के पी कृष्णन
कई फर्मों को महामारी से उपजी अनिश्चितताओं से निपटने के लिए पूंजी की जरूरत है। हाल के महीनों में देश के भीतर बड़े पैमाने पर पोर्टफोलियो पूंजी का आगमन होने से इस जरूरत को पूरा करने में मदद मिली है। पार्टिसिपेटरी नोट्स (पी-नोट्स) के इस्तेमाल में भी वृद्धि हुई है। इस तरह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई), संस्थागत विदेशी निवेशकों (एफआईआई) के पूंजी प्रवाह और पी-नोट्स से जुड़े पुराने विमर्श फिर से सतह पर आ गए हैं।
पुराने समय के भारत में यह दलील दी जाती थी कि एफडीआई का स्वागत होना चाहिए क्योंकि इससे कारखाने बनाने एवं नौकरियां देने में मदद मिलती है लेकिन पोर्टफोलियो निवेश को अल्पावधि के प्रतिफल पर केंद्रित होने के नाते अस्थिर माना जाता था। उस समय कहा जाता था कि नीति-निर्माता निवेशकों, निवेशितों एवं वांछनीय या अवांछनीय वित्तीय साधनों के चरित्र का निर्धारण करेंगे और इस नजरिये को पुष्ट करने वाली पूंजी नियंत्रण की एक प्रणाली स्थापित करेंगे।
इक्विटी का प्राथमिक बाजार इसलिए अहम है कि इससे फर्मों को जोखिम पूंजी मिलती है। इससे जुड़े फायदों को फौरन सभी अपना लेते हैं। लेकिन प्राथमिक बाजार में शेयर खरीदने वाले एक निवेशक के साथ क्या होता है? क्या यह निवेशक इन शेयरों को हमेशा के लिए अपने पास रखने वाला है? अगर निवेशकों को निवेश से निकलने का लचीलापन नहीं है तो वह फिर निवेश ही क्यों करेगा? अगर किसी नियोक्ता को यह बताया जाए कि किसी कर्मचारी को बर्खास्त करना अव्यावहारिक है तो क्या उससे नियुक्त करने के रुझान में कोई बदलाव नहीं आएगा?
एक लिक्विड बाजार में एक निवेशक बिना किसी मेहनत के अपने मनचाहे वक्त पर बड़े पैमाने पर शेयरों की बिक्री कर सकता है। जब द्वितीयक बाजार में तरलता होती है तो पूंजी प्राथमिक बाजार की तरफ आकर्षित होती है। यहां तरलता प्रीमियम मिलता है यानी अधिक तरल शेयरों को ऊंचा मूल्यांकन मिलता है। खासकर बड़े पूंजी आधार वाले संस्थागत निवेशक गैर-तरलीकृत परिसंपत्तियों में निवेश से परहेज करते हैं। विदेशी एवं घरेलू संस्थागत निवेशक दोनों के ही तरलता संबंधी कुछ नियम हैं जिनसे वे द्वितीयक बाजार में एक स्तर तक सक्रियता नहीं रखने वाली कंपनियों में निवेश से परहेज करते हैं। ये अंतर्संबंध इस पर जोर देते हैं कि नीति-निर्माता वित्तीय प्रणाली के आकर्षक पक्षों के बारे में भावनात्मक आधार पर सोचकर चयन नहीं कर सकते हैं। समूची आर्थिक व्यवस्था को ही फलना-फूलना होता है और वित्त के तमाम अंगों को एक-दूसरे की जरूरत होती है।
इस तरह द्वितीयक बाजार ऐसी चीज नहीं है कि उसे सट्टेबाजी से संचालित बताते हुए हेय दृष्टि से देखा जाए। पहली नजर में प्राथमिक निवेश का घटित होना ही जरूरी है। नीति-निर्माताओं को द्वितीयक बाजार में ज्यादा तरलता लाने यानी अधिक कारोबारी गतिविधियों की जरूरत है ताकि निवेशकों का भरोसा बढ़े और तरलता प्रीमियम मिल सके। द्वितीयक बाजार में इक्विटी की खरीद-बिक्री को बढ़ावा देने के इरादे से लाए गए तमाम सुधारों के पीछे यही अभिप्रेरणा होती है।
विदेशी निवेशक अक्सर भारतीय फर्मों को बेहतर कीमत पर पूंजी मुहैया कराते हैं। एक बड़ी भारतीय इस्पात कंपनी कच्चे माल के तौर पर लौह अयस्क एवं कोकिंग कोक की खपत करती है और आर्थिक नीतियां ऐसी होनी चाहिए जो वैश्विक कीमतों पर इस कच्चे माल तक पहुंच को सुनिश्चित कर सकें ताकि भारत की कंपनी भी वैश्विक इस्पात कंपनियों के साथ प्रतिस्पद्र्धा में बनी रहे। लेकिन इसी के साथ पूंजी एक ऐसा इनपुट है जिसका इस्तेमाल भारतीय इस्पात कंपनी कर रही है और वैश्विक प्रतिस्पद्र्धा में टिके रहने के लिए जरूरी है कि भारतीय फर्मों को वैश्विक कीमतों पर पूंजी मिल सके। इसके लिए जरूरी है कि भारत के द्वितीयक बाजार में पूरी तरह सक्रिय विदेशी निवेशक मौजूद हों। ऐसा तभी होगा जब भारतीय द्वितीयक बाजार में तरलता हो और अगर ऐसा न हुआ तो वैश्विक निवेशक इससे निकल जाएंगे।
