श्याम सरन
कम से कम इस बात के लिए चीन का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने भारत को 'ऐतिहासिक हिचकिचाहट' से निजात पाने में मदद की और वह क्वाड (अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच सुरक्षा संवाद का अनौपचारिक रणनीतिक मंच) को अपनी हिंद-प्रशांत नीति के केंद्र में ला सका। चीन ने पूर्वी लद्दाख में जो आक्रामकता दिखाई उसने भारत को प्रोत्साहित किया कि वह क्वाड के रूप में चारों देशों के गठजोड़ को संस्थागत स्वरूप प्रदान करे।
क्वाड के विदेश मंत्री अब वार्षिक मुलाकात करेंगे। इन चार देशों के साथ भारत का सुरक्षा सहयोग अब द्विपक्षीय लॉजिस्टिक्स, संचार और खुफिया जानकारी साझा करने की व्यवस्थाओं पर आधारित है। इनमें से अंतिम और सबसे महत्त्वपूर्ण है अमेरिका के साथ हस्ताक्षरित बेसिक एक्सचेंज ऐंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बीएसीए)। इससे भारत को अमेरिका से सटीक स्थानीय खुफिया आंकड़े मिलेंगे जो उसे अन्य बातों के अलावा मिसाइल से सटीक निशाना लगाने में सक्षम बनाएंगे। भारत ने ऑस्ट्रेलिया को भी मलाबार नौसैनिक कवायद में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया है।
यह बात बहुत अहम है क्योंकि केवल ऐसी कवायदों के जरिये ही क्वाड देश एक दूसरे के साथ बहुपक्षीय ढंग से जुड़ रहे हैं। भारत के क्वाड साझेदार देशों के साथ जो द्विपक्षीय सुरक्षा रिश्ते हैं, उन्हें बहुपक्षीय बनाने की दिशा में यह पहला कदम है। अब यह संभावना अधिक भरोसेमंद नजर आ रही है और चीन की भारत के अलावा जापान और ऑस्ट्रेलिया को लेकर निरंतर बढ़ती आक्रामकता के बाद इसमें और तेजी आ सकती है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने पिछले दिनों जब कहा कि वह यह भविष्य के परिदृश्य के केंद्र में रहने वाला है तो वह दरअसल क्वाड के बदले हुए आकलन को ही पेश कर रहे थे। उन्होंने कहा कि एशिया को बहुध्रुवीय बनाने के लिए क्वाड अनिवार्य है। ऐसे एशिया के बिना बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था बनाना मुश्किल होगा।
क्वाड, भारत की बहुध्रुवीय रणनीतिक स्वायत्तता की प्राथमिकता में एकदम सहज बैठता है लेकिन इसमें भी चीन के दबदबे पर नियंत्रण का इरादा एकदम स्पष्ट है। अमेरिकी विदेश मंत्री ने क्वाड को औपचारिक स्वरूप प्रदान करने और व्यापक बनाने की बात कही है। भारत ने इसका कोई विरोध नहीं किया। भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र और उसके बाहर से अतिरिक्त साझेदारों को इसमें शामिल करने का स्वागत करेगा। इंडोनेशिया, वियतनाम और सिंगापुर पहले ही क्वाड देशों के साथ किसी न किसी स्तर पर सुरक्षा संबंध कायम किए हुए हैं। इनका अनौपचारिक ढंग से और कम प्रचार के साथ विस्तार किया जा सकता है। यदि प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा के अधीन जापान और दक्षिण कोरिया के रिश्ते सुधरते हैं तो कोरिया भी क्वाड में शामिल हो सकता है। वह पहले ही अमेरिका का सैन्य साझेदार है। भारत समेत क्वाड के अन्य सदस्यों के साथ भी उसके करीबी रिश्ते हैं।
यूरोप से फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन इसमें रुचि दिखा सकते हैं। फ्रांस और ब्रिटेन दोनों के पास हिंद महासागर क्षेत्र में इलाके हैं। जर्मनी ने एक हिंद-प्रशांत नीति की घोषणा की है और आसियान ने भी हिंद-प्रशांत पूर्वानुमान की घोषणा की है। कुलमिलाकर ऐसी व्यवस्था बन सकती है जो चीन के दबदबे को भी रोके और साझा मानकों के जरिये इसमें भागीदारी के दरवाजे भी खुले रखे।
