आज दिल्ली के अलग-अलग प्रवेश द्वारों पर धरना दे रहे किसानों ने 'भारत-बंद' का आह्वान किया है। किसान संगठनों की इस घोषणा को देश के 18 राजनीतिक दलों- कांग्रेस, अकाली दल, आप, तृणमूल, सपा, बसपा, राकांपा, द्रमुक, वामपंथी पार्टियों और गुपकार गठबंधन आदि ने समर्थन दिया है। यह स्थिति तब है, जब आक्रोशित किसानों और मोदी सरकार के बीच पांच दौर की वार्ता हो चुकी है और कल (बुधवार) छठी बैठक निर्धारित है। इस बीच, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समर्थित भारतीय किसान संघ (बीकेएस) ने 'भारत बंद' में शामिल होने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि विदेशी शक्तियां, राष्ट्रविरोधी तत्व और कुछ राजनीतिक दल किसान आंदोलन को अराजकता की ओर मोड़ना चाहते हैं। इस संगठन ने केंद्र सरकार के समक्ष कृषि कानून में संशोधन हेतु- न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे खरीद नहीं होने, व्यापारियों से किसानों को धनराशि की गारंटी मिलने और अलग से कृषि न्यायालयों की स्थापना का प्रस्ताव रखा है।
अब यदि मोदी सरकार इन संशोधनों को स्वीकारती है, तो क्या इस किसान आंदोलन का कोई औचित्य रहेगा? यह सवाल इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि मीडिया (सोशल मीडिया सहित) में ऐसे कई लोगों के वीडियो वायरल हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि उनका एजेंडा किसान हितों की रक्षा करने के बजाय वर्तमान मोदी सरकार को कैसे भी गिराना, तोड़ना, झुकाना या फिर भाजपा और आरएसएस विरोध के नाम पर देश की छवि को विश्व में कलंकित करना है। निस्संदेह, देश बदलाव के दौर से गुजर रहा है और अन्य वर्गों की भांति किसानों की स्थिति भी स्वाभाविक रूप से सुधरी है। मुंशी प्रेमचंद के किस्से-कहानियों में जैसा किसानों का चित्रण किया गया है, उसकी तुलना में दिल्ली सीमा पर एकत्र अधिकांश किसान, आंदोलन में लंबे-चौड़े मोटर-वाहन, आधुनिक परिधान, स्मार्टफोन और तीन-चार महीने का राशन इत्यादि लेकर शामिल हुए हैं।
इस किसान आंदोलन की जड़ में एमएसपी पर फैला भ्रम निहित है। इस व्यवस्था को कृषि लागत-मूल्य आयोग की अनुशंसा पर तत्कालीन सरकार ने 1966-67 में लागू किया था। प्रारंभ में केवल दो फसलों- धान और गेहूं का एमएसपी तय किया गया। किंतु आज यह 23 फसलों तक पहुंच गया है। इसका प्रभाव यह हुआ कि छोटे शहर या कस्बों में कृषि आधारित एक नव-धनाढ़य वर्ग का जन्म हुआ, जो आज किसान कम, व्यापारी अधिक है। दुर्भाग्य से किसान आंदोलन में शामिल लोगों में इनका अनुपात बराबर है या अधिक है। सरकार से किसानों को एमएसपी के अतिरिक्त, जो निःशुल्क बिजली, पानी के साथ सस्ती दरों पर कर्ज मिलता है, जिसके लोकलुभावन 'ऋण माफी' नीति के कारण माफ होने की संभावना सर्वाधिक बनी रहती है- उसका बड़ा लाभ प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से उसी कृषि आधारित नव-धनाढय वर्ग को मिलता है।
