ए के भट्टाचार्य
करीब दो महीने बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण वर्ष 2021-22 का बजट पेश करेंगी। यह उनका तीसरा बजट होगा और जुलाई 2019 एवं फरवरी 2020 में उनके द्वारा पेश किए गए पिछले दोनों बजट से अधिक चुनौतीपूर्ण होगा। हालांकि ऐसी धारणा है कि अगले वित्त वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था के फिर पटरी पर लौटने की संभावनाओं के बीच इस बार बजट-निर्माण वित्त मंत्री के समक्ष मौजूद कड़ी चुनौतियों की तुलना में अधिक आसान होगा। इसका परिणाम राजस्व वृद्धि के रूप में निकलेगा, जिससे सरकारी व्यय के प्रबंधन का कार्य उतना मुश्किल नहीं होगा। इसलिए अगले साल का बजट ज्यादा चुनौती भरा क्यों होगा?
यह गलत आकलन है। यह सच है कि केंद्र सरकार की राजस्व-प्राप्ति अगले साल काफी बेहतर होगी क्योंकि इस साल के संकुचन की तुलना में अगले साल अर्थव्यवस्था की वृद्घि दर रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचने की उम्मीद है। फिर भी वर्ष 2021-22 के बजट के समक्ष मौजूद चुनौतियां कम नहीं होंगी। इसके उलट वे कहीं अधिक मजबूती से सामने आएंगी।
पहली चुनौती अपेक्षाओं के बोझ से उपजेगी। वर्ष 2020-21 में बजट आंकड़े खासे निराशाजनक होंगे। अधिकतर लोग सरकारी वित्त में तीव्र गिरावट के लिए पहले ही तैयार हैं। जहां राजस्व लक्ष्य से खासा कम रहने के आसार हैं वहीं व्यय के मामले में बचत भी कम ही रहेगी। उधारी में भारी उछाल आने से राजकोषीय घाटा साल की शुरुआत में बजट में निर्धारित किए गए लक्ष्य के दोगुने से भी ज्यादा हो जाएगा।
जब निर्मला सीतारमण 1 फरवरी, 2021 को राजस्व एवं व्यय के संशोधित आंकड़े पेश करेंगी तो लक्ष्य से भटकाव को देखकर किसी को भी अचरज नहीं होगा। इसके बजाय अधिकतर लोग वर्ष 2021-22 के लिए बेहतर आंकड़ों की अपेक्षा करेंगे क्योंकि वे यह मानकर चलेंगे कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के तेजी से पटरी पर आने का परिणाम बेहतर राजस्व के रूप में सामने आएगा। वर्ष 2021-22 में स्वस्थ सरकारी वित्त की अपेक्षा का यह बोझ ही वित्त मंत्री को अपने कंधों पर उठाना होगा। इस अपेक्षा पर खरा उतरना कम-से-कम दो कारणों से अपने-आप में मुश्किल होगा।
पहला, वित्त मंत्री को राजस्व अनुमान पेश करने होंगे जिन्हें अर्थव्यवस्था की स्थिति के यथार्थपरक एवं विश्वसनीय आकलन पर आधारित माना जाता है। पिछले दो बजट में उनके राजस्व पूर्वानुमान लक्ष्य से भटके रहे हैं। वर्ष 2019-20 में वास्तविक शुद्ध राजस्व संग्रह बजट अनुमानों में पेश आरंभिक अनुमानों से 14 फीसदी कम रहा। वर्ष 2020-21 में यह कमी और भी ज्यादा रहेगी।
इस साल तो इस कमी को कोविड-19 महामारी एवं लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था में आए संकुचन का परिणाम बताया जा सकता है। लेकिन वर्ष 2019-20 में इस कमी का कारण अति-महत्त्वाकांक्षा भरा लक्ष्य निर्धारण एवं अर्थव्यवस्था में सुस्ती का अंदाजा लगाने में नाकामी रहा था। लिहाजा वर्ष 2021-22 के लिए सीतारमण के राजस्व लक्ष्य पर सबकी नजर होगी। इसे अर्थव्यवस्था में अगले साल अपेक्षित सुधार को दर्शाना होगा और साथ ही इतना यथार्थपरक भी रहना होगा कि लोगों को लक्ष्यों की प्राप्ति संभव होने का भरोसा हो सके। यह वित्त मंत्री के लिए बिल्कुल तनी रस्सी पर चलने जैसा होगा, जहां एक गलती सब कुछ खराब कर सकती है।
दूसरी वजह, वर्ष 2020-21 में भारी फिसलन आने के बाद आर्थिक स्थिति बेहतर होने पर आने वाले एक-दो वर्षों में राजकोषीय सशक्तीकरण का स्पष्ट खाका बनाने की अपेक्षा भी बढ़ जाएगी। अगले साल के लिए अधिक राजस्व आंकड़े पेश करना ही काफी नहीं होगा। यह भी अहम होगा कि अगले साल और उसके बाद राजकोषीय घाटे में कटौती का विश्वसनीय रास्ता भी सामने रखा जाए।
सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि घाटे में कटौती की योजना का राजस्व में अपेक्षित वृद्धि की दर के साथ तालमेल बिठाया जाए। लेकिन यह कहना आसान है और करना कठिन। राजकोषीय सशक्तीकरण की अपेक्षाएं अधिक होंगी और उनको संभालने के लिए आंकड़ों को पारदर्शी तरीके से पेश करने एवं सहज विश्वास का दायरा बढ़ाए बगैर लक्ष्य निर्धारण में उत्कृष्ट कौशल की जरूरत होगी।
