कैमरे की नजर से पुलिस सुधार (हिन्दुस्तान)

बृजलाल, पूर्व डीजीपी, उत्तर प्रदेश  

                                                                                          

बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने देश भर के पुलिस स्टेशनों में सीसीटीवी लगाने का जो निर्देश दिया, वह पुलिस सुधार की दिशा में मील का पत्थर माना जाएगा। ये कैमरे पुलिस स्टेशन के तमाम आम और खास जगहों पर लगाए जाएंगे। इतना ही नहीं, अदालत ने यह भी कहा है कि इन कैमरों की रिकॉर्डिंग 18 महीनों तक सुरक्षित रखी जाए। जाहिर है, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर भारतीय नागरिक को मिले जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के  अधिकार की रक्षा के लिए यह एक बेहद कारगर कदम साबित होगा।

साढ़े 37 बरस तक पुलिस की वरदी पहनने का मेरा अनुभव यही कहता है कि आज भी पुलिस महकमे में सुधार की काफी गुंजाइश है। खासकर आम लोगों के प्रति पुलिसकर्मियों के व्यवहार के मामले में। पुलिसिया रवैये को लेकर कई शिकायतें आम हैं। मसलन, एफआईआर नहीं लिखना, थाने में लोगों से दुव्र्यवहार करना, हिरासत में लिए गए आरोपी के साथ लॉकअप में अमानवीय सुलूक करना आदि। आलम यह है कि कोई पुलिस अफसर सादे कपड़े में किसी थाने में पहुंच जाए, तो उसके मन में भी यह डर रहता है कि कहीं उसके साथ बदतमीजी न हो जाए। मैंने अपने सेवा-काल में यह देखा था कि   किस तरह ‘टेस्ट एफआईआर’ दर्ज करवाई जाती थी। हालांकि, सभी जगह गलत व्यवहार नहीं होता। हालात बहुत हद तक सुधरे भी हैं। उत्तर प्रदेश के कई पुलिस थानों में पहले से सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं। मगर यह बदलाव इतना प्रभावी साबित नहीं हुआ है कि आम लोग बिना किसी संशय से अपनी फरियाद लेकर थाने में आ सकें।

सर्वोच्च न्यायालय ने निस्संदेह एक ऐसा निर्देश दिया है, जिसका अक्षरश: पालन कई समस्याओं का समाधान कर सकता है। मगर सवाल यह है कि क्या ऐसा हो सकेगा? संभव है, थाने में कैमरे का फोकस जहां होना चाहिए, वहां पर न हो। यह भी बहुत मुमकिन है कि ऐन वक्त पर  कैमरे ही खराब मिलें। मुंशी जहां पर एफआईआर लिखते हैं, वे भी कैमरे की जद में न रहें। इन सब समस्याओं का समाधान अंतत: वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को करना होगा। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि जिस नेकनीयती से शीर्ष अदालत ने यह निर्देश दिया है, उसी मंशा से उसका पालन भी हो। इससे पुलिस स्टेशन की हर छोटी-बड़ी गतिविधियां कैमरे में दर्ज होंगी, और पुलिस व आम जनता के आपसी व्यवहार में एक सकारात्मक बदलाव आएगा। इससे एफआईआर लिखने में पुलिस अधिकारियों द्वारा टालमटोल जैसी आम समस्या से भी पार पाया जा सकेगा।

हालांकि, ‘इंटरोगेशन चैंबर’ यानी पूछताछ कक्ष में कैमरे लगे होने से पुलिसकर्मियों को कई तरह की मुश्किलें पेश आ सकती हैं। इन कक्षों को कैमरे की नजर से दूर करना होगा, अन्यथा तमाम गोपनीय सूचनाएं, जिन पर मुकदमे में आगे कार्रवाई होनी है, लीक हो जाएंगी, जिनका दुरुपयोग होगा। आतंकवादियों और देश-विरोधी तत्वों से पूछताछ  में सूचना अगर लीक हो गई, तो उसका परिणाम काफी घातक हो सकता है। 

फिर भी, यह कहना गलत नहीं होगा कि ताजा अदालती निर्देश से आम लोगों के प्रति पुलिस के व्यवहार में बदलाव आएगा। अब यह जिम्मेदारी वरिष्ठ पुुलिस अधिकारियों की है कि वे ऐसे प्रयास करें, जिनसे पुलिस में आम लोगों का भरोसा बढ़े। बड़ा मुद्दा यह है कि आज पुलिस अधिकारी लोगों के फोन नहीं उठाते, जबकि जनता से संपर्क रखने का क्या फायदा होता है, यह मैंने अपने सेवा-काल में अनुभव किया है। मैंने ऐसे तमाम ऑपरेशन किए हैं, जिनमें सूचना देने वाले के चेहरे मैंने नहीं देखे। बस उनकी तरफ से एक फोन आया, और मैंने कार्रवाई की। इसलिए मैं कहता हूं कि सेवा के दौरान मेरे लाखों आंख-कान थे। इससे होता यह है कि सूचना देने वाले का भरोसा पुलिस पर बढ़ता है। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि कभी-कभी सूचना को नजरंदाज कर देने या उस पर कार्रवाई करने में लापरवाही बरतने से खबर देने वाले की जान पर बन आती है। ऐसा कतई नहीं होना चाहिए। जब सूचना देने वाले को यह भरोसा हो जाता है कि उसकी खबर का पुलिस बेजा फायदा नहीं उठाएगी, तब वह  संवेदनशील सूचनाएं भी साझा करने लगता है। इससे पुलिस को ही फायदा होता है।

यहां मैं एक अपराधी का जिक्र करना चाहूंगा, जो कानपुर का अतीक है। साल 2008-09 में वह सिद्धार्थनगर की जेल में बंद था। वह कानपुर में कई मुकदमे एक साथ लगवा लेता। बीच में दो-तीन दिन का जो वक्त मिलता, उसमें उसे पुलिस लॉकअप या जेल में रखने का प्रावधान था। मगर सिद्धार्थनगर के पुलिसकर्मी उसे कानपुर में न रखकर लखनऊ स्थित रेलवे के वातानुकूलित गेस्ट हाउस में रखते थे, जहां पर वह जमकर मौज-मस्ती किया करता था। जब मुझे अतीक की ‘मेहमाननवाजी’ की सूचना मिली, तब मैंने तुरंत छापेमारी की, हालांकि मैं तब प्रदेश का एडीजी कानून-व्यवस्था था और मेरी वैधानिक हैसियत डीजीपी के बाद थी। नतीजतन, न सिर्फ पुलिसकर्मी जेले भेजे गए और सेवा से बर्खास्त किए गए, बल्कि तब से अतीक भी जेल में ही है। यह घटना मैंने इसलिए साझा की, क्योंकि आज एसी गाड़ी, एसी दफ्तर और एसी घर ने पुलिसकर्मियों के ‘फील्ड वर्क’ को चौपट कर दिया है। वे क्षेत्र में जाना ही नहीं चाहते। अब अगर वे लोगों से मिलेंगे ही नहीं, तो उन तक सूचनाएं पहुंचेंगी कैसे और भला उन पर लोगों का भरोसा कैसे बढे़गा?

अपराध होने पर फोन नंबर को सर्विलांस पर रख देना ही काफी नहीं है। जंग हमेशा जमीनी सिपाही से ही जीती जाती है। इसलिए जरूरी है कि पुलिस अपनी कोटरी से बाहर निकले। यह जिम्मेदारी वरिष्ठ अधिकारियों को निभानी होगी। थाना का नेतृत्व थानाध्यक्ष करता है, तो जिला का एसपी और राज्य का डीजीपी। इन सभी को अपने नेतृत्व का परिचय देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट अपने ताजा निर्देश से उनसे यही अपेक्षा कर रहा है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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