अरुण कुमार, अर्थशास्त्री
नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के ‘भारत बंद’ का खासा असर देखने को मिला। कई जगहों पर सड़कें जाम की गईं, रेल यातायात रोके गए और बाजार व दुकानों की तालेबंदी की गई। कहते हैं कि एक-तिहाई अर्थव्यवस्था यदि बंद होती है, तो देश को करीब 18,000 करोड़ रुपये का नुकसान होता है। हालांकि, देशव्यापी बंदी की आर्थिक चोट का ठीक-ठीक अध्ययन शायद ही हुआ है, लेकिन भारत की तरक्की को देखकर इस अनुमान पर काफी हद तक भरोसा किया जा सकता है। वैसे भी, किसी राष्ट्रव्यापी बंद में औद्योगिक उत्पादन कमोबेश ठप हो जाते हैं और काफी सारी आर्थिक गतिविधियां रुक जाती हैं। इन सबसे माली नुकसान होना लाजिमी है।
मगर इसका दूसरा पक्ष भी है। हर आंदोलन की कोई न कोई वजह होती है। आंदोलनकारियों का दावा होता है कि अगर उनकी मांगें नहीं मानी गईं, तो देश को दीर्घावधि में नुकसान हो सकता है। और, इसी आधार पर वे तात्कालिक नुकसान (बंद के दौरान आर्थिक गतिविधियों के ठप पड़ने से होने वाले नुकसान) को नजरअंदाज करते हैं। लेकिन यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि कोई आंदोलन कितने दिनों तक चलता है और किन-किन क्षेत्रों पर अपना असर डालता है?
मौजूदा किसान आंदोलन की बात करें, तो दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के लंबे समय तक डटे रहने से राष्ट्रीय राजधानी में वस्तुओं और उत्पादों की आवक प्रभावित हो सकती है। आपूर्ति शृंखला पर भी नकारात्मक असर पड़ सकता है। चूंकि दिल्ली एक बड़ा बाजार है और कई आर्थिक गतिविधियों का केंद्र भी, इसीलिए यदि यह प्रभावित होती है, तो आसपास के राज्यों पर भी इसका असर देखने को मिलेगा। मगर यह असर नकारात्मक होगा या फिर सकारात्मक, इसका आकलन किसान आंदोलन की सफलता अथवा विफलता से तय होगा!
किसान इसलिए विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि नए कानून से उनको और देश को खासा नुकसान होगा। बेशक यह तर्क सही है कि सरकार ने कृषि उत्पाद बाजार समिति (एपीएमसी) मंडियों को खत्म करने या न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को वापस लेने की बात नहीं कही है। लेकिन सच यह भी है कि अगर नए कानूनों को बहाल किया गया, तो आने वाले वर्षों में कॉरपोरेट कंपनियां कृषि पर हावी होती जाएंगी, जिसके कारण मंडी व एमएसपी जैसी व्यवस्थाएं अपना असर खो देंगी।
यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि किसानों की सिर्फ छह फीसदी आबादी एमएसपी का फायदा उठाती है और 23 फसलें ही इसके अंतर्गत हैं। लेकिन हकीकत यह भी है कि सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य तमाम किसानों के लिए ‘बेंचमार्क’ का काम करते हैं और उनके आसपास ही वे अपनी फसलें बेचते हैं। यदि यह बेंचमार्क खत्म कर दी जाएगी, तो औद्योगिक घराने औने-पौने दाम पर किसानों से सौदा करेंगे।