बजट को अक्सर नजरअंदाज किए जाने वाले कर राजस्वों से जुड़े एक अहम मसले से भी निपटना होगा। पिछले कुछ वर्षों में केंद्रीय करों के लिए बॉयंसी (उछाल) कारक लगातार गिरावट में रहा है। यह वर्ष 2014-14 और 2015-16 में बढ़ा था लेकिन उसके बाद से लगातार इसमें गिरावट ही देखी गई है। वर्ष 2015-16 में 1.63 रहा केंद्रीय सकल कर संग्रह का बॉयंसी कारक 2016-17 में गिरकर 1.54 पर आ गया और फिर 2017-18 में यह 1.05, 2018-19 में 0.77 और 2019-20 में (-)0.5 पर आ गया।
यह खतरनाक स्थिति है। बॉयंसी कारक के माध्यम से परखा जाता है कि अर्थव्यवस्था में वृद्धि के संदर्भ में कर संग्रह में निरंतर कितनी बढ़त हो रही है। बॉयंसी कारक 1 से नीचे होने का मतलब है कि कर राजस्व अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर से कहीं धीमी गति से बढ़ रहा है। ह्रासोन्मुख बॉयंसी कारक संकेत देता है कि कराधान ढांचे, कर आधार की कवरेज एवं कर संग्रह व्यवस्था की प्रभावशीलता के गंभीर पुनर्गठन की जरूरत है। अगले साल सिर्फ वृद्धि पर आश्रित रहने से शायद कर राजस्व को तेजी नहीं मिले। इसके लिए उन बिंदुओं के बारे में बारीक निगाह डालने की जरूरत है जिनकी वजह से कर बॉयंसी में गिरावट आई है और इन क्षेत्रों में सुधार करने पड़े हैं। ऐसा कर पाना आसान नहीं होगा। लिहाजा अगले साल चुनौती और भी कठिन होगी।
आखिर में, हर साल केंद्र द्वारा संग्रहीत गैर-कर राजस्व का सवाल भी है। लगभग दो दशक पहले केंद्र का गैर-कर राजस्व जीडीपी का करीब 3 फीसदी हुआ करता था। पिछली बार वर्ष 2010-11 में गैर-कर राजस्व जीडीपी के 3 फीसदी के करीबी स्तर पर रहा था। उसके बाद यह हमेशा जीडीपी के 2 फीसदी से भी नीचे रहा है।
सरकारी खजाने में कर राजस्व का हिस्सा बढ़ाने को लेकर चर्चा हमेशा ही सघन रही है। ऐसा होना भी चाहिए। लेकिन सोचने वाली बात है कि कुल सरकारी राजस्व में गैर-कर राजस्व की हिस्सेदारी बढ़ाने की जरूरत पर ऐसी कोई भी बहस नहीं होती है। गैर-कर राजस्व नियमत: विभाज्य पूल का हिस्सा नहीं होता है। लिहाजा केंद्र सरकार इस समूची राशि को अपने पास रख लेती है और उसे राज्यों के साथ बांटना नहीं पड़ता है। फिर भी गैर-कर राजस्व की यह अनदेखी तर्क एवं समझदार राजकोषीय नियोजन को धता बताती है।
फिलहाल गैर-कर राजस्व काफी हद तक दूरसंचार स्पेक्ट्रम शुल्क (करीब 34 फीसदी) एवं लाभांश के साथ ही सार्वजनिक इकाइयों, बैंकों एवं भारतीय रिजर्व बैंक से मिलने वाले लाभ (करीब 40 फीसदी) पर निर्भर करता है। कुछ मदों पर यह अतिशय निर्भरता के कारण सरकार दूसरे क्षेत्रों से गैर-कर राजस्व उगाहने की वास्तविक संभावनाएं तलाशने के अवसर भी गंवा दे रही है।
सच यह है कि विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा दी जाने वाली अधिकतर सरकारी सेवाएं बहुत ही कम दरों पर दी जाती हैं। मसलन, लोकसेवा के एक अभ्यर्थी से प्रारंभिक परीक्षा के लिए 100 रुपये या मुख्य परीक्षा के लिए 200 रुपये ही आवेदन शुल्क के तौर पर लेने की कोई तुक नहीं है। इसी तरह सरकार डीटीएच सेवा प्रदाताओं से भी अधिक शुल्क वसूल सकती है, जिनके उपभोक्ताओं की संख्या 7 करोड़ से भी अधिक हो चुकी है।
गैर-कर राजस्व जुटा सकने वाली ऐसी सरकारी सेवाओं की सूची और भी लंबी हो सकती है। लेकिन बिंदु यह है कि सरकार को अपनी ऊर्जा यह सुनिश्चित करने में लगानी चाहिए कि अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्रों में दी जाने वाली उसकी सेवाएं इतना शुल्क तो जुटा ही लें कि अपनी लागत वसूल सकें। इतने भर से केंद्र को अपना गैर-कर राजस्व जीडीपी के 3 फीसदी के करीब पहुंचाने में मदद मिलेगी। इस तरह करीब 2 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त गैर-कर राजस्व पैदा हो सकता है जो केंद्र के ही पास रहेगा।
संक्षेप में, अगले साल के बजट निर्माण में यह सोच रखने की जरूरत है कि एक पूर्व-निर्धारित समयसीमा के भीतर सरकार की राजकोषीय सेहत में सुधार की एक विश्वसनीय योजना किस तरह बनाई जा सकती है? कर प्रचुरता बढ़ाने के लिए कराधान प्रणाली की कमजोरी दूर करने और अभी तक नजरअंदाज होते रहे क्षेत्रों से सरकारी राजस्व बढ़ाने के लिए गैर-कर शुल्क की दर बढ़ाने एवं पहुंच का दायरा बढ़ाने के तरीकों पर भी सोचना होगा।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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