इसे ऐसे समझिए कि देश में लगभग 14.5 करोड़ किसान (आश्रित सहित) हैं, जिनमें 86 प्रतिशत से अधिक किसान या तो छोटे-लघु भूस्वामी हैं या फिर भूमिहीन कृषक मजदूर। अब सीमित खेती लायक भूमि होने के कारण ये किसान बाजार में बेचने योग्य जितनी पैदावार कर पाते हैं, उससे कहीं अधिक मात्रा में वे अन्य अनाज उसी बाजार से खरीदते हैं। संक्षेप में कहे, तो ऐसे किसान अनाज पैदा करने वाले कम, शुद्ध-खरीदार अधिक हैं। ऐसे में यदि एमएसपी निरंतर बढ़ती जाएगी, तो स्वाभाविक रूप से छोटे किसानों और भूमिहीन खेत मजदूरों की आर्थिकी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। देश में इन किसानों की संख्या अधिक होने का प्रमुख कारण पीढ़ी-दर-पीढ़ी जमीन का बंटवारा होना है। अर्थात खेती योग्य जमीन सीमित ही है, किंतु उस पर किसानों के साथ अन्य आश्रितों (जो स्वयं को किसान ही कहते हैं) की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। आगे यह स्थिति और भी गंभीर होगी।
वास्तव में, यह भारतीय कृषि में छिपी 'बेरोजगारी' को उजागर करती है, जिसका समाधान समेकित विकास से ही संभव है। हालिया किसान आंदोलन को 'शहरी बनाम ग्रामीण' बनाने का प्रयास किया जा रहा है। सच तो यह है कि वर्तमान समय में जो लोग शहरों में बसे हैं, उनमें से अधिकांश या तो पहली या दूसरी पीढ़ी के ग्रामीण हैं। ये लोग गांवों से रोजगार और बेहतर जीवन की खोज में तुलनात्मक रूप से अधिक सुविधायुक्त शहरों में आते हैं और अपनी कमाई का एक हिस्सा गांवों में अपने परिवार को भेजते हैं। यह वैश्विक मापदंड भी है कि जैसे-जैसे विकास होता है, ग्रामीण क्षेत्रों का अनुपात सिकुड़ता है। अमेरिका जैसे विकसित देश में केवल 10 प्रतिशत श्रमिक आबादी सीधे कृषि से जुड़ी है, जिनका योगदान उसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में पांच प्रतिशत से अधिक है। भारत में यह स्थिति बिल्कुल उलट है। सात दशक बाद भी देश के कुल श्रमिकों में से लगभग 50 प्रतिशत आज भी कृषि आधारित रोजगार से संबंधित हैं, जबकि जीडीपी में उनकी हिस्सेदारी मात्र 15-17 प्रतिशत है। स्वतंत्रता के समय यह अनुपात 50-70 प्रतिशत था।
यह स्थिति तब और बिगड़ी हुई दिखती है, जब कृषि प्रधान देश होने के बाद भी हमारा कृषि आयात प्रतिवर्ष एक लाख करोड़ रुपये से अधिक है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि बदलते समय के साथ परिवर्तित आदतों ने विभिन्न प्रकार के ताजा और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों की मांग को कई गुना बढ़ा दिया है, जिसकी पूर्ति हेतु देश के किसान प्रोत्साहित नहीं हो रहे हैं। हमारे देश में किसान चावल और गेहूं इतनी मात्रा में उगाते हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा देश में करोड़ों लोगों को उसकी मुफ्त आपूर्ति के बाद भी भारत लाखों टन अनाज निर्यात कर रहा है। इस पृष्ठभूमि में अब किसानों की जो वास्तविक चिंताएं/सरोकार हैं, यदि मोदी सरकार उन्हें केंद्र में रखकर कृषि कानून में वांछित संशोधन करे, तो क्या यह आंदोलन खत्म होगा? यह बात इस पर निर्भर करती है कि आंदोलन का नेतृत्व कौन कर रहा है? क्या वे लोग, जिनका मन किसान-हितों को लेकर व्यथित है या फिर वे, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध वैचारिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत कारणों से कर रहे हैं?
(लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।)
सौजन्य - अमर उजाला।
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