसकी वजह से भारत में चिंता व्यक्त की जा रही है। यह चिंता केवल भारत की नहीं है। इसका असर बांग्लादेश पर भी पड़ने वाला है। ब्रह्मपुत्र को भारतीय परंपरा में, सोनभद्र और सिंधु की तरह नदी नहीं, नद माना जाता है।
इस नद का उद्गम तिब्बत में मानसरोवर ताल के पूरब हिमालय के उत्तरी भाग में आंगसी ग्लेशियर से होता है, जो समुद्र तल से 5,150 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से यह नद पूर्व की ओर बढ़ता है और 3,000 किलोमीटर की यात्रा तय करके ज्ञाला परी और नामचा बरवा घाटी में पहाड़ों के बीच से चक्कर काटता हुआ पश्चिम व दक्षिण-पश्चिम दिशा में मुड़ जाता है और अरुणाचल प्रदेश में पासीघाट के पास भारत में प्रवेश करता है। चीन में यारलंग त्सांगपो नाम से ख्यात यह नद अरुणाचल में प्रवेश के समय सियांग और आगे दिहांग नाम पाता है। यहां पहुंचकर यह कई भागों में बंटकर बहने लगता है, फिर असम में सादिया के पास इसकी सारी धाराएं एक होकर राज्य में प्रवेश करती हैं और इसका नाम ब्रह्मपुत्र हो जाता है। इसके बाद लगभग 800 किलोमीटर पश्चिम दिशा में चलता हुआ धुबरी के पास यह बांग्लादेश में प्रवेश करता है और दक्षिण दिशा में बहता हुआ बंगाल की खाड़ी में मिल जाता है।
इस नद के पूरे रास्ते में बहुत सी जगहें ऐसी हैं, जो समतल हैं, तो कहीं-कहीं इसे पहाड़ियों के बीच से गुजरना पड़ता है। पहाड़ियों से गुजरते समय इस पर बांध बनाने वालों की नजर पड़ती है। चीन में सिंचाई के लिए तो नहीं, मगर बिजली उत्पादन और जल-संचय के लिए इसके पानी की जरूरत पड़ती है। इसमें भी मुख्यत: बिजली उत्पादन के लिए इसमें कई माकूल स्थल हैं। चूंकि उद्गम स्थल पर पानी लगभग पांच किलोमीटर की ऊंचाई से नीचे उतरता है, इसलिए इसके पानी का वेग प्रचंड होता है और ऐसे वेगवान नद से बिजली का उत्पादन भी सहज हो जाता है। पानी के वेग का एक फायदा यह भी होता है कि नद की कटाव क्षमता अधिक होती है और वह अपने प्रवाह के साथ उपजाऊ मिट्टी भी मैदानी इलाकों में फैलाता है। चीन ने वर्ष 2009 में इस नद पर बिजली उत्पादन के लिए जांगमु में बांध बनाने का काम शुरू कर दिया था और पहला 510 मेगावाट क्षमता का बांध साल 2014 में बनकर तैयार भी हो चुका था।
यहां तक तो सब ठीक है, लेकिन चीन इन बांधों की मदद से भारत में आने वाले पानी को अपने जलाशयों में नियंत्रित कर सकता है। इतना ही नहीं, बरसात के समय जब पानी की मात्रा नद में बढ़ जाएगी, तब वह पानी को खुला छोड़ सकता है, जिससे हमारे यहां बाढ़ आ जाए। ये दोनों ही स्थितियां भारत के लिए चिंताजनक हैं। इस तरह का एक बांध तिब्बत की राजधानी के पास काफी पहले बना लिया गया था और अब कुछ नए बांधों का प्रस्ताव है। आजकल जो बांध चर्चा में हैं, उनकी संख्या तीन है और निर्माण नामचा बरवा के प्रति-प्रवाह में दागु, जियाचा और जिसु में होना है, जिनकी प्रस्तावित क्षमता क्रमश: 640 मेगावाट, 320 मेगावाट और 560 मेगावाट बताई जाती है।
इन बांधों का पर्यावरण, पानी की कमी या जल की अधिकता आदि पर क्या असर पडे़गा, यह शोचनीय है, क्योंकि इन सभी प्रस्तावित बांधों से अगर कभी पानी छोड़ दिया जाएगा, तो उस स्थिति का मुकाबला हम किस तरह कर सकेंगे, इसके बारे में अभी से सोचना होगा। कहते हैं कि भारत और चीन के बीच एक समझौता हुआ है, जिसके अनुसार, वह भारत को बरसात के समय नद में आने वाले पानी के बारे में सूचित करता रहेगा। लिहाजा, यह सूचना तंत्र कितना कारगर होगा, इसे भी सुनिश्चित करना होगा। कुछ वर्ष पहले माजुली द्वीप में एकाएक बहुत पानी आ गया था, जिससे निपटने की कोई तैयारी हमारी नहीं थी। नतीजतन, उस साल वहां बहुत तबाही हुई थी। कटाव की वहां और लगभग पूरे ब्रह्मपुत्र की लंबाई में भारी समस्या है, और बांधों के कारण अगर अधिक मात्रा में व अधिक वेग से प्रवाह होगा, तो कटाव व तबाही, दोनों ही बढ़ेंगी। हालांकि, भारत भी अपनी तरफ ब्रह्मपुत्र पर बांध बनाने की सोच रहा है, ताकि चीन की तरफ से अचानक छोडे़ गए पानी के प्रवाह को संभाला जा सके।
यह समस्या कूटनीतिक-राजनीतिक स्तर पर सुलझाई जा सकती है, मगर कुछ समस्याएं, जिन्हें नदी क्षेत्र में रहने वाले लोग हर साल भोगते हैं, उन पर हमें विचार करना चाहिए। अभी भी असम समेत पूर्वोत्तर के राज्यों को हर वर्ष बाढ़ की समस्या झेलनी पड़ती है। हमारे देश में जहां सब कुछ हमारे हाथ में है, वहां नदी के इस पार और उस पार, निचले हिस्से में और ऊपरी हिस्से में, तटबंध के अंदर और बाहर, गांव व शहर में आपसी मतभेद भी कम नहीं हैं। इसे तो हम हल कर सकते हैं या कम से कम इन विपरीत अपेक्षाओं के बारे में सुधार कर सकते हैं। क्या हमने कभी सोचा कि बरसात के समय अगर एक तरफ के लोग अपना अधिक पानी दूसरी तरफ ठेल दें, तो उस स्थिति से कैसे निपटा जाए? नदियों के किनारे बने तटबंध जब टूट जाते हैं और तथाकथित सुरक्षित लोग मुसीबत में फंसते हैं, तब उस स्थिति में जिम्मेदारी को दूसरे पक्ष पर टालने के लिए कितने बहाने बनाए जाते हैं। हमारी सारी ताकत पानी की कमी वाले इलाके की देखभाल में खर्च हो जाती है। मगर कुछ ही दिनों के लिए सही, जब अनचाहा पानी हमारे घरों में आ जाता है, तब उसका क्या करना है, वह किसी को पता नहीं होता। दुख के साथ कहना पड़ता है कि व्यवस्था इसका समाधान राहत-सामग्री बांटने में समझती है, और वह भी कितने लोगों तक पहुंचती है या सही समय पर मिलती भी है या नहीं, इन पर कोई बात नहीं होती।
चीन में बांधों के निर्माण की खबर हमें यह अवसर दे रही है कि हम इसी बहाने अपना घर भी ठीक कर लें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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