राजकुमार सिंह
अनुशासित एवं शांतिपूर्ण आंदोलन से नजीर बने किसान संगठनों की असली परीक्षा अब होगी। कृषि सुधार के नाम पर केंद्र सरकार द्वारा कोरोना संकटकाल में आनन-फानन में बनाये गये तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर 11 दिनों से दिल्ली की दहलीज पर बैठे किसानों को हर वर्ग से मिलता समर्थन तो अन्नदाता के प्रति समाज की संवेदनशीलता का परिचायक है, लेकिन अब जिस तरह राजनीति की नजर इस आंदोलन पर लगी है, वह खतरे का संकेत है। बेशक हर कानून और सरकारी फैसले के गुण-दोष पर खुले दिलोदिमाग से बहस होनी चाहिए। फिर भी कृषि सुधार के नाम पर बनाये गये इन कानूनों की बाबत किसानों की राय ही अंतिम होनी चाहिए, क्योंकि उन्हीं के कल्याण के नाम पर ये बनाये गये हैं। अध्यादेश जारी करने और फिर उन्हें कानून में बदलने से पहले चर्चा से परहेज करने वाली नरेंद्र मोदी सरकार ने दिल्ली की दहलीज पर जुटे किसानों से बातचीत तो शुरू की है, लेकिन उसे जिस तरह लंबा खींचा जा रहा है, वह अच्छा संकेत नहीं है। किसानों की मांग स्पष्ट है। ऐसे में केंद्र सरकार का असमंजस सकारात्मक संकेत नहीं देता। संभव है कि बातचीत और उसके जरिये आंदोलन को लंबा खींचना केंद्र सरकार की रणनीति का हिस्सा हो, पर देश की आबादी के सबसे बड़े वर्ग किसानों के मुद्दों के प्रति ऐसी रणनीति की सलाह देने वाले मोदी के शुभचिंतक हरगिज नहीं हो सकते। तमाम विवादास्पद फैसलों के बावजूद जिस मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में विपक्ष कोई बड़ा आंदोलन नहीं कर सका, उसे दूसरे कार्यकाल के दूसरे साल में ही व्यापक जन समर्थन वाला किसान आंदोलन अपनी राजनीतिक सवारी के लिए उपलब्ध नजर आ रहा है। किसान आंदोलन और भारत बंद का समर्थन करने की तमाम विपक्षी दलों में होड़ लगी है। किसान 8 दिसंबर के भारत बंद का आह्वान 5 दिसंबर को पांचवें चरण की बातचीत बेनतीजा रहने से पहले ही कर चुके थे। केंद्र सरकार जिस तरह बातचीत को लंबा खींच रही है, उससे आशंकित किसानों द्वारा भारत बंद के आह्वान पर अडिग रहने को रणनीतिक रूप से गलत भी नहीं माना जा सकता, लेकिन एक अराजनीतिक आंदोलन पर सवार होने को उतावली राजनीति, सरकार और किसान दोनों के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। राजनीति की घुसपैठ के साथ कोई भी आंदोलन अपने मुख्य मकसद से भटक कर सत्ता विरोधी मोर्चे में तबदील हो जाता है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलनों को परदे के पीछे से शह-समर्थन देकर मनमोहन सिंह सरकार के विरुद्ध जनमत तैयार करने वाली भाजपा से बेहतर इसे और कौन समझ सकता है!
मोदी सरकार के लिए मुख्य खतरा यही है कि फिलहाल किसान चिंताओं तक सीमित यह आंदोलन राजनीति की छाया में कहीं जन आंदोलन में तबदील न हो जाये। बेशक इस कार्यकाल में मोदी सरकार को किसी सहयोगी दल की जरूरत नहीं है, लेकिन सहयोगी दलों के अलगाव और असहमति के स्वरों से बनने वाली जनधारणा कब राजनीतिक परिदृश्य में तबदील हो जायेगी, पता भी नहीं चलेगा। आंदोलन की पीठ पर विपक्ष की राजनीतिक सवारी किसानों के लिए भी सुखद नहीं है।
खुद सत्ता में रहते हुए इन दलों का किसान विरोधी चरित्र किसी से छिपा नहीं रहा। 73 साल के आजाद भारत में 55 साल तक कांग्रेस केंद्र में भी सत्तारूढ़ रही और ज्यादातर राज्यों में भी। फिर किसान बदहाल क्यों रहा? नहीं भूलना चाहिए कि किसानों द्वारा आत्महत्या की खबरें भी तभी आना शुरू हो गयी थीं। यह भी कि छोटे कारोबारी को निगल जाने वाले बड़े औद्योगिक मगरमच्छ भी कांग्रेसकाल में शुरू हुए आर्थिक सुधारों की ही देन हैं, जिनसे अंतत: बाजार बेलगाम हुआ है। अब किसानों की चिंता में दुबले नजर आ रहे क्षेत्रीय दलों से भी पूछा जाना चाहिए कि कृषि राज्य का विषय होते हुए भी वे अपने राज्य में किसानों का जीवन स्तर बेहतर बनाने वाली नीतियां क्यों नहीं बना पाये? भारत बंद का समर्थन करने से किसी को नहीं रोका जा सकता, लेकिन आंदोलन में राजनीतिक दल-नेता नहीं घुस पायें, यह किसान संगठनों को सुनिश्चित करना होगा। आंदोलन का लंबा खिंचना किसी भी पक्ष के लिए अच्छा नहीं होता। इसलिए केंद्र सरकार और किसानों को देशहित में सकारात्मक व्यावहारिक रुख अपनाते हुए 9 दिसंबर की बातचीत को सफल बनाना चाहिए, ताकि कोरोना संकट से जूझ रहा देश इस लंबे खिंचते गतिरोध से निकल पाये। वक्त का तकाजा है कि सालों से देश को अपने मन की बात सुनाने वाले प्रधानमंत्री मोदी अब किसानों के मन की बात सुनें, और समझें भी।
सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।
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