जहां बारहों मास ग्रह–उपग्रह और जल–वायु की धुरी के साथ चलते हैं‚ तो वहीं कहीं हमारी लोक परंपराएं भी भरी–पूरी दिखती हैं। इन्हीं की वजह से कुदरत की कलाई से जीवन का रिश्ता भी पक्का बंधा रहता है। हमारा विज्ञान केवल पंचांग में ही समाया रहता तो कितनी ही बातें हवाई रह जातीं‚ लेकिन उसकी कोख से पांचवीं सदी में ही शून्य ने जन्म लेकर दुनिया की अगुवाई की और २१वीं सदी में भी यही टटोलने–परखने की चेतना आंगन–आंगन की रंगोली बनी रही। मनमानस में बसे रहकर हमारी परंपराओं ने अपनी खास बुनावट को झोपड़े में‚ चूल्हे के बगल में‚ खलिहानों में बहते पसीने की तर–बतर में और ताल–बावडि़यों की छपछपाहट के साथ तपते‚ भीगते‚ नाचते‚ गाते भरपूर जिया भी है और चुभते वक्त पर पार भी पाई है। रीत–रिवाज की थाप और लोक धुनों ने इंसानी समाज को जिस तरह चलना सिखाया है‚ उसमें सबसे पुरजोर हिस्सा कुदरत के संग जुड़े अहसासात का ही रहा है।
संस्कृति और मानव विज्ञानी माग्रेट मीड जैसे शोधकर्ता सभ्यताओं को पढ़ते–पढ़ाते इस बात को अहमियत देेते रहे कि हमारे जीवन के हर तौर–तरीके में कुदरत से गहरा बंधे रहना ही हमारी सभ्यता की खुदाई में हाथ आएगा। आने वाला वक्त हमें इन्हीं निशानियों से तोलेगा–मोलेगा। आज जो हमारे हाथ है‚ वो ये कि हम सोच पाएं कि बदलते मौसम और वक्त के मिजाज के साथ परंपराओं ने कितना निभाया। हमारे यहां साल का पहला महीना यानी चैत में जीवन की कोपलें फूटती हैं‚ जौ‚ चना‚ गेहूं‚ सरसों पकने लगती हैं और नवरात्रि के नौ दिन हम उसी जीवन के साथ अपनी लय में रहते हुए छोटी बच्चियों को भी पूजते हैं। जब कोविड के धक्के ने हमारी दखल की हदें तय कर दीं‚ तो कलकल और चहचहाहट को सुनकर‚ उन्हें अपने अक्स की तरह सामने देखकर हम नींद से जाग उठे। हमें मालूम है कि हम अब लौट नहीं सकते‚ लौटना भी नहीं चाहिए वहां जहां हम खुद की ही बात सुनने और जी भर कर देखने के काबिल नहीं रहे थे। पूनम से अमावस की घटत–बढ़त के बीच तारीखें खुद कुछ नहीं कह पातीं। जब हवा‚ बादल‚ बारिश‚ पंछी‚ जीव और जंगल तारीख की पोटली में भरे पल भी हिसाब रखना भूल जाते हैं‚ तो इंसान बस उन्हें अपने जेहन में दर्ज करता चलता है। यहीं से उसके खयालों में इन सबकी फिक्र आती है‚ क्योंकि उसका अपना वजूद भी इन्हीं से खुशरंग है।
भरे–पूरे इलाके हों या उजाड़‚ कैनवास पर हल्के या चटख रंग तो कुदरत के ही बिखरते हैं‚ तभी दुनियावी तस्वीर पूरी हो पाती है। चैत्र की करवट से बैसाख की शोखी के बीच जब राजस्थान के सूखे इलाकों में आखा तीज का त्योहार मनता है तो खेजड़ी का पूजन होता है। दुनिया के और इलाकों में अपने सब्र के लिए मशहूर है खेजड़ी। इसकी उजाड़ पर आमादा एक राजा के फरमान के खिलाफ खड़े होकर जब चार सदी पहले खेजड़ली गांव में अमृता देवी ने मोर्चा संभाला था‚ तो फिर यकीन गहरा हुआ कि औरतों ने दुनिया को किस कदर संभाले रखा है। ‘सर सांटे‚ रूख रहे‚ तो भी सस्तो जाण' कहकर अमृता तो कुर्बान हुई‚ मगर पीछे–पीछे उनकी तीन बेटियों और ३६३ आदिवासियों के बलिदान के साथ खेजड़ी बचाने के लिए सिर कटाना ऐसी मिसाल बना कि उसके बराबर दुनिया में कोई कहानी नहीं आज भी। औरतों के हाथों कुदरत की संभाल की तहजीब को जब ‘ईको–फेमिनिज्म' की तरह बांचा गया‚ तब मां‚ दादी‚ बहन‚ भाभी‚ ननद के आगे–पीछे घूमती घर की दुनिया में सूर्य नमन और पीपल–कुंआ पूजन की परंपरा नजर भर कर देखने में आई। छठ पूजन में सूरज और उसकी बहन छठ मैया के बीच इतना लाड़–प्यार बरसता है कि पूरा साल भरा पूरा सा लगता है। साझी हिस्सेदारी वाली गोचर जमीनों पर लोक देवी–देवताओं के नाम पर ‘वणी' और ‘ओरण' बनाकर जमीन और मिट्टी में पल रहे पौधों और जीवों के बंध और नमी का खयाल रखा जाता है। ॥ देहाती जन–जीवन में मिट्टी से थपे चौके में चूने और गेरू से रंगे मांडणों में कुदरत से हमारे रिश्ते की छाप हो या फिर सफेद दीवारों पर हल्दी की थपकी के छापे‚ गांवों ने ही भारत की संभाल की है। यहां बसी रीतियों की बदौलत ही जल–हवा–मिट्टी‚ पंछी और जीवों का सांझ और सवेरा साथ–साथ होता है और मौसम के मुताबिक खान–पान‚ आन और दान की रीत होती है। संक्रांति में तिल–गुड़‚ सावन में शिव का बेलपत्र–जल‚ देवों के सोने के चार महीनों के दौरान पुरखों का मान‚ बसंत पंचमी में पीली सरसों की बिछावन और गाय–बछड़ों के लाड़ के लिए गोपाष्टमी जैसे अनगिनत मौके हैं हमारी परम्परा में जो हमारे और नीली–हरी धरती के बीच चुंबक सरीखे हैं। बेटियों की पैदाइश पर पौधे लगाने जैसी नई परंपराओं ने जन्म लेकर दकियानूसी सोच की सफाई भी की है। ऐसी अनिगनत जड़ी–बूटियां जो हमारे लिए मरहम हैं‚ पहाड़ों और जंगलों की बेपरवाही से घरों की बंदिशों में समा रही हैं। सरकारों ने इसे ‘पोषण वाटिका' की शक्ल देकर इंसान और पेड़ों के रिश्तों की सजावट ही की है‚ जिसमें खासकर मां–बच्चे की फिक्र शामिल है। रिश्तों को अहमियत देने की हमारी फितरत परंपराओं की ही वजह से है। यही दूरियों को भरने का काम करती हैं। दूरियों का जिक्र छिड़ते ही लोक परंपराओं को चूनर की तरह लपेट कर रखने वाली देहाती औरतें हमें ये कहकर झिड़क देती हैं कि क्या त्योहार भी देस–विदेस का होता है। जिस रंग को ओढ़ लो वही तो अपना है और वहीं अपनापन है। ॥ पानी का मोल जानने वाले इलाकों में सावन के लहरिये की सज–धज के साथ मिट्टी की दाबू छपाई वाले कपड़े नए दौर के चलन में दूरदराज पहुंच रहे हैं‚ तो वहां भी अब कुदरत के तौर–तरीकों को सहेजने वाली रंगाई–छपाई की पूछ है। खेती किसानी में रमी आशा जी को सरकार के नरेगा के काम में तालाबों से मिट्टी खुदवाने का काम उसी तरह लगता है‚ जिस तरह कुंओं–तालाबों की मिट्टी साफ करके गांव का हर घर अपनी मेहनत का दान किया करता था। साथ उठना‚ खाना‚ कहना‚ सुनना‚ गाना–बजाना सब इसी बहाने से होता रहा है‚ जिसकी कसक अब गांव–शहरों को नजदीक ले आई है। जो गांव शहर होने की फिराक में थे‚ अब उनकी वकत बढ़ी है‚ तो सिर्फ इसलिए कि वहां बसी सादगी‚ साफगोई और आबोहवा की ही दुनिया को दरकार है। यह आत्मनिर्भरता की आस के बीच सरकारों के सरोकारों का भरा पूरा हिस्सा होना चाहिए। पूरब की कोसी से मध्य की नर्मदा–शिप्रा‚ पश्चिम के मीठे–खारे तालाब बावड़यिों से लेकर दक्खिन की कृष्ण–गोदावरी और उत्तर की गंगा–यमुना‚ सबके सब धरती में दबे बीजों को मिट्टी चीरने का हौसला देकर जीवन की बालू मिट्टी के पोर–पोर को भिगाए रखती हैं तो हमें भी अपनी परम्पराओं के पांव फिर छूकर पर्यावरण से हमारे इश्क–मोहब्बत का खुलकर इजहार करने की सलाहियत बरतनी ही चाहिए।
सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।
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