पंकज चतुर्वेदी
बीते तीन दशकों से कागजों पर चल रही बुंदेलखंड की केन व बेतवा नदी को जोड़ने की योजना के लिए पर्यावरणीय मंजूरी फिर से संदिग्धता के दायरे में आ गई है। यह बात साफ होती जा रही है कि 45,000 करोड़ रुपये खर्च कर बुंदेलखंड को पानीदार बनाने का जो सपना बेचा जा रहा है, उसमें पानी तो मिलेगा, पर इसकी कीमत बहुत कुछ देकर चुकानी होगी। 'नदियों का पानी समुद्र में न जाए, बारिश में लबालब होती नदियां गांवों-खेतों में घुसने के बजाय ऐसे स्थानों की ओर मोड़ दी जाए, जहां इसे बहाव मिले तथा जरूरत पर इसके पानी का इस्तेमाल किया जा सके', इस मूल भावना को लेकर नदियों को जोड़ने के पक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं।
पर केन-बेतवा के मामले में तो 'नंगा नहाए निचोड़े क्या’ की लोकोक्ति सटीक बैठती है। केन और बेतवा, दोनों का उद्गम स्थल मध्य प्रदेश में है। दोनों नदियां लगभग समानांतर एक ही इलाके से गुजरती हुई उत्तर प्रदेश में यमुना में मिल जाती हैं। जाहिर है कि जब केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प वर्षा या सूखे का प्रकोप होगा, तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी। वैसे भी केन का इलाका पानी के भयंकर संकट से जूझ रहा है। वर्ष 1990 में केंद्र की एनडीए सरकार ने नदियों के जोड़ के लिए एक अध्ययन शुरू करवाया था और इसके लिए केन-बेतवा को चुना गया। केन-बेतवा मिलन की सबसे बड़ी त्रासदी तो उत्तर प्रदेश झेलेगा, जहां राजघाट और माताटीला बांध पर खर्च अरबों रुपये व्यर्थ हो जाएंगे। यहां बन रही बिजली से भी हाथ धोना पड़ेगा।
राजघाट परियोजना का काम जापान सरकार से प्राप्त कर्जे से अब भी चल रहा है। राजघाट से 953 लाख यूनिट बिजली भी मिल रही है। जनवरी, 2005 में केंद्र के जल संसाधन विभाग के सचिव की अध्यक्षता में संपन्न बैठक में उत्तर प्रदेश के अधिकारियों ने कहा था कि केन में पानी की अधिकता नहीं है और इसका पानी बेतवा में मोड़ने से केन के जल क्षेत्र में भीषण जल संकट उत्पन्न हो जाएगा। ललितपुर के दक्षिण और झांसी जिले में बेहतरीन सिंचित खेतों का पानी इस परियोजना के कारण बंद होने की आशंका भी उस बैठक में जताई गई थी।
केन-बेतवा को जोड़ना संवेदनशील मसला है। इस इलाके में सामान्य बारिश होती है और यहां की मिट्टी कमजोर है। यह परियोजना तैयार करते समय इस पर विचार ही नहीं किया गया कि बुंदेलखंड में जौ, दलहन, तिलहन, गेहू्ं जैसी फसलें होती हैं, जिन्हें सिंचाई के लिए अधिक पानी की जरूरत नहीं होती। जबकि इस योजना में सिंचाई की जो तस्वीर बताई गई है, वह धान जैसी अधिक सिंचाई वाली फसल के लिए कारगर है। इस परियोजना में पन्ना टाइगर रिजर्व पूरी तरह डूब जाएगा। पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय भी सवाल कर चुका है कि किस आधार पर इतने महत्वपूर्ण वन की भूमि को डूब में बदलने की अनुमति दी गई।
जलवायु परिवर्तन की वैश्विक त्रासदी में नदी जोड़ के बड़े बांध खलनायक की भूमिका निभाएंगे। इससे जंगल कटेंगे, विशाल जलाशय व नहरों के कारण नए दलदली क्षेत्र विकसित होंगे, जो मीथेन उत्सर्जन का जरिया होते हैं। यह परियोजना 1980 की है, जब जलवायु परिवर्तन या ग्रीनहाउस गैसों की चर्चा भी शुरू नहीं हुई थी। यदि इस योजना पर काम शुरू भी हुआ, तो एक दशक इसे पूरा होने में ही लगेगा तथा इस दौरान अनियमित जलवायु, नदियों के अपने रास्ता बदलने की त्रासदियां और गहरी होंगी।
ऐसे में जरूरी है कि सरकार नई वैश्विक परिस्थितियों में नदियों को जोड़ने की योजना का मूल्यांकन करे। इतने बड़े पर्यावरणीय नुकसान, विस्थापन, पलायन और धन व्यय करने के बाद भी बुंदेलखंड के महज तीन से चार जिलों को मिलेगा क्या, इसका आकलन भी जरूरी है। इससे एक चौथाई से भी कम धन खर्च कर बुंदेलखंड के पारंपरिक तालाब, बावड़ी, कुओं और जोहड़ों की मरम्मत की जा सकती है। अंग्रेजों के बनाए पांच बांध सौ साल में दम तोड़ गए हैं, आजादी के बाद बने तटबंध व स्टाप डैम पांच साल भी नहीं चले, पर बुंदेलखंड में एक हजार साल पुराने चंदेलकालीन तालाब रख-रखाव के अभाव के बावजूद लोगों के गले व खेत तर कर रहे हैं। बुंदेलखंड की किस्मत बदलने के लिए कम व्यय में छोटी परियोजनाएं ज्यादा कारगर होंगी।
सौजन्य - अमर उजाला।
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