एस श्रीनिवासन, वरिष्ठ पत्रकार
तेलुगु मतदाताओं ने एक ट्रेंड स्थापित की है। वे बदलाव को शिद्दत से स्वीकार करते हैं और नए सियासी गठबंधन को सिर-माथे पर बिठाते हैं, लेकिन जब वे उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते, तो उनको सत्ता से बाहर करने में भी देरी नहीं करते। पिछले हफ्ते आए ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनावों के नतीजे इसी प्रवृत्ति की पुष्टि करते हैं। इनमें भाजपा ने चुनाव-पूर्व अनुमानों की तुलना में कहीं बेहतर प्रदर्शन किया है। साथ ही, यह भी कहा जा सकता है कि महज छह साल पहले बडे़ उत्साह के साथ के चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) को गले लगाने वाले मतदाता अपना रवैया न सुधारने की वजह से उसे जमीन दिखाने को तैयार हो गए हैं।
हालांकि, इस बार जो बात अलग है, वह है वोटों के ध्रुवीकरण के लिए चरम दक्षिणपंथी तरीकों के इस्तेमाल की भाजपाई रणनीति। उसने ऐसा अपनी जगह बनाने के लिए किया। जीत से उत्साहित भारतीय जनता पार्टी और उसके समर्थक अब अतिरेकी दावा करने लगे हैं। वे कहने लगे हैं कि हैदराबाद नगर निगम चुनाव का यह नतीजा अगले साल हो रहे पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के विधानसभा चुनावों पर खासा असरंदाज होगा। बेशक यह परिपक्व बयानबाजी नहीं कही जाएगी, लेकिन सच यह भी है कि भगवा पार्टी को दक्षिण में अच्छी कामयाबी मिली है और वह इस माहौल का इस्तेमाल पूरब के चुनावी अभियानों में करेगी।
अगर हम इतिहास में झांकें, तो 1980 के दशक की शुरुआत में, अविभाजित आंध्र प्रदेश में अभिनेता से नेता बनने वाले एन टी रामाराव ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया था। तब तेलुगु अस्मिता के नाम पर उन्हें यह सफलता मिली थी। उनका चुनाव अभियान दरअसल, उस घटना के विरोध में शुरू हुआ था, जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री टी अंजैया को राजीव गांधी (जिन्हें इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी के रूप में देखा जा रहा था) ने सार्वजनिक रूप से अपमानित किया था। उन्हें हैदराबाद हवाई अड्डे पर मुख्यमंत्री का रवैया, जो कांग्रेस पार्टी में चाटुकारिता की परंपरा के अनुरूप था, नागवार गुजरा था और वह उखड़ गए थे। मगर 1980 के दशक में मध्य तक एनटीआर भी अपना करिश्मा खोने लगे थे। हालांकि, एक दशक बाद वह सत्ता में फिर से लौटे, लेकिन पारिवारिक कलह में उलझ गए। उन्हें उनके ही दामाद चंद्रबाबू नायडू ने तख्तापलट करके बाहर कर दिया।
आंध्र प्रदेश ने खुशी-खुशी नायडू का खैरमकदम किया और करीब एक दशक तक वह राज्य के मुख्यमंत्री बने रहे। उन्होंने राजधानी का रूप-रंग बदल दिया और जुड़वा शहर साइबराबाद हाई-टेक हब बन गया। माइक्रोसॉफ्ट ने भारत में अपना पहला डेवलपमेंट सेंटर खोला और नायडू विदेशी निवेशकों के चहेते बन गए। उन्होंने यह मुकाम ग्रामीण विकास की कीमत पर हासिल किया था। नतीजतन, 2004 में करिश्माई कांग्रेसी नेता वाईएस राजशेखर रेड्डी ने उन्हें चुनाव में हरा दिया।
वाईएसआर ने सफलतापूर्वक शासन किया और मतदाताओं ने उन्हें दूसरे कार्यकाल से नवाजा। मगर कुछ महीनों बाद ही सितंबर, 2009 में एक हेलीकॉप्टर हादसे में उनकी मृत्यु हो गई। उत्तराधिकारी की लड़ाई ने कांग्रेस में विभाजन की बुनियाद तैयार की। अलग तेलंगाना के लिए आंदोलन कर रहे के चंद्रशेखर राव ने इसे एक अवसर के रूप में देखा। उनके जमीनी आंदोलन के कारण 2014 में तेलंगाना एक अलग राज्य बन गया और वह नवगठित राज्य के मुख्यमंत्री बने।