इससे जाहिर तौर पर कृषि को भारी नुकसान होगा और उसमें असमानता भी बढ़ेगी। असमानता किस कदर अर्थव्यवस्था को खोखला करती है, यह हमने कोरोना महामारी से पहले देखा भी है। स्थिति यह है कि अब भी हमारी आर्थिक गाड़ी पटरी पर नहीं लौट सकी है। नए कृषि कानूनों से अमीर किसानों और चंद उद्योगपतियों को तो फायदा होगा, लेकिन छोटे और मझोले किसानों की रही-बची कमर भी टूट जाएगी। इन किसानों की संख्या करीब 86 प्रतिशत है, और इनके पास पांच एकड़ से भी कम जोत की जमीनें हैं। इनकिसानों के पास कोई बचत नहीं होती, बल्कि फसल लगाने से पहले ये हर बार कर्ज लेते हैं और फसल बिकने के बाद उसे चुकाते हैं। इसीलिए सरकार का यह दावा गले नहीं उतरता कि नए कानूनों के लागू हो जाने के बाद कृषि बाजार मुक्त हो जाएंगे। ये बाजार कतई मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि छोटे और मझोले किसान भला कैसे अपनी फसल सुरक्षित रखेंगे या किस तरह वे ऑनलाइन अपने उत्पाद बेचेंगे? उन्हें मजबूरीवश बिचौलियों के पास जाना ही होगा, क्योंकि कर्ज चुकाने के लिए उन्हें हर हाल में अपनी फसल बेचनी होगी। फिर, कॉरपोरेट कंपनियों को किसानों की दशा से भी कोई वास्ता नहीं होगा, जबकि आढ़तियों पर कई तरह के सामाजिक बंधन आयद होते हैं।
यह सही है कि किसानों की मौजूदा दशा बहुत अच्छी नहीं है। उन पर दिनोंदिन दबाव बढ़ता जा रहा है, जिसके कारण उनके परिवारों का खेती-किसानी से मोहभंग भी होने लगा है। वैसे भी, मशीनों के अधिकाधिक इस्तेमाल से खेतिहर मजदूरों की जान पर बन आई है। उन्हें अब शायद ही रोजगार मिल पाता है। मांग भी लगातार गिर रही है। मगर किसान आज इसलिए मुखर हैं, ताकि कृषि के हालात और ज्यादा न बिगड़ सकें। 1971 की जनगणना में भूमिहीन मजदूरों की संख्या अचानक इसलिए काफी ज्यादा बढ़ गई थी, क्योंकि हरित क्रांति का फायदा सिर्फ बडे़ किसानों को हुआ था। इस बार भी यही आशंका है। छोटे किसान वायदा खेती नहीं कर सकेंगे और उसके हिस्से का लाभ धनाढ्य किसान उठा ले जाएंगे।
तो फिर समाधान क्या है? किसान यदि लंबे समय तक आंदोलन करेंगे, तो उससे कई तरह का नुकसान पूरे देश को होगा। इसलिए कुछ कदम आंदोलनकारियों को पीछे खींचने पड़ेंगे, तो कुछ दरियादिली सरकार को भी दिखानी होगी। नीतिगत मोर्चे पर काफी ज्यादा काम किए जाने की जरूरत है। यह करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि नए कानून मांग कम कर देंगे, जिससे विकास दर में दो फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। इसका अर्थ है कि 204 लाख करोड़ रुपये वाली हमारी अर्थव्यवस्था को सालाना चार लाख करोड़ रुपये की चपत लग सकती है, जो कि एक दिन की बंदी से होने वाले नुकसान से काफी ज्यादा है।
इससे बचने के लिए खेती-किसानी में बढ़ रही बेरोजगारी को खत्म करने और रोजगार-निर्माण पर काम करने की जरूरत है। हमें ग्रामीण भारत के बुनियादी ढांचे को भी ठीक करना होगा। शिक्षा व सेहत पर ध्यान देकर हम काफी रोजगार पैदा कर सकते हैं। ग्रामीण विकास की योजनाओं पर खर्च बढ़ाने होंगे। हमें एक समग्र नीति बनानी होगी, जिसमें कृषि-सुधार भी हो, रोजगार-निर्माण भी और गैर-कृषि क्षेत्र की जरूरतें भी उससे पूरी हों। सिर्फ कृषि कानून बनाने से कोई फायदा नहीं होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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