केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ विभिन्न किसान संगठनों द्वारा आहूत भारत बंद का मिली–जुला असर देखने को मिला– कहीं पर असर ज्यादा था‚ तो कहीं पर आंशिक। पंजाब‚ हरियाणा जैसे कुछ राज्यों में बंद का ज्यादा असर दिखा। दूसरी बात गौर करने लायक यह थी कि इसमें किसानों की जितनी भागीदारी थी‚ करीब–करीब उसी पैमाने पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं की भी रही। वैसे यह खबर पहले से ही आ रही थी कि कुछ राजनीतिक दलों की किसान शाखाओं के सदस्य इस आंदोलन में भागीदारी कर रहे हैं।
अगर यह सच है‚ तो कहा जा सकता है कि किसान आंदोलन का राजनीतिकरण पहले से ही जारी था। लेकिन बंद का वास्तविक मूल्यांकन उसके भौगोलिक विस्तार या उसमें भागीदारी करने वाले लोगों की संख्या अथवा प्रकृति के आधार पर नहीं किया जा सकता। चूंकि देश की संपूर्ण आबादी कृषि पर आश्रित नहीं है‚ इसलिए बंद में उनकी दिलचस्पी का अभाव होना स्वाभाविक है। दूसरी ओर बंद मूलतः शहर केंद्रित है‚ जबकि किसान शहर में नहीं गांव में रहते हैं‚ जहां बंद का कोई खास औचित्य नहीं है। संभव है कि विभिन्न सरकार की नीतियों से उनमें इस कदर निराशा भर गई हो कि उन्होंने बंद के प्रति उदासीन रुûख अख्तियार कर लिया हो। इससे अनिवार्यतः यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि बंद में भाग न लेने वाले किसानों का इसे मौन समर्थन प्राप्त नहीं होगा।
यह देखना होगा कि केंद्र सरकार इसे किस रूप में ग्रहण करती है और इसका किसानों से चल रही वार्ता पर कैसा असर पड़़ता है‚ लेकिन नीति निर्माताओं को यह ध्यान में रखना होगा कि देश की एक बड़़ी आबादी अब भी कृषि पर निर्भर है। इन सबसे परे यह बंद किसान राजनीति में दूरगामी प्रभाव ड़ालने वाला होगा‚ जो एक दबाव समूह के रूप में किसान आंदोलन की दशा–दिशा को निर्धारित करेगा। स्मरण नहीं कि कभी किसान संगठनों ने इस पैमाने पर राष्ट्रव्यापी बंद का आयोजन किया हो। अभी तक किसानों का आंदोलन सच्चे अर्थों में अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण नहीं कर पाया था‚ लेकिन इस बंद ने उन्हें एक ढीले–ढाले भावनात्मक एकता के सूत्र में जरूर जोड़़ दिया है। निजीकरण के इस दौर में ये किसान आने वाले समय में अपनी इस राजनीति से एक प्रभावशाली समूह के रूप में उभर सकते हैं और अपनी बात सरकार से मनवा सकते हैं। कोई राजनीतिक पार्टी आसानी से इनकी अनदेखी नहीं कर सकती।
सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।
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