मगर दूसरे कार्यकाल में उन्हें अपनी राह कठिन लग रही है, क्योंकि उन पर व्यापक भ्रष्टाचार और परिवारवाद का आरोप है। निरंकुश तरीके से सरकार चलाने की उनकी कार्यशाली की चौतरफा आलोचना हो रही है। हालांकि, वह अब भी ग्रामीण मतदाताओं में खासे लोकप्रिय हैं, पर उनकी चमक धूमिल पड़ रही है। उन्होंने 2018 में समय-पूर्व विधानसभा चुनावों का एलान किया था, जिसका फायदा भी उन्हें मिला। मगर अपनी ताकत का इस्तेमाल उन्होंने विपक्ष को खत्म करने में किया, जिसके कारण कांग्रेस व तेलुगुदेशम पार्टी से जमकर दलबदल हुआ है। कांग्रेस के 12 विधायकों ने टीआरएस का दामन थाम लिया है, जबकि टीडीपी लगभग शून्य हो गई है।
भाजपा असल में इन्हीं पार्टियों के खराब प्रदर्शन के कारण पैदा हुए शून्य को भरना चाहती है। 2019 के संसदीय चुनाव में टीआरएस को नौ सीटैं, भाजपा को चार, कांग्रेस को तीन और एआईएमआईएम को एक सीट मिली थी। कांग्रेस का प्रदर्शन खराब रहा था, पर उसके पास अब भी 30 फीसदी वोट शेयर हैं, जबकि टीआरएस के पास 40 प्रतिशत और भाजपा के पास 20 प्रतिशत वोटरों का साथ है। भाजपा ने हालिया उप-चुनाव में दुब्बाक विधानसभा सीट टीआरएस से छीन ली है, जबकि सत्तारूढ़ दल आमतौर पर उप-चुनाव नहीं हारता। टीआरएस के लिए यह दोहरी मार रही, क्योंकि यह सीट केसीआर के करीबी रिश्तेदार की थी। इससे पहले केसीआर की बेटी कविता को भी लोकसभा चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था।
दुब्बाक सीट पर मिली कामयाबी को देखकर भाजपा ने पूरा दमखम लगा दिया। उसने हैदराबाद नगर निगम जीतने का लक्ष्य बनाया और उच्चस्तरीय चुनाव अभियान की शुरुआत की। जहां अन्य पार्टियां सुस्त दिख रही थीं, भाजपा ने गृह मंत्री अमित शाह, पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जैसे तमाम बड़े-बड़े प्रचारकों को मैदान में उतारा। माहौल बनाने के लिए भाजपा को सही नुस्खा मिल गया था। पांच संसदीय सीटों और 24 विधानसभा क्षेत्रों में फैले 150 वार्ड का यह नगर निगम मुख्य रूप से मुस्लिम आबादी वाले पुराने हैदराबाद का हिस्सा है। भाजपा के नेतागण अपने भाषणों से मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने लगे, क्योंकि उनके सामने उनकी तरह की ही राजनीति करने वाली एआईएमआईएम थी। मुकाबला इन दोनों में ही हुआ, और टीआरएस, जिसने सामाजिक आंदोलन के आधार पर पार्टी बनाई थी, मानो अप्रासंगिक हो गई।
हैदराबाद नगर निगम में सबसे बड़ी पार्टी होने का तमगा जरूर टीआरएस ने बचा लिया है, पर यह भाजपा ही है, जिसने सुर्खियां बटोरी हैं। पार्टी आगे भी टीआरएस व एआईएमआईएम के द्वंद्व का फायदा उठाती रहेगी और तेलंगाना में ध्रुवीकरण करती रहेगी। इतना ही नहीं, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में वह हैदराबाद से मिले फायदे का इस्तेमाल करेगी। इन सूबों में विपक्ष के खिलाफ हिंदुत्व का एजेंडा मुख्य रहेगा, जिसे परिवारवाद और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों के साथ हवा दी जाएगी। साफ है, कांग्रेस के बाद अब बारी क्षेत्रीय दलों की है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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