तमाल बंद्योपाध्याय
इस बारे में अंतिम निर्णय लिया जा चुका है। यह प्रतिक्रिया एक वरिष्ठ बैंकर ने उस समय दी जब उनसे भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के आंतरिक कार्य समूह की उस रिपोर्ट के बारे में पूछा गया जो निजी क्षेत्र के बैंकों के स्वामित्व मानकों और कॉर्पोरेट ढांचे से संबंधित है। समूह ने अन्य बातों के साथ यह अनुशंसा की है कि बड़े कारोबारी घरानों को चुनिंदा शर्तों के साथ बैंकिंग कारोबार में प्रवेश करने दिया जाए। बैंकर का मानना है कि पश्चिम भारत के चुनिंदा बड़े कारोबारी घराने जल्दी ही बैंकिंग कारोबार में नजर आ सकते हैं।
वह ऐसा क्यों कह रहे हैं? क्या उन्हें कुछ ऐसा पता है जो बाकी लोगों को नहीं पता? सपाट चेहरे के साथ वह कहते हैं कि जब समूह के अधिकांश सदस्य खिलाफ थे तो यह अनुशंसा रिपोर्ट में कैसे आई? दरअसल पांच में से चार सदस्य कारोबारी घरानों को बैंकिंग कारोबार में प्रवेश देने के खिलाफ थे। यह एक अतिरंजित नजरिया है। दूसरा नजरिया कहता है यह आरबीआई की रिपोर्ट नहीं है। क्या इसे गंभीरता से लेना चाहिए? संभव है कि इस अनुशंसा को आरबीआई की इजाजत न मिले। हो सकता है अंतिम निर्णय लेने के लिए एक बाहरी समिति का गठन हो। यदि बड़े औद्योगिक घरानों को बैंक खोलने की इजाजत मिल गई तो क्या होगा? सन 2013 के लाइसेंस मानकों में भी उनके प्रवेश का विरोध नहीं किया गया था। उस वक्त करीब दो दर्जन कॉर्पोरेट घराने बैंक खोलना चाहते थे लेकिन आरबीआई ने किसी को इसके काबिल नहीं पाया। उनमें से दो ने तो चयन के पहले ही अपने आवेदन वापस ले लिए थे। एक शर्त यह थी कि बैंक का संचालन एक नॉन ऑपरेटिव फाइनैंशियल होल्डिंग कंपनी (एनओएफएचसी) के माध्यम से किया जाए।
बाद में जब बैंकिंग नियामक ने स्मॉल फाइनैंस बैंकों के लिए आवेदन मंगाए तो बड़े कारोबारी घरानों को इसकी इजाजत नहीं दी गई। कार्य समूह इसे उलटकर बैंकिंग क्षेत्र को उनके लिए खोलना चाहता है। क्या जरूरी है कि इस बार आरबीआई इन घरानों को बैंकिंग कारोबार के लायक पाएगा? लोग कॉर्पोरेट के बैंकिंग कारोबार में प्रवेश के खिलाफ क्यों हैं? दुनिया भर में इस विषय पर सहमति नहीं है। जापान में इलेक्ट्रॉनिक वस्तु निर्माता बैंक चलाते हैं। ब्रिटेन में खुदरा शृंखला मालिकों के बैंक हैं लेकिन अमेरिका में इसकी मनाही है। भारत को बैंकों की जरूरत है और बड़े कारोबारी घरानों के पास इस कारोबार के लिए पूंजी है लेकिन अधिकांश लोग उन्हें बैंकिंग में नहीं देखना चाहते क्योंकि संचालन को लेकर सवाल उठ सकते हैं। कई बड़ी कंपनियों पर लोगों का यकीन नहीं है कि वहां संचालन बेहतर होगा। कुछ ऐसे भी हैं जो बैंकिंग तंत्र का दुरुपयोग कर चुके हैं। कार्य समूह ने बैंकिंग में कॉर्पोरेट के प्रवेश को लेकर दो अहम शर्तें रखी हैं। उनमें से एक है बैंकिंग नियमन अधिनियम में संशोधन करना ताकि संबद्ध ऋण और बैंकों तथा समूह की अन्य वित्तीय एवं गैर वित्तीय कंपनियों के बीच के खुलासे से निपटा जा सके। फिलहाल अधिनियम की धारा 20 बैंकों को निदेशकों को कोई ऋण या अग्रिम देने से रोकती है। संशोधन के जरिए तथाकथित संबद्ध ऋण को रोका जा सकता है। एनओएफएचसी ढांचा भी मददगार होगा।