लंबे समय से भारत की प्राथमिकता हिंद-प्रशांत क्षेत्र में खुली, समावेशी, पारदर्शी नियम आधारित और सुरक्षा ढांचा तैयार करने की है। जयशंकर ने जिस बहुध्रुवीय व्यवस्था की बात की उसके लिए यह उपयुक्त होगा। परंतु अगर चीन मानता है कि उसकी सुरक्षा के लिए इस क्षेत्र में एकपक्षीय दबदबा जरूरी है तो यकीनन बराबरी की प्रतिक्रिया होगी।
क्वाड को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा माहौल को बदलने के लिए चरणबद्ध तरीके से कई कदम उठाने पर विचार करना चाहिए। विदेश मंत्रियों की आगामी बैठक में अलग-अलग वक्तव्यों के बजाय एक संयुक्त घोषणा करनी चाहिए। इसमें समूह की भूमिका को लेकर सदस्यों की साझा समझ नजर आनी चाहिए। बिना उसके इसे गंभीरता से नहीं लिया जाएगा। कम से कम चीन द्वारा तो कतई नहीं। अंतरराष्ट्रीय समुद्री विधि पंचाट के आदेश के अनुसार दक्षिण चीन सागर में चीन के दावे को नकारते हुए भी संयुक्त वक्तव्य जारी किया जा सकता है।
चीन ने एक देश दो व्यवस्था के रूप में हॉन्गकॉन्ग के लिए 50 वर्षों की जो व्यवस्था कायम की है, क्वाड उस पर भी सहमति बना सकता है। चीन द्वारा दक्षिण चीन सागर के ऊपर के क्षेत्र को एयर डिफेंस इन्फॉर्मेशन जोन घोषित करने को लेकर भी एक चेतावनी जारी की जा सकती है। इसी प्रकार ताइवान के मसले के शांतिपूर्ण निपटारे को लेकर एक वक्तव्य जारी किया जा सकता है। फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों को भविष्य में क्वाड की मंत्रिस्तरीय बैठकों के लिए आमंत्रित किया जा सकता है। इन कदमों पर विचार किया जाना चाहिए और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बदलते सुरक्षा परिदृश्य में प्रतिक्रिया स्वरूप इनका इस्तेमाल किया जाना चाहिए। हो सकता है अभी उनकी जरूरत न हो या शायद कभी उनकी जरूरत न पड़े।
जापान में नए प्रधानमंत्री हैं लेकिन उन्होंने क्वाड को शिंजो आबे की विरासत के रूप में अपनाया है। अमेरिका में अब नए राष्ट्रपति हैं लेकिन आशा यही है कि अमेरिका क्वाड को मजबूती देना जारी रखेगा क्योंकि चीन को लेकर उसकी धारणा बदलती नहीं दिखती। ऑस्ट्रेलिया में भी कुछ लोग क्वाड में गहरी भागीदारी के खिलाफ हैं। हालांकि चीन ने ऑस्ट्रेलिया को लेकर जो दंडात्मक व्यापारिक उपाय अपनाए हैं उनको लेकर राजनीतिक विरोध हो रहा है। ऐसे में ऑस्ट्रेलिया सरकार का चीन के दबाव के आगे झुकते हुए दिखना राजनीतिक रूप से नुकसानदेह होगा।
ऐसे में क्वाड के तमाम देशों के पास ऐसी वजह हैं जिससे कि वे एक समूह के रूप में सहयोग को आगे बढ़ाएं। सदस्य देशों की संयुक्त आर्थिक और सैन्य क्षमताओं की बात करें तो वे चीन पर भारी पड़ेंगे। यह बात अन्य साझेदारों को आकर्षित करेगी, हालांकि वे अलग-अलग स्तर की प्रतिबद्धता ही जता पाएंगे।
क्वाड अब केवल जोखिम से बचाव वाला समूह नहीं बचा है लेकिन बहुपक्षीय साझेदारी और संभावित गठजोड़ को लेकर इसकी राह अनिश्चित है। महामारी के बाद के भूराजनीतिक परिदृश्य में चीन का व्यवहार भी क्वाड की भविष्य की नीतियों को निर्धारित करेगा। बहुत संभव है कि भविष्य का कोई इतिहासकार चीन की एशियाई और वैश्विक उभार की तलाश को अपरिपक्व और गलत फैसले के रूप में आंके जिसके खिलाफ ऐसी प्रतिक्रियाएं सामने आएं जो शी चिनफिंग के चीन से जुड़े स्वप्न को हताश कर दें।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव एवं सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के वरिष्ठ फेलो हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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