भारतीय वित्तीय बाजार में एफआईआई की भागीदारी का यह बौद्धिक ढांचा नब्बे के दशक में सी रंगराजन की देन थी। रंगराजन की अगुआई में भुगतान संतुलन पर गठित उच्च-स्तरीय समिति ने एफआईआई को भारतीय वित्तीय बाजार तक क्रमिक रूप से पूर्ण पहुंच देने का सुझाव दिया था। समय के साथ कानूनी प्रारूप में हुए बदलावों के अनुरूप एफआईआई को भारतीय स्टॉक एक्सचेंजों में सूचीबद्ध या सूचीबद्ध होने वाली कंपनियों द्वारा जारी शेयरों, ऋणपत्रों एवं वारंट और घरेलू म्युचुअल फंड योजनाओं में निवेश की अनुमति दी जा चुकी है। यह प्रक्रिया अधिक खुलेपन की ही तरफ बढ़ी है और बहुत सुधारों को ही वापस लिया गया है।
एफआईआई भारत में निवेश की मंशा रखने वाले किसी भी निवेशक को पी-नोट्स रूपी वित्तीय साधन जारी करते हैं। पी-नोट्स का विकल्प उन निवेशकों के अनुकूल होता है जो तमाम वजहों से हरेक जगह पंजीकरण की समय-साध्य एवं कष्टदायक नियामकीय प्रक्रिया से नहीं गुजरना चाहते हैं। मसलन, अमेरिका के यूनिवर्सिटी एनडॉउमेंट फंड एवं सिविल सर्विस पेंशन फंड भारत में पी-नोट्स के जरिये कई दशकों से निवेश करते रहे हैं। आम तौर पर वे किसी उभरते बाजार में अपने फंड का बहुत छोटा हिस्सा ही निवेश करते हैं। यह दर्शाता है कि हरेक देश में एक औपचारिक कानूनी मौजूदगी से जुड़े ऊपरी खर्च न्यायोचित नहीं हैं।
वैश्विक निवेशक अक्सर ऐसे निवेश विचारों के संदर्भ में सोचते हैं जिन्हें तमाम देशों में लागू किया जा सके। मान लीजिए, वे उन दवा कंपनियों के एक सूचकांक पर डेरिवेटिव में कारोबार करते हैं जो कोविड-19 से जुड़े टीकों एवं दवाओं की बिक्री में अच्छा प्रदर्शन करेंगी। ऐसे साधनों का सृजन वित्तीय फर्में करती हैं और उनकी नजरें कुछ भारतीय कंपनियों के शेयरों पर जा टिकती हैं। फिर अंतिम-निवेशक, एक वित्तीय मध्यवर्ती फर्म एवं भारत में पूंजी प्रवाह के साथ एक त्रिपक्षीय संबंध होता है जहां अंतिम-निवेशक वांछित एक्सपोजर मिलता है और वित्तीय मध्यवर्ती को पी-नोट्स निवेशक के तौर पर देखा जाता है। अनुमानों के मुताबिक, वैश्विक निवेश प्रवाह का एक बड़ा हिस्सा ऐसे ही तरीकों से अंजाम दिया जाता है।
अतीत में केंद्र सरकार ने इन तौर-तरीकों को प्रोत्साहित किया था। उदाहरण के तौर पर ओएनजीसी विनिवेश की कामयाबी के बारे में 21 मार्च 2004 को प्रकाशित 'फाइनैंशियल एक्सप्रेस' के मुखपृष्ठ पर यह रिपोर्ट छपी, 'सरकार ने पहले बाजार नियामक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड से मर्चेंट बैंकरों को पी-नोट्स जारी करने की मंजूरी देने के बारे में संपर्क साधा था। इस तरीके से भारत में पंजीकरण नहीं रखने वाले फंड भी भारत में निवेश कर सकते हैं। सरकार के अनुरोध की वजह यह थी कि सरकार विनिवेश लक्ष्य को हासिल करने की राह में कोई भी कमी नहीं छोडऩा चाहती थी क्योंकि इससे फील-गुड फैक्टर को चोट पहुंचती।'
भारत में कर अनुपालन की स्थिति सुधरने और अधिक परिष्कृत वित्तीय प्रणाली में कर प्रशासक का काम भी बढ़ गया है। इसके लिए कर एवं प्रवर्तन मशीनरी में अधिक कौशल एवं क्षमता की दरकार है। वित्तीय आर्थिक नीति में कर अधिकारियों की सुविधा को अधिक तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए। हमारा लक्ष्य भारतीय कंपनियों के लिए कम लागत पर पूंजी जुटाने का होना चाहिए जिसके लिए सभी निवेशकों की तरल एवं सक्षम बाजारों तक पहुंच जरूरी है।
(लेखक सेवानिवृत्त केंद्रीय सचिव एवं एनसीएईआर के प्रोफेसर हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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