यह अपने आप में एक अमानवीय विचार है कि एक व्यक्ति को सिर्फ इसलिए अछूतों की तरह देखा जाए कि वह किसी बीमारी की चपेट में आ गया है। लेकिन जब से कोविड-19 महामारी का खतरा आया है, इसका बहाना लेकर कई राज्यों में इससे पीड़ित लोगों को एक तरह से ऐसी स्थिति में डाल दिया गया जिसमें उन्हें कई तरह के भेदभाव का शिकार होना पड़ा है। गौरतलब है कि अगर किसी व्यक्ति को कोरोना से संक्रमित पाया जाता है और उसे घर में एकांतवास में रखा जाता है तो उसके दरवाजे के बाहर एक पोस्टर चिपका दिया जाता था। इस पोस्टर में कोविड-19 का मरीज होने सहित बाकी सूचनाएं लिखी रहती थीं।
इसमें बाकी लोगों के लिए यह अघोषित संदेश होता था कि वे उस घर और उसमें रहने वाले व्यक्ति या परिवार से दूर रहें। यह प्रथम दृष्ट्या ही एक अमानवीय व्यवस्था थी, जिस पर अमल कराने वालों ने यह नहीं सोचा कि सावधानी बरतने के नाम पर ऐसे पोस्टर लगाने के नतीजे क्या हो सकते हैं। अब इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत सक्षम अधिकारी के विशिष्ट निर्देश के बिना राज्य सरकार के अधिकारियों के पास मरीजों के घरों के बाहर कोविड पोस्टर चिपकाने का कोई कारण नहीं है।
हालांकि अदालत में महाधिवक्ता ने कहा कि केंद्र सरकार की ओर से ऐसा कोई दिशा-निर्देश नहीं है; कुछ राज्यों ने ऐसा इसलिए किया कि कोई अनजान व्यक्ति घर में दाखिल न हो पाए। इससे पहले दिल्ली सरकार ने भी हाईकोर्ट में कहा था कि ऐसा करने के लिए अधिकारियों को निर्देश नहीं है। सवाल है कि अगर कहीं कोविड-19 के मरीजों के घर के बाहर पोस्टर चिपकाए जा रहे थे, तो ऐसा किसके निर्देश पर हो रहा था! यों अब दिल्ली, पंजाब और ओड़ीशा की सरकारों ने ऐसा करने पर रोक लगा दी है।
संक्रमण से बचाव के लिए उचित कदम जरूर उठाए जाने चाहिए, लेकिन इसके लिए मरीज के घर को चिह्नित करके उसके घर के बाहर पोस्टर के जरिए उसके संक्रमित होने की सूचना सार्वजनिक करना एक विचित्र कोशिश थी। मरीज या पीड़ित व्यक्ति सहित उसके आसपास के लोगों को कम से कम इतना जागरूक माना जा सकता है और उन पर विश्वास किया जा सकता है कि वे अपने स्तर पर भी सावधानी बरतेंगे। लेकिन उसके लिए किसी पीड़ित को अछूत जैसे हालात में डाल देना किसी लिहाज से उचित नहीं कहा जा सकता।
सच यह है कि हमारे समाज में पहले से ही लोग कई तरह के भेदभाव की मानसिकता के शिकार रहते आए हैं। अछूत समस्या का दंश समाज में निचली कही जाने वाली जातियों-वर्गों को किस तरह झेलना पड़ा है, यह किसी से छिपा नहीं है। इसके बावजूद बीमारी एक ऐसी स्थिति होती है, जिसमें लोगों की कोशिश होती है कि वे जरूरत पड़ने पर अपनी सीमा में पीड़ित या उसके परिवार की मदद करें। लेकिन कोविड-19 के मरीज को लेकर खुद सरकारी अधिकारियों की ओर से ही इसके पीड़ितों से दूर रहने के संदेश सार्वजनिक किए गए।
यह न केवल एक व्यक्ति की निजता का हनन था, बल्कि सामाजिक स्तर पर उसे अछूत की तरह बर्ताव होने और इससे उपजी असहायता की हालत में डाल देना था। किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह स्थिति स्वीकार्य नहीं हो सकती थी। रोग चाहे कितना भी खतरनाक क्यों न हो, उसके इलाज के लिए उचित व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी है। लेकिन साथ ही सरकार को वैसी तमाम स्थितियों को रोकना चाहिए, जिससे समाज में इंसानी संवेदनाएं बाधित हों या फिर किसी भी व्यक्ति को किसी भी वजह से अछूत समझा जाए!
सौजन्य - जनसत्ता।
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