दूसरी शर्त है बड़ी कंपनियों के लिए आरबीआई की निगरानी व्यवस्था को मजबूत बनाना। इसमें यह सुझाव भी है कि बैंकिंग नियामक खुद को मजबूत बनाने के लिए कानूनी प्रावधानों का भी परीक्षण करे। परंतु आरबीआई ऐसा कर रहा है यह कैसे पता चलेगा? सन 2018 और 2019 में उसने तीन मौकों पर विज्ञप्ति जारी कर कहा कि भारतीय बैंकिंग व्यवस्था सुरक्षित है। यह हमारे बैंकिंग इतिहास की अनूठी घटना थी। ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि वाणिज्यिक बैंकों, सहकारी बैंकों और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में चल रही दिक्कतों ने वित्तीय स्थिरता को जोखिम उत्पन्न कर दिया था।
आरबीआई ने अधिकांश संकटग्रस्त संस्थानों के लिए हल खोज लिए लेकिन उनका इतनी खस्ता हालत में पहुंचना ही आरबीआई की निगरानी में कमी दर्शाता है। सन 2013 में बैंक लाइसेंस का आवेदन करने वाले कम से कम एक बड़े औद्योगिक घराने ने अपनी एनबीएफसी के जरिये जनता से पैसा जुटाया और समूह की अन्य कंपनियों में वितरित किया। कार्य समूह की कई अनुशंसाएं प्रगतिशील हैं और अतीत की नीतिगत कमियों को दूर करती दिखती हैं। परंतु सर्वाधिक चर्चा बैंकिंग में कॉर्पोरेट के प्रवेश की रही है। यदि उनके लिए दरवाजे खोले गए तो आरबीआई को अत्यधिक सजगता बरतनी होगी। आरबीआई अगर इस सप्ताह मौद्रिक नीति समीक्षा में नीतिगत दर अपरिवर्तित रहने दे तो आश्चर्य नहीं होगा। समिति की अक्टूबर बैठक के बाद से ऐसा कोई बदलाव नहीं आया है जिसके चलते दरें परिवर्तित की जाएं।
अल्पावधि के प्रतिफल में नाटकीय गिरावट पर नियामक की नजर रहनी चाहिए। 10 वर्ष के प्रपत्र पर प्रतिफल 6 फीसदी से नीचे है (जो आरबीआई चाहता है), 91 दिन का टे्रजरी बिल प्रतिफल 3 फीसदी के करीब है। 90 दिन के वाणिज्यिक पत्र की भी कमोबेश यही दर है। अल्पावधि का प्रतिफल नकदी की प्रचुरता से प्रभावित हुआ। व्यवस्था में 5.5 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त नकदी है। इसकी एक वजह विदेशी फंड भी हैं। जो काम नीतिगत दरों में कटौती नहीं कर सकी वह विदेशी फंड ने कर दिया। सवाल यह भी है कि क्या आरबीआई को विसंगतियां दूर करने के लिए कदम उठाना चाहिए या इंतजार करना चाहिए? आरबीआई द्वारा रिवर्स रीपो दर में इजाफे की कोई संभावना नहीं है। अतिरिक्त नकदी से निपटने का एक तरीका यह है कि म्युचुअल फंड को अतिरिक्त नकदी रिवर्स रीपो में जमा करने दी जाए। परंतु इससे अस्थिरता बढ़ सकती है। यह तकनीकी मसला है जिसे हल करना होगा। आरबीआई से यह आशा भी है कि वह सन 2021 के लिए मुद्रास्फीति और वृद्धि के पूर्वानुमान संशोधित कर उन्हें बढ़ाएगा। मुद्रास्फीति के अनुमान से ऊंचा रहने की आशा है जबकि वृद्धि में गिरावट अपेक्षा से कम रह सकती है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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