गिरीश्वर मिश्र
यह स्वागत योग्य सूचना है कि केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय की स्थापना की दिशा में विचार आरंभ किया है। देर आयद दुरुस्त आयद। भारतवर्ष भाषाओं की दृष्टि से एक अत्यंत समृद्ध देश है। यह उनकी आतंरिक जीवन शक्ति और लोक-जीवन में व्यवहार में प्रयोग ही था कि विदेशी आक्रांताओं द्वारा विविध प्रकार से सतत हानि पहुंचाए जाने के बावजूद वे बची रहीं। पिछली कुछ सदियों में इन भाषाओं को सतत संघर्ष करना पड़ा था। पर स्वतंत्रता संग्राम में लोक संवाद के साथ देश को एक साथ ले चलने में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं ने विशेष भूमिका निभाई। स्वतंत्र भारत में एक लोकतंत्र की व्यवस्था में जनता ही केंद्र में होनी चाहिए, पर अधिकांश जनता के लिए एक विदेशी और दुर्बोध भाषा अंग्रेजी को जबरन लाद दिया गया। शेष बहुसंख्यक गैर अंग्रेजी भाषा-भाषी भारतीयों की प्रतिभा और उद्यमिता को नकारते हुए उन्हें अवसर न देते हुए वंचित रखा जाता रहा। इससे आम जनता की शैक्षिक प्रगति और लोकतांत्रिक भागीदारी भी बुरी तरह बाधित हुई। सरकार और समाज की उदासीनता के चलते अंग्रेजी को सर्वथा हितकारी रामबाण सरीखा मान लिया गया। ज्ञान की वृद्धि, जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा और समतामूलक समाज की स्थापना के लक्ष्यों की दृष्टि से यह स्थिति किसी भी तरह हितकर नहीं कही जा सकती।
संविधान में हिंदी को राजभाषा और संपर्क भाषा का दर्जा दिया गया और अंग्रेजी के उपयोग को यथेच्छ समय तक चलाए जाने की छूट दे दी गई। बाईस भाषाओं को आठवीं अनुसूची की भाषा सूची में रखा गया है। अब कन्नड़, मलयालम, ओडिया, संस्कृत, तमिल तथा तेलगु को प्राचीन भाषा (क्लासिकल लैंग्वेज) का दर्जा दिया गया है। राजभाषा विभाग स्थापित है और हर मंत्रालय के लिए इसकी सलाहकार समिति भी है। पर भारतीय भाषाओं के लिए किए गए सरकारी उपक्रम प्रभावी नहीं साबित हुए और देश की कोई भाषा नीति नहीं बन सकी है। 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में भाषा के मानक पर खरी उतरने वाली 1,369 बोलियां/भाषाएं थीं। इसमें से 121 भाषाएं ऐसी हैं, जिनके बोलने वालों की संख्या 10,000 से अधिक है। इनमें आठवीं अनुसूची की भाषाएं भी सम्मिलित हैं। पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के 2013 के अध्ययन के अनुसार, देश में 780 भाषाएं हैं। पिछले 50 वर्ष में देश से 220 से अधिक भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं तथा 197 लुप्तप्राय हैं।
भाषा से जुड़ी केंद्र सरकार की संस्थाएं इस प्रकार हैं-सहित्य अकादमी, केंद्रीय हिंदी निदेशालय, वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली केंद्र, केंद्रीय हिंदी संस्थान, केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान, राष्ट्रीय सिंधी भाषा संवर्धन संस्थान, राष्ट्रीय उर्दू भाषा संवर्धन परिषद, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान (आरएसकेएस), महर्षि संदीपणि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान (एमएसआरवीवीपी), केंद्रीय अंग्रेजी भाषा और विदेशी भाषा संस्थान। इनके अतिरिक्त तीन संस्कृत के, एक उर्दू तथा एक हिंदी का केंद्रीय विश्वविद्यालय है। राज्य सरकारों द्वारा संस्कृत के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, केरल, उत्तराखंड तथा ओडिशा में विश्वविद्यालय स्थापित हैं। विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न भाषाओं के लिए अकादमियां, भाषा संस्थान और ग्रंथ अकादमियां स्थापित हैं। इनके अतिरिक्त गैर सरकारी भाषा की संस्थाएं भी कार्यरत हैं।
किसी भी भाषा की सामाजिक सामर्थ्य कई बातों पर निर्भर करती है। इनमें प्रमुख हैं-पीढ़ी दर पीढ़ी भाषा का अंतरण, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भाषा का उपयोग, भाषा के विविध रूपों का दस्तावेजीकरण, भाषा द्वारा नई तकनीक और आधुनिक माध्यमों की स्वीकार्यता, सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्रों में प्रचलित भाषा नीति तथा भाषा समुदाय का उस भाषा के साथ भावनात्मक लगाव की मात्रा। चूंकि भाषा संस्कृति, राष्ट्र और राष्ट्रीयता को परिभाषित करती है तथा राष्ट्र निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाती है, अतः यह आवश्यक है कि इनके संरक्षण और संवर्धन के लिए यथाशीघ्र समेकित प्रयास किया जाए। भारतीय भाषाओं के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा।
सौजन्य - अमर उजाला।
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