ऑस्ट्रेलियाईवाद का अर्थ है जीतना ही एकमात्र लक्ष्य, कानूनों के दायरे में जीतना और जरूरत पड़े तो... ( अमर उजाला)

रामचंद्र गुहा  

मैंने जो पहली किताब शुरू से आखिर तक पढ़ी थी, उसे एक ऑस्ट्रेलियाई ने लिखा था। उनका नाम था कीथ मिलर और वह अपने देश के सबसे महान ऑलराउंडर क्रिकेटर थे।1956 में रिटायर होने के बाद मिलर ने क्रिकेट क्रॉसफायर के नाम से खेल संबंधी अपनी जीवनी लिखी, जिसका पुनर्प्रकाशन एक भारतीय प्रकाशक ने किया था और उसने इसकी कुछ प्रतियां हिमालय की तराई के उस शहर में भेजी थी, जहां मैं बड़ा हुआ। मिलर के क्रिकेट खेलना छोड़ने के एक दशक बाद भारत में उनकी किताब की संभवतः आखिरी प्रति मेरे पिता ने देहरादून के राजपुर रोड स्थित एक दुकान से खरीदकर मुझे दी थी।



क्रिकेट क्रॉसफायर को पढ़ने के बाद मेरे किशोर मन को दो चीजों ने प्रभावित कियाः पहली थी, मिलर की अपने कप्तान डॉन ब्रैडमैन के प्रति मिश्रित भावना और दूसरी थी, भारत और भारतीयों के प्रति मिलर की आसक्ति। लेखक ने पाया कि ब्रैडमैन अपने दौर के महान क्रिकेटर थे, फिर भी व्यक्ति के रूप में वह मनमाने ढंग से कदम उठाते थे, यहां तक कि वह स्वार्थी भी थे। हालांकि मिलर ने जिन भारतीयों के खिलाफ खेला था, उनकी उन्होंने खिलाड़ी और व्यक्ति, दोनों ही रूपों में सराहना की। आधी सदी से भी अधिक समय के बाद मैं याद कर पा रहा हूं कि मिलर की किताब में मुश्ताक अली, सी एस नायडू, वीनू मांकड़ और विजय मर्चेंट का संक्षिप्त लेकिन प्यारा-सा वर्णन है। 

मिलर से एक दशक पहले फिंग्लटन ने ब्रैडमैन के साथ (और उनके मातहत रहते) क्रिकेट खेला था और बाद में उनकी किताबों को पढ़ने के बाद मुझे पता चला कि उन्होंने भी ब्रैडमैन को अपने समय का महान क्रिकेटर बताया और यह भी पाया कि व्यक्ति के तौर पर उन्हें पसंद नहीं किया जा सकता।


1960 के दशक के आखिर में भारतीय घरों में टेलीविजन नहीं था, सो मेरे जैसे क्रिकेट के दीवाने को इस खेल की जानकारी प्रिंट और रेडियो से मिल पाती थी। मुझे लगता है कि मैंने 1967-68 के भारतीय टीम के ऑस्ट्रेलिया दौरे (इसमें हम 4-0 से पराजित हुए थे) के कुछ अंश सुने थे। हालांकि उसके बाद आई सर्दियों के समय वेस्ट इंडीज टीम के ऑस्ट्रेलिया दौरे की मुझे कहीं अधिक अच्छे से याद है। मैं मेहमानों का समर्थन कर रहा था, जिनकी अगुआई डॉन से भी महान क्रिकेटर गारफील्ड सोबर्स कर रहे थे। सो, मेजबान टीम से टेस्ट मैचों में उसे मिली तीन-एक की शिकस्त से मैं काफी निराश हो गया, हालांकि एबीसी की कमेंटरी से थोड़ी राहत मिली, जिसका प्रतिनिधित्व उत्साही एलन मैकगिलवरे और बौद्धिक तथा विचारशील लिंडसे हैसेट कर रहे थे।


देहरादून की कंपकपा देने वाली सर्दियों में दिसंबर या जनवरी के महीने में सुबह पांच बजे उठने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत पड़ती थी, ताकि फिलिप्स के रेडियो सेट को धीमी आवाज में सुना जा सके, जिससे घर के दूसरे लोग परेशान न हों। 1970 के पूरे दशक की मेरी सर्दियां इंग्लैंड, वेस्ट इंडीज, पाकिस्तान और भारत के ऑस्ट्रेलिया दौरों के उत्साह से भरी रहीं। बड़े होने पर जब मैंने खुद से किताबें खरीदनी शुरू की, तब मैंने जैक फिंग्लटन और रे रॉबिंन्सन का लिखा पढ़ा, जिन्होंने मिलर या फिंग्लनट जैसे मैच तो नहीं खेले थे, लेकिन उनके पास अपनी महान शैली थी।


लड़कपन और युवावस्था में मेरे पसंदीदा ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट लेखक और क्रिकेट कमेंटेटर थे। 1979 में बंगलुरू में खेले गए टेस्ट मैच के दौरान मैंने जब ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटरों को पहली बार साक्षात देखा, तब मैं बीस वर्ष से अधिक का हो चुका था। हालांकि कैरी पैकर की वजह से यह कमजोर टीम थी। 1980 के दशक में मैं ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटरों को टेस्ट मैच खेलते नहीं देख सका, संभवतः इसलिए क्योंकि पैकर के कारण यह टीम उस दशक में प्रतिस्पर्द्धा के लायक नहीं थी। सौभाग्य से 1990 और 2000 के दशकों में ऑस्ट्रेलिया के शीर्ष क्रिकेटरों ने बंगलूरू में अनेक टेस्ट मैच खेले थे, जिसे मैं अब अपना गृह नगर कहता हूं। उन मैचों के दौरान पोटिंग और वॉ भाइयों की बल्लेबाजी, मैकग्रा और वार्न की गेंदबाजी तथा हीले और गिलक्रिस्ट की विकेट कीपिंग का आनंद उठाने के लिए मैं हमेशा मैदान में उपस्थित रहता था।


