आदिति फडणीस
पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम से तृणमूल कांग्रेस के विधायक शुभेंदु अधिकारी नारकोटिक्स, ड्रग्स ऐंड साइकोट्रॉपिक सब्सटैंसेस (एनडीपीएस) अधिनियम की वजह से पार्टी और राज्य में अपनी विधानसभा सीट से इस्तीफा दे सकते हैं और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हो सकते हैं।
तृणमूल प्रमुख और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खेमे से बाहर होने के बाद उनके पास एक विकल्प था लेकिन राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ प्रदेश सरकार का पसंदीदा हथियार एनडीपीएस कानून है। शुभेंदु को इस बात का डर है कि अगर उनके पास केंद्र सरकार का संरक्षण नहीं होता तो उनके हजारों समर्थकों को राज्य सरकार द्वारा जेल में डाल दिया जा सकता है।
जंगलमहल क्षेत्र और अल्पसंख्यक बहुल मुर्शिदाबाद के क्षेत्रों में शुभेंदु की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली पकड़ है जो वोट में तब्दील होती रही है लेकिन उनके पार्टी से बाहर होने पर तृणमूल यह अहम चेहरा खो देगी। दूसरी तरफ भाजपा को एक ऐसा चेहरा मिलेगा जिसकी उसे सख्त जरूरत है, खासतौर पर ग्रामीण बंगाल क्षेत्र के लिए। शुभेंदु दक्षिण बंगाल की राजनीति में अहम व्यक्ति कैसे बने इसकी एक पृष्ठभूमि है। उनके पिता शिशिर अधिकारी जाने-माने कांग्रेसी नेता रहे हैं और वह पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री भी थे। वामदलों के वर्चस्व वाले क्षेत्र कांथि और तमलुक जैसे क्षेत्रों ने विद्रोह के स्वर बुलंद करते हुए कांग्रेस का झंडा फहराया जहां से इनका ताल्लुक है।
वामदलों का साम्राज्य जब खत्म होने के कगार पर पहुंचने लगा तब नंदीग्राम ने इसके पतन में अहम भूमिका निभाई और शुभेंदु ने ही वामपंथियों के 'भूमि हथियाने' के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन का नेतृत्व किया। ममता ने उन्हें तृणमूल युवा इकाई का अध्यक्ष बनाया और जंगलमहल के लिए पार्टी का पर्यवेक्षक बनाया जब इस क्षेत्र पर उस वक्त माओवादी समूहों की पकड़ थी। पांच साल से भी कम समय में तृणमूल पार्टी, कांग्रेस और वामपंथी दलों के बीच अपना राजनीतिक स्थान हासिल करने में सफल रही। पार्टी ने इस क्षेत्र के उन युवकों का विश्वास हासिल कर लिया जो वामपंथी उग्रवाद की धारा से जुड़े थे।
शुभेंदु 2009 में तमलुक से लोकसभा के लिए चुने गए और उन्होंने माकपा के दिग्गज लक्ष्मण सेठ को 172,000 वोटों से हराया था। उन्होंने 2014 में भी माकपा के इब्राहिम अली को हराकर तमलुक संसदीय क्षेत्र पर कब्जा बरकरार रखा। तृणमूल ने 2016 में उन्हें नंदीग्राम से विधानसभा चुनाव में मैदान में उतारा था। उन्हें वाममोर्चा और कांग्रेस के संयुक्त उम्मीदवार अब्दुल कादिर शेख के खिलाफ चुनाव में खड़ा किया गया था। शुभेंदु 67 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल कर चुनाव जीत गए। इस शानदार जीत के बाद ममता ने उन्हें परिवहन मंत्री बनाया। उन्हें 2018 में पर्यावरण मंत्रालय का प्रभार भी दिया गया था। लेकिन ममता उनके इस उभार को देखते हुए सतर्क भी हो रही थीं क्योंकि पार्टी का उत्तराधिकार सौंपने को लेकर ममता की एक योजना थी और इसमें शुभेंदु शामिल नहीं थे। ममता ने एक समानांतर संगठन 'तृणमूल जुबा' बनाया और उनके भतीजे अभिषेक को इसका नेतृत्व करने के लिए चुना गया। बाद में तृणमूल जुबा को भंग कर दिया गया और तृणमूल की युवा इकाई को फिर से बढ़ाने की कोशिश की गई जिसका नेतृत्व अभिषेक के हाथों में चला गया।
शुभेंदु का इस्तेमाल पार्टी का दायरा बढ़ाने के लिए जरूर किया गया लेकिन उन्हें ममता का करीबी कभी नहीं होने दिया गया। एक विधायक के रूप में उन्होंने कभी भी कोलकाता में एक रात नहीं बिताई। वह अपने निर्वाचन क्षेत्र से राज्य की राजधानी के लिए हर दिन 200 किलोमीटर की यात्रा करते हैं और कई दफा अपने घर रात 1 बजे तक पहुंचते हैं और फिर तड़के निकल जाते हैं। मुख्यमंत्री और उनके सबसे अहम मंत्री के बीच भरोसे की कमी साफ नजर आ रही थी। उन्होंने एक बार कहा, 'मैं परिवहन मंत्री था लेकिन ममता ने मंत्रालय चलाया।'
नंदीग्राम में हर साल 21 जुलाई को शहादत दिवस के रूप में याद किया जाता है। शुरुआत में तृणमूल ने इसे बड़ी धूमधाम से मनाया। लेकिन वाम मोर्चा के गोलीबारी के आदेश में जमीन की रक्षा के लिए आंदोलन कर रहे मारे गए लोगों को याद करने की रस्म अब थोड़ी ठंडी पड़ गई है। हालांकि शुभेंदु अब भी पूरी ईमानदारी से इसका पालन करते हैं। इस साल भी शहादत दिवस ऑनलाइन मनाया गया।
तृणमूल ने 23 जुलाई को अपनी कोर कमेटी की बैठक बुलाई थी। इस बैठक में ममता ने घोषणा की कि सभी पर्यवेक्षकों के पद अब खत्म कर दिए गए हैं। इससे शुभेंदु सबसे ज्यादा प्रभावित हुए क्योंकि इसके साथ ही उन्हें यह संकेत दिया गया कि जंगलमहल में इनका काम अब खत्म होता है और अब उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र तक ही सीमित रहना चाहिए। इस साल की शुरुआत में बंगाल को चक्रवात की मार झेलनी पड़ी थी। पूर्वी मिदनापुर बुरी तरह से प्रभावित हुआ था लेकिन पुनर्वास की रफ्तार वहां सबसे धीमी रही और पूरा जोर दक्षिण 24 परगना पर था। रिश्तों में कड़वाहट का अंदाजा इस बात से भी मिलता है कि बंगाल में कोविड-19 के प्रसार के बाद मुख्यमंत्री ने शुभेंदु को छोड़कर हर मंत्री के साथ बातचीत की और योजनाएं तैयार कीं।
दुर्गा पूजा के बाद शुभेंदु के निर्वाचन क्षेत्र में उनके द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों में कुछ ऐसे पोस्टर आए जिसमें लिखा था, 'दादा के अनुयायी'। इन बैठकों में तृणमूल का कोई बैनर या ममता की तस्वीर नहीं थी। इस दौरान तृणमूल के नेताओं ने नंदीग्राम की यात्रा की और एक बैठक की जिसमें उन्हें 'मीर जाफर' तक करार दे दिया गया।
हालांकि अब सुलह के प्रयास जारी हैं। लेकिन इतना तो तय दिखता है कि शुभेंदु अभिषेक के नेतृत्व को स्वीकार नहीं कर पाएंगे। उनका दल बदलना बंगाल की राजनीति में भाजपा के लिए बड़ा परिवर्तन लाने वाला हो सकता है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
0 comments:
Post a Comment