शंकर अय्यर
जिसकी आशंका थी, वही हुआ। पिछले हफ्ते रिजर्व बैंक की मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी (एमपीसी) ने मौद्रिक नीति जारी की और ब्याज दरों में कोई बदलाव न करते हुए रेपो रेट को 3.35 फीसदी पर और रिवर्स रेपो रेट को चार फीसदी पर बरकरार रखा है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एमपीसी ने जब तक आवश्यक हो, अपना आक्रामक रूख जारी रखने का फैसला किया है। 'आवश्यक' क्या है, यह अनिवार्य रूप से नजरिये का विषय है। इसमें कोई विवाद नहीं है कि उपभोग और निवेश को बढ़ाने, व्यवसायों को सक्षम बनाने और बैंकों को बचाने तथा वसूली को प्रोत्साहित करने के लिए ढांचागत स्थिरता सर्वोपरि जरूरत है। कम दरों और 'आक्रामक रूख' की कीमत प्रभावी रूप से बचतकर्ताओं को भुगतनी पड़ रही है।
आइए, जरा इस पर विचार करते हैं: उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति 7.5 फीसदी के करीब है और एमपीसी का मानना है कि मुद्रास्फीति की दर ऊंची बनी रहेगी। नियमित बचत खाते में ब्याज दर तेजी से कम हुई है और मुश्किल से तीन फीसदी रह गई है तथा एक साल की जमा राशि पर ब्याज दर वर्तमान में छह फीसदी से कम है-यानी 365 दिन की जमा राशि पर बचत खाते से भी कम ब्याज मिल रहा है। हैरानी की बात नहीं कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के चेयरमैन दिनेश खारा मानते हैं कि जमा दरें कम हुई हैं और उसकी वजह से कर्ज दरों में कमी हुई है।
ऐसी धारणा है कि भारत की युवा आबादी को देखते हुए निवेश को बढ़ावा देने के लिए उपभोग को बढ़ाना और कम ब्याज दरों के साथ विकास को बढ़ावा देना सही दृष्टिकोण है। सवाल यह है कि इसका खामियाजा कौन भुगतता है। ऐसे में बचतकर्ताओं के ब्याज का क्या होगा? बुजुर्गों और पेंशनरों का क्या होगा, जिन्होंने जीवन भर काम किया, सेवानिवृत्ति के बाद के लिए योजनाएं बनाईं और नियत आय उपकरणों में निवेश से मिलने वाले रिटर्न पर निर्भर हैं? एक अनुमान के मुताबिक, भारत में 2021 में साठ वर्ष से ज्यादा उम्र के लोगों की संख्या 14.3 करोड़ को पार कर जाएगी। यह संख्या लगभग रूस की कुल आबादी के बराबर है। ध्यान रहे कि वरिष्ठ नागरिक बचतकर्ता और उपभोक्ता होने के साथ ही मुखर राजनीतिक मतदाता भी हैं।
सिर्फ वरिष्ठ नागरिक ही ब्याज से होने वाली आय पर निर्भर नहीं हैं। डिपोजिट गारंटी एंड इंश्योरेंस कॉरपोरेशन के अनुसार, भारत के बैंकों में 2.35 अरब से ज्यादा खाते हैं, जिनमें 134 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा जमा हैं। इनमें से 51 फीसदी से ज्यादा खातों में पांच लाख रुपये से कम जमा हैं और इनमें कुल 68.7 लाख करोड़ रुपये जमा हैं, जो शिक्षा, विवाह और वृद्धावस्था के निमित्त रखे गए हैं। रिटर्न के नुकसान से ब्याज की आय पर निर्भर बचतकर्ताओं के एक बड़े तबके की भविष्य की योजनाएं प्रभावित होंगी। तर्क दिया गया कि विकासशील अर्थव्यवस्था की पूंजी की आवश्यकता को देखते हुए कम ब्याज दरों की जरूरत होती है और समझौताकारी तालमेल अनिवार्य है। क्या यह समझौताकारी तालमेल सफल होता है? मिल्टन फ्रीडमैन ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि नीतियों और कार्यक्रमों को जांचने में सबसे बड़ी गलती यह होती है कि उन्हें नतीजे के बजाय इरादे से परखा जाता है। इरादे को शायद ही तथ्यों से आश्वस्त किया जाता है। यह याद रखने की जरूरत है कि लॉकडाउन तक अर्थव्यवस्था में आठ तिमाहियों से सुस्ती थी और अब यह तकनीकी रूप से मंदी में चली गई है।
इस अवधि के दौरान कम ब्याज दरों के लिए निरंतर शोर मचा है, क्योंकि यह विकास को प्रोत्साहित करने के लिए रामबाण है और रिजर्व बैंक ने विधिवत उपकृत किया है। सवाल यह है कि क्या इस धारणा ने काम किया है। मार्मिक तथ्य यह है कि इसके सबसे बड़े लाभार्थी बड़े कॉरपोरेट और सरकार रही हैं, जो, मुद्रास्फीति-रेपो मैट्रिक्स को देखते हुए, प्रभावी रूप से नकारात्मक दरों का फायदा उठा रहे हैं। भले ही नीतिगत दर 2014 के आठ फीसदी से घटकर 2020 में चार फीसदी रह गई हो, रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, सुस्त बैंकिंग व्यवस्था के कारण ज्यादातर कर्ज लेने वालों के लिए औसत कर्ज दर अब भी 9.5 फीसदी से ज्यादा है। खुदरा कर्ज लेने वालों के लिए कहानी में कोई फर्क नहीं आया है, जैसे होम लोन या शिक्षा ऋण लेने वालों के कर्ज की ब्याज दर सात से नौ फीसदी के बीच है।
विडंबना यह है कि उधारकर्ता सस्ते पैसे और दरों की वास्तविकता के बीच दांव लगाते रहते हैं। निश्चित रूप से महामारी के दौरान कम ब्याज दर ने व्यवस्थागत स्थिरता को सुनिश्चित किया है-ज्ञात-अज्ञात के संभावित परिणामों, मोरेटोरियम, पुनर्गठन इत्यादि को देखते हुए। काफी हद तक जीएसटी संग्रह, शेयर बाजार के संकेतों, उच्च आवृत्ति डेटा और कंपनी परिणामों को
देखते हुए रिकवरी के संबंध में भी आशावाद की झलक दिखती है। हालांकि लोकप्रिय चर्चा 'वी-शेप' रिकवरी (तेज आर्थिक गिरावट के बाद त्वरित व सतत बहाली) को लेकर है और यह सांख्यिकीय रूप से मान्य हो सकती है, मगर राजनीतिक अर्थव्यवस्था 'के-शेप' रिकवरी (जब मंदी के बाद अर्थव्यवस्था के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग दर, समय व मात्रा में बहाली होती है) की ओर अग्रसर है। कॉरपोरेट परिणामों में बड़े लाभ बड़ी संस्थाओं के लाभ कमाने से संबंधित है और छोटे व मध्यम उद्यम भी अनियोजित क्षेत्र की तरह हैं।
न्यूनतम ब्याज दर विकास को बढ़ाएगी, यह उम्मीद आवश्यक कानून और पर्याप्त शर्तों पर निर्भर करती है। मांग प्रेरित निवेश के लिए उच्च खपत की उम्मीद वैध है। लेकिन युवा आबादी द्वारा की जाने वाली खपत इच्छा और क्षमता तथा आय और नौकरी की सुरक्षा पर निर्भर करती है। ऐसे समय जब नौकरी जाने का भय हो बचतकर्ता खर्च में कटौती करने के साथ ही जोखिम से बचना चाहेंगे। आगामी बजट मध्यम और दीर्घकालिक बचत उपकरणों को तैयार करने का अवसर देगा, जो बचतकर्ताओं की जरूरतों को पूरा करेंगे। कर्ज और इक्विटी में बचत पर कर लगाने की विसंगति को भी दूर किए जाने की जरूरत है। एनबीएफसी कंपनियों की विफलता ने बिना जोखिम वाली पूंजी की परिभाषा को चुनौती दी है। ऐसे में यस बैंक और लक्ष्मी विलास बैंक के जमाकर्ताओं को जिन संकटों का सामना करना पड़ा, उन पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। समय आ गया है कि भारत इसकी समीक्षा करे कि कैसे वह कम लागत वाली अर्थव्यवस्था बन सकता है और सरकारी खर्च की लागत को नियंत्रित कर इसकी शुरुआत की जा सकती है। इसमें कोई विवाद नहीं है कि भारत को पचास खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के लिए पूंजी की जरूरत है। इस लक्ष्य को हासिल करने और विकास को बनाए रखने के लिए नीतियों में कल्पनाशीलता और नवाचार लाने की जरूरत है।
सौजन्य - अमर उजाला।
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