देश को सैकड़ों नए बैंकों की जरूरत उनका स्वामित्व असली मुद्दा नहीं (बिजनेस स्टैंडर्ड)

टीसीए श्रीनिवास-राघवन 

क्या भारत में बहुत अधिक बैंक हैं? क्या भारत में बैंकों की संख्या बहुत कम है? आखिर एक देश में कितने बैंक होने चाहिए? भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को असल में इन सवालों पर गौर करना चाहिए, न कि किसी बैंक के स्वामित्व को लेकर फिक्रमंद होना चाहिए। लेकिन हम सब तो भारतीय हैं, लिहाजा आसानी से ध्यान भटकने की गुंजाइश बनी रहती है।


शुरुआत दो महत्त्वपूर्ण आंकड़ों से करते हैं। उम्मीद है कि इन्हें देखने के बाद दिमाग को केंद्रित करने में मदद मिलेगी। पहला, भारत में ऋण एवं सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का अनुपात 50 फीसदी के दयनीय स्तर पर है। भारत की समतुल्य अर्थव्यवस्थाओं में यह अनुपात 200 फीसदी से भी अधिक है। दूसरा, इस अनुपात का सीधा संबंध किसी भी देश में मौजूद बैंको की संख्या से है। इस तरह आखिरी बार गिनती के समय अमेरिका एवं चीन दोनों ही देशों में कार्यरत बैंकों की संख्या 4,000 से भी अधिक थी। लिहाजा न केवल ग्रामीण भारत में बैंकों की उपलब्धता कम है बल्कि समूची भारतीय अर्थव्यवस्था ही बैंकों की कमी का सामना कर रही है।


वित्तीय क्षेत्र की हालत पर विचार के लिए गठित रघुराम राजन समिति ने वर्ष 2008 में ही कहा था कि हमें सैकड़ों नए बैंकों की जरूरत है। लेकिन यह राय 12 साल पहले की है। आज मेरी यही राय है कि भारत को कम-से-कम 1,000 नए बैंकों की जरूरत है। यह सुनकर गश खाने की जरूरत नहीं है। आज अर्थव्यवस्था का जो आकार है उसका दसवां हिस्सा रहते समय भी भारत में करीब 400 बैंक सक्रिय थे लिहाजा 1,000 बैंकों का आंकड़ा सुनकर अचरज करने की जरूरत नहीं है।


इतने बैंक नहीं हुए तो अर्थव्यवस्था कभी भी उस तरलता स्तर को नहीं हासिल कर पाएगी जो हमारी सरकारों के स्वप्निल जीडीपी वृद्धि आंकड़ों को हासिल करने के लिए जरूरी होगा। इसी के साथ अर्थव्यवस्था सही तरह से औपचारिक ढांचा भी नहीं हासिल कर पाएगी। इसमें पैसे का प्रवाह तो होगा लेकिन वह अनौपचारिक क्षेत्र से होगा। इस वजह से अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़ी तमाम अंतर्निहित समस्याएं एवं कारण भी बने रहेंगे।

दो बड़े सवाल


यह मुद्दा दो सवाल भी खड़े करता है। पहला सवाल यह है कि इन नए बैंकों का आकार कितना बड़ा होना चाहिए और दूसरा सवाल है कि इनका स्वामित्व किनके पास होना चाहिए?


रघुराम राजन समिति ने इन दोनों ही सवालों के जवाब अपनी रिपोर्ट में दिए थे। समिति ने कहा था कि हमारे पास कुछ सौ छोटे बैंक होने चाहिए और उनमें से किसी भी बैंक का स्वामित्व किसी औद्योगिक घराने के पास तब तक नहीं होना चाहिए जब तक संबद्ध पक्ष (यानी उस औद्योगिक घराने से जुड़ी किसी संस्था) के साथ लेनदेन रोकने के सख्त सुरक्षा उपाय नहीं किए गए हों।


दो वजहों से ऐसी अनुशंसा करना एकदम सही था। पहला, वर्ष 1969 में राष्ट्रीयकरण के पहले देश में 600 से अधिक बैंक मौजूद थे और उनमें से तमाम बैंक छोटे आकार के थे और वे मुख्यत: जिंसों के बदले स्थानीय स्तर पर उधारी बांटते थे। उस समय तमाम बैंकों का स्वामित्व बड़े औद्योगिक घरानों के पास हुआ करता था और वे अपने इस्तेमाल के लिए जमाकर्ताओं की रकम आसानी से इस्तेमाल कर सकते थे। इस तरह जमाकर्ताओं के लिए बहुत अधिक जोखिम होता था लेकिन इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला इन वजहों से नहीं किया था।


राजन समिति ने यह नहीं बताया कि नए बैंकों का स्वामित्व औद्योगिक घरानों और सरकार के पास नहीं तो किसके पास होना चाहिए? सच तो यह है कि हमें अब भी इसका जवाब नहीं मालूम है। जब कोई समाज एवं सरकार वाणिज्यिक गतिविधि में किसी भी तरह का जोखिम नहीं लेना चाहती है तो यह सवाल बहुत मुश्किल हो जाता है।

बेमानी शून्य-जोखिम


इससे एक सियासी सवाल भी खड़ा होता है जो आर्थिक क्रियाकलाप से भी जुड़ा है। हम जोखिम से बचने की राजनीतिक फितरत से कैसे छुटकारा पा सकते हैं?


इसका संक्षिप्त उत्तर है कि वोटों के बेहद प्रतिस्पद्र्धी चुनावी बाजार में हमें इस छुटकारा मिला तो धीरे-धीरे ही मिलेगा। मसलन, एफडीआईएल विधेयक में जोखिम को करदाताओं से हटाकर जमाकर्ताओं पर लादने की कोशिश की गई लेकिन इसका पुरजोर ढंग से विरोध हुआ। अब उसका कोई नामलेवा नहीं है।


वास्तव में यह एकदम वैसा ही है जैसा मुखर विरोध इन दिनों कृषि कानूनों का हो रहा है। किसान एक ऐसी आर्थिक गतिविधि में न्यूनतम मूल्य का आश्वासन चाहते हैं जो कि बैंकिंग की ही तरह मूल रूप से जोखिम भरी है।


सार्वजनिक क्षेत्र अलग नहीं


हमें सबसे पहले यह बात याद रखनी होगी कि कांग्रेस शैली वाली फोन बैंकिंग यानी मंत्री जी का फोन आने पर बिना जांच-पड़ताल मोटा कर्ज देना बेहद जोखिम वाला काम था। बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का पुलिंदा बढऩे से यह नजर भी आता है। इनमें से लगभग सारे कर्ज सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने बांटे हैं। यह बताता है कि स्वामित्व भी जमाकर्ताओं की लूट रोकने की गारंटी नहीं देता है।


सार्वजनिक बैंकों को चलाने के नेताओं के तौर-तरीके और राष्ट्रीयकरण के पहले औद्योगिक घरानों के स्वामित्व वाले कुछ निजी बैंकों को चलाने के तरीके के बीच इकलौता फर्क यह है कि निजी बैंक के डूबने पर उसे बचाने के लिए करदाता नहीं थे।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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