राजेश प्रताप सिंह
वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन का विरोध करने वालों के अनुसार यह केवल बड़े किसान या बिचौलियों का आंदोलन है, जबकि असली किसानों को इससे बहुत फायदा है। इसके पहले कि हम किसी निर्णय पर पहुंचें, हमें यह समझना जरूरी है कि वर्तमान में क्या स्थिति है। पूर्वी उत्तर-प्रदेश में अभी किसानों से धान व्यापारी 900-1000 रुपये क्विंटल में खरीद कर रहे हैं। प्रश्न यह उठता है कि जब खरीद केंद्रों पर खरीदारी हो रही है और सरकार लंबे-चौड़े दावे भी कर रही है, तो ये धान किसका है? इसके लिए हमें पूरे तंत्र को समझना होगा।
प्रमुख रूप से धान, गेहूं और गन्ना ये तीन फसलें हैं, जिन्हें किसान ज्यादा मात्रा में उगाता और बेचता है। गन्ना तो शुद्ध रूप से बेचने वाली फसल है, पर धान और गेहूं को खाने के लिए भी उगाना जरूरी है। बस यहीं से किसान का शोषण शुरू होता है। इस धंधे से जुड़ा हर व्यक्ति जानता है कि किसान अपने खाने के लिए धान और गेहूं जरूर लगाएगा और उसके पास इतनी क्षमता नहीं है कि वह उसे कुछ दिन भी अपने पास रख सके, क्योंकि एक तो भंडारण क्षमता का अभाव और दूसरे पैसों की जरूरत उसे मजबूर कर देती है कि वह तुरंत अपनी फसल बेचे। सरकार खरीद केंद्रों के माध्यम से किसानों से उपज की खरीद करती है। ज्यादातर खरीद केंद्र किसान सहकारी समितियों में खुलते हैं। यद्यपि सरकार प्रति क्विंटल पर कुछ रुपये कमीशन के तौर पर देती है, पर उससे संतोष नहीं और फिर यहीं से भ्रष्टाचार का चक्र शुरू होता है।
सचिव को खरीद हेतु बोरा लेने में भी दो रुपये प्रति बोरा देना पड़ता है। (यह तीन साल पुराना रेट है।) यद्यपि उत्तर प्रदेश में वर्तमान सरकार ने खतौनी ऑन-लाइन कर दी है। अब जिसके नाम से जितना खेत होगा, वह उसी अनुपात में बेच सकता है। अब सचिव अपने ग्रुप के किसानों के नाम दर्ज कराकर उनके नाम बेच देता है। अगर वह सीधे किसान से लेता है, तो उसमें कम से कम दस किलो प्रति क्विंटल अतिरिक्त लेता है और ढोने के नाम पर; जिसे पल्लेदारी कहते हैं; कुछ अतिरिक्त पैसे। सबसे मजेदार बात यह है कि इससे किसान को तकलीफ नहीं है, क्योंकि इस प्रक्रिया में किसान को सरकारी मूल्य से दो सौ या तीन सौ रुपये ही कम मिलता है। पर सचिव, स्थानीय बनिया और सचिव के ग्रुप के किसान मिल कर एक कॉकस बनाते हैं।
सचिव किसी न किसी बहाने से धान नहीं लेगा। धान में नमी बनी रहती है, इसलिए सूखने पर उसका वजन कम हो जाता है और उसका खामियाजा सचिव को भरना पड़ता है। इसके साथ ही धान में गंदगी और खराब धान जिसे पूरब में पईया कहते हैं, रहता ही है। और इसी का सहारा लेकर किसान का शोषण किया जाता है। सामान्य किसान धान बहुत दिन तक अपने पास रख नहीं सकता, उसे स्थानीय व्यापारी के हाथ बेचना ही पड़ता है। इसके अलावा एफसीआई यानी सरकार ने प्रति क्विंटल धान, 67 किलोग्राम चावल का मानक रखा था। यह रिकवरी रेट बहुत ज्यादा है (सामान्य तौर पर रिकवरी 63 फीसदी होती है), अत: मिल वाला पहले से सस्ते में धान खरीद कर केंद्र को अपने किसान के नाम से बेचता है।
पूर्वी उत्तर-प्रदेश में चार एकड़ से ऊपर की जोत वाले बहुत कम किसान होंगे। नए कृषि कानूनों से सबसे ज्यादा प्रभावित पंजाब और हरियाणा के किसान हैं, जहां बड़ी जोत है, और उनसे भी ज्यादा आढ़ती वर्ग। उन्हें लगता है कि नए कानून से बड़े कॉरपोरेट घराने इस कार्य में आ जाएंगे और उनका धंधा खत्म हो जाएगा। उनकी आशंका वाजिब है, क्योंकि कोविड काल ने यह बता दिया कि केवल खाद्यान्न का व्यापार ही शाश्वत है, बाकी जरूरतें लोग कम से कम में पूरा कर लेते हैं। अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफलो ने अपनी पुस्तक पुअर इकोनॉमिक्स में लिखा है कि गरीब देशों में बहुधा कार्यक्रम या नीतियां इसलिए नहीं फेल होती कि वे गलत हैं, बल्कि इसलिए कि वे गलत तरीके से कार्यान्वित की जाती हैं। चाहे किसान की फसल आढ़ती ले या बड़े कॉरपोरेट घराने, दाम उसे दोनों दशाओं में तब तक नहीं मिलेगा, जब तक सरकार उनकी समस्याओं पर गौर नहीं करेगी और व्यावहारिक समाधान नहीं निकालेगी। जरूरत इच्छाशक्ति और राजनीति से परे उठने की है।
सौजन्य - अमर उजाला।
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