उस देश के क्रिकेटरों के बारे में पढ़ने, सुनने और उन्हें खेलता देखने के बाद मैं चर्चा के लिए सर्वकालिक ऑस्ट्रेलियाई टेस्ट इलेवन प्रस्तुत कर रहा हूं। बल्लेबाजी के क्रम के अनुसार यह टीम कुछ इस तरह से हैः 1. विक्टर ट्रंपर 2. आर्थर मोरिस 3. डॉन ब्रैडमैन 4. रिकी पोंटिंग 5. एलन बॉर्डर 6. कीथ मिलर 7. एडम गिलक्रिस्ट 8. शेन वार्न 9. डेनिस लिली 10. बिल ओरिली और 11. ग्लेन मैकग्रा।


मैंने इससे स्टीम स्मिथ को अलग रखा, क्योंकि वह अब भी खेल रहे हैं। मुझे शक है कि इसमें सबसे विवादास्पद सलामी जोड़ी की पसंद हो सकती है। तात्कालिकता के प्रभाव के कारण अनेक क्रिकेट फैंस मार्क टेलर और मैथ्यू हैडन को पसंद कर सकते हैं, जिनके रन बनाने की क्षमता को टेलीविजन ने कैद किया है और जिसे यूट्यूब पर बार-बार देखा जाता है। हालांकि ट्रंपर की ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट स्मृति और लोकथाओं में विशेष जगह है, जैसा कि जैक फिंग्लटन और गिडन हाई ने उनके बारे में लिखा भी है। ट्रंपर की तरह आर्थर मोरिस एक शानदार आक्रामक बल्लेबाज थे, स्पिन और पेस गेंदों को कलात्मक ढंग से खेलने की उनकी खूबी को टीम के उनके साथियों और विरोधियों, दोनों ने ही रेखांकित किया। मैंने जो इलेवन तैयार किया है, उसमें किसी भी हालत में मोरिस बाएं हाथ के बल्लेबाजों टेलर और हैडन से आगे ही होंगे।


इस इलेवन का कप्तान कौन होगा? मैं जानता हूं कि ब्रैडमैन स्वाभाविक पसंद होंगे, लेकिन मैं एलन बॉर्डर को रखना पसंद करूंगा। डॉन ने ऐसी टीम की अगुआई की, जो सभी विभागों में अत्यंत प्रतिभाशाली थी, सो उसे जीतना ही था। दूसरी ओर बॉर्डर ने ऐसे समय ऑस्ट्रेलिया का नेतृत्व किया, जब वह क्रिकेट इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा था। उन्होंने युवा खिलाड़ियों को तराशा और टीम भावना स्थापित की। इस टीम और वेस्ट इंडीज की फ्रैंक वारेल की अगुआई वाले सर्वकालिक इलेवन के बीच यदि काल्पनिक मैच हो, तो मैं ब्रैडमैन के बजाय बॉर्डर पर ही भरोसा करूंगा।


ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटरों को समर्पित इस लेख का समापन मैं एक अंग्रेज जॉन एर्लोट के शब्दों से कर रहा हूं। 1948 में इंग्लैंड की टीम के दौरे के बाद एर्लोट ने वृहत दृष्टिकोण वाला एक छोटा-सा लेख लिखा था। यह लेख इन सवालों से शुरू होता हैः 'ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर अलग क्यों हैं? ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ टेस्ट मैच किसी भी अन्य देश के खिलाफ होने वाले टेस्ट मैचों से अलग क्यों होता है? और हम ऐसा क्यों महसूस करते हैं कि वे अलग हैं?' एर्लोट ने उन मैचों के बारे में लिखा, जिसे उन्होंने देखा था या जिनके बारे में पढ़ा था, जिनमें ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटरों के विशेष गुण उभरकर सामने आए थे। एर्लोट ने अपने लेख का समापन यह कहते हुए किया कि एशेज टेस्ट में जब भी कोई अंग्रेज टीम खेलती है, तो उसका सामना ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाजी, गेंदबाजी, क्षेत्ररक्षण, कप्तानी और 'ऑस्ट्रेलियाईवाद' का सामना करना पड़ता है।


ऑस्ट्रेलियाईवाद का अर्थ है जीतना ही एकमात्र लक्ष्य, कानूनों के दायरे में जीतना और जरूरत पड़े, तो उसके भीतर अंतिम सीमा तक जाकर जीतना। इसका मतलब है कि मानव शरीर के दायरे में की जा सकने वाली जो चीज 'असंभव' है, उसे ऑस्ट्रेलियाई संभव मानते हैं और अक्सर जीतकर वे हमें चकित करते हैं कि उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। इसका मतलब है कि जब तक आखिरी रन न ले लिया जाए या आखिरी विकेट न गिर जाए, वे मैच नहीं हारते, खासतौर से टेस्ट मैच।


इसे एक अंग्रेज के दृष्टिकोण से लिखा गया था। मगर यह ऐसे भारतीयों की भावना को भी व्यक्त करता है, जिन्होंने अपनी टीम को ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध क्रिकेट खेलते देखा है। ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ जल्द ही शुरू होने वाली टेस्ट शृंखला निश्चित रूप से सत्तर साल पहले एर्लोट की लिखी बातों की पुष्टि करेगी